उपन्यास के केन्द्र में है मालती है, जो एक अध्यापिका है और 'विवाहिता' की शक्ल में एक लम्पट के हाथो ठगी जाकर एक बच्ची की माँ बन चुकी है | बाद में वह अपनी हितैषी प्रधानाध्यापिका की सलाह और प्रयास से पुनर्विवाह तो करती है, लेकिन पूर्वविवाहित जीवन को बड़ी होती हुई नीलिमा से बराबर छुपाये रहती है | इससे उसका परवर्ती जीवन कुंठित और एक विचित्र प्रकार के अपराध-बोध का शिकार हो जाता है | कहना न होगा की इससे मालती की स्वाभाविक जीवन-धारा और दायित्व-निर्वाह में जो गतिरोध आ गया है, अन्ततः उसे उसकी युवा बेटी ही अपनी सूझ- बूझ से दूर करती है |
संक्षेप में कहे तो शशिप्रभा शास्त्री का यह उपन्यास पारिवारिक सम्बन्धो में किसी भी तरह के सच की स्वीकृति का आग्रह करता है |
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