पुस्तकालय सामग्री और कला-वस्तुओं का परिरक्षण: Preservation of Books, Manuscripts and Art Objects

$24
Item Code: NZD019
Publisher: National Book Trust, India
Author: ओ.पी. अग्रवाल, और राजेन्द्र प्रसाद तिवारी (O. P.Agrawal, Rajendra Prasad Tiwari)
Language: Hindi
Edition: 2012
ISBN: 9788123725451
Pages: 115(16 color & 29 B/W illustrations)
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 200 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description

पुस्तक के विषय में

समस्त कला-वस्तुएं, चाहे वे किसी भी श्रेणी की हों-पाषाण, काष्ठ, वस्त्र, पांडुलिपियां, चित्र तथा अन्य सामग्रियां-क्षति और हास की संभावनाओं के दौर से गुजरती हैं। इन सामग्रियों को, एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करते समय, प्रदर्शन, भंडारण, फोटोग्राफ लेते समय एवं अनुसंधान के दौरान, प्राय: उठाना या स्पर्श करना पड़ता है। कला-वस्तुओं, पुस्तकों एवं पांडुलिपियों के अभिरक्षकों को हानि पहुंचाने वाले तत्वों की प्रकृति, उनके कारणों, प्रभावों का ज्ञान तथा इन वस्तुओं में जो दोष परिलक्षित हुए हों, उनकी रोकथाम की तकनीकों का भी ज्ञान होना चाहिए । प्रस्तुत पुस्तक की रचना बोधगम्य भाषा में की गई है तथा इसका उद्देश्य पाठकों को कला-वस्तुओं के परिरक्षण के बारे में जानकारी देना है ताकि संग्रहालयों और अन्य स्थलों पर उपलब्ध इस बहुमूल्य विरासत को अधिक समय तक नष्ट होने से बचाया जा सके।

पुस्तक के लेखक श्री ओ. पी. अग्रवाल, संरक्षण संबंधी राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला, लखनऊ के संस्थापक निदेशक हैं और इस समय आप इन्टेक भारतीय संरक्षण संस्थान के महानिदेशक हैं । 1931 में जन्मे श्री अग्रवाल की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संपन्न हुई । प्रसिद्ध संस्थान 'सेंट्रल इन्स्टीट्यूट आफ रिसटोरेशन', रोम में आपने संरक्षण की विभिन्न तकनीकों पर प्रशिक्षण प्राप्त किया। आप 'इंडियन एसोसिएशन फार दी स्टडी आफ कंजरवेशन आफ कल्वरल' प्रापर्टी' के अध्यक्ष, 'काउंसिल आफ दी इंटरनेशनल सेंटर कर कंजरवेशन', रोम के उपाध्यक्ष तथा 'म्यूजियम एसोसिएशन आफ इंडिया, के अध्यक्ष पद पर सुशोभित रहे हैं । आपने 28 पुस्तकों का लेखन एवं संपादन किया। इसके अलावा आपके 160 से अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं ।

प्राक्कथन

संग्रहालय तथा कला-संग्रहकर्ता, पाषाण, धातु मिट्टी, कागज, वस्त्र, काष्ठ आदि विभिन्न प्रकार की सामग्री से निर्मित कलात्मक वस्तुओं का संग्रह करते हैं । संग्रहालयाध्यक्ष को अपने दायित्वों के अंतर्गत संग्रहालय में सुरक्षित वस्तुओं का पंजीकरण, सूचीकरण, फोटोग्राफी, प्रदर्शन, अतिरिक्त सामग्रियों का संचय क्षेत्र में सुरक्षित रखरखाव, वस्तुओं और ग्रंथों का अध्ययन, लेखों अथवा सूची-पत्रों का प्रकाशन करना पड़ता है । यद्यपि निजी संग्रहकर्ता को इतना कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती हे । अत: संग्रहालयाध्यक्ष का प्रमुख कर्तव्य विभिन्न प्रकार की सामग्री का परिरक्षण करना होता है । इन्हीं कार्यों को पुस्तकालयाध्यक्ष और कला-संग्राहक को भी करना पड़ता है ।

कला-सामग्री अपने निर्माण के समय से ही हास की विभिन्न प्रक्रियाओं के दौर से गुजरती रहती है । परिरक्षण के लिए आने से पहले वस्त्र काफी घिस चुके होते हैं और अनेक बार उन्हें धो लिया जाता है, जिससे वस्त्र की मजबूती में काफी कमी आ चुकी होती है । मंदिरों में काफी लंबे समय से रखी गई मूर्तियों पर लगातार श्रद्धालुओं द्वारा जल, दूध तथा अन्य तरल सामग्रियों के चढ़ाने से मूर्तियों को कुछ हानि पहुंच सकती है । हो सकता है कि कोई लकड़ी की शिल्प-वस्तुओं का प्रयोग अपने निवास को अलंकृत करने अथवा रोजमर्रा के प्रयोग के लिए करता रहा हो लेकिन बाद में उचित देखभाल के अभाव में उन्हें भी क्षति पहुंच सकती है ।

किसी वस्तु के संग्रह में शामिल हो जाने पर भी, टूट-फूट के अलावा उस सामग्री को जलवायु, प्रकाश, कीट और कवक के प्रभाव से, हास के अनेक दौरों से गुजरना पड़ता है । अत: कला-संग्राहक, संग्रहालयाध्यक्ष तथा पुस्तकालयाध्यक्ष को उन कारणों का ज्ञान होना चाहिए जिनसे अलग-अलग सामग्रियों को हानि पहुंचती है और किस प्रकार वे कारक उन्हें प्रभावित करते हैं ।

इस पुस्तक की रचना का उद्देश्य, सरल भाषा में, परिरक्षण के सिद्धांतों से संबंधित सभी व्यक्तियों को परिचित कराना है जिससे वे अपनी सांस्कृतिक विरासत का सही तरीके से परिरक्षण कर सकें। इस प्रकार की पुस्तक की आवश्यकता काफी लंबे समय से अनुभव की जा रही थी। इसमें दिए गए कुछ विचार मेरी पुस्तक 'केयर एंड प्रिजरवेशन आफ म्यूजियम आब्जेक्ट्स' में पहली बार प्रस्तुत किए गये । तब से आज तक, इस क्षेत्र में बहुत तेजी से विकास हुआ है, जिसका उल्लेख करने का प्रयास मैंने अपनी इस नवीनतम कृति में किया है । इसके अलावा यह पुस्तक केवल संग्रहालयाध्यक्षों को संबोधित न होकर आम पाठक के उपयोग के लिए भी है।

मैं नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया को इसके लिए धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने इस विषय का लोकोपयोगी विज्ञान पुस्तकमाला के अंतर्गत चयन किया। मैं विशेषकर सुश्री मंजु गुप्ता का आभारी हूं जिन्होंने इस पुस्तक की संपूर्ण पांडुलिपि का वाचन ही नहीं किया, बल्कि अत्यंत परिश्रम से इसका संपादन भी किया। मैं अपनी पत्नी उषा अग्रवाल, जो इन्टेक भारतीय संरक्षण संस्थान में कार्यक्रम निदेशक हैं, का समय-समय पर दिये गये बहुमूल्य सुझावों के लिए आभारी हूं । पुस्तक में प्रकाशित सभी रेखा-चित्र सुश्री ममता मिश्र द्वारा बनाये गये हैं, जिनका मैं हृदय से आभारी हूं। मैं श्री राम सागर प्रसाद के सहयोग के प्रति आभार प्रदर्शित करता हूं जिन्होंने इस पुस्तक के लिए छायाचित्रों की व्यवस्था की है। मैं अपनी सचिव सुश्री राधम्मा को धन्यवाद देते हुए अत्यंत हर्ष का अनुभव कर रहा हूं जिन्होंने इस पांडुलिपि को अनेक बार टंकित और पुनर्टंकित किया।

भूमिका

दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की प्राचीन कला-परंपरा, शिल्प और विभिन्न सामग्रियों पर लेखन का हजारों वर्ष प्राचीन इतिहास है। प्रत्येक युग में नवीन प्रकार के कलात्मक कार्यकलापों का अम्युदय और उनका निरंतर विकास होता रहा है। इसमें संदेह नहीं कि पाषाण मूर्तियों, धातु मूर्तियों, काष्ठ वस्तुओं, गलीचों, पांडुलिपियों, पुस्तकों, लघु-चित्रों, तैल-चित्रों, अन्य अलंकरण की वस्तुओं, कांच, सिरेमिक्स तथा अन्य सामग्रियों से निर्मित वस्तुओं के रूप में हमें सांस्कृतिक विरासत की समृद्ध परंपरा प्राप्त हुई है। अनेक धार्मिक और उपासना-स्थलों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कलात्मक-सृजन को प्रोत्साहित किया। आज हमें जो अनेक मूर्तियां, प्रतिमाएं और चित्र प्राप्त होते हैं वे मानव की धार्मिक और आनुष्ठानिक परंपराओं की देन हैं । ऐसा कोई घर नहीं होगा जिसमें त्योहारों के अवसर पर मूर्ति का निर्माण न किया जाता हो अथवा कम से कम एक मूर्ति न खरीदी जाती हो अथवा आराधना के लिए रंगीन आकृतिपरक चित्रों को न बनाया जाता हो । विभिन्न जनजातियों और संप्रदायों की जीवन-शैली में क्षेत्रीय विविधताओं के दर्शन होते हैं जिसके फलस्वरूप उनकी कला और शिल्प सामग्रियां प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं।

विगत काल की इन कलात्मक रचनाओं को संग्रहालयों, पुस्तकालयों, अभिलेखागारों और यहां तक कि निजी संग्रहों में रखा जाता है। केवल भारत में ही 400 से अधिक संग्रहालय हैं जिनमें पुरातात्विक, नृजातिसंबंधी, ऐतिहासिक और विभिन्न प्रकार की शिल्प-सामग्रियों को संग्रहित किया जाता है। लोगों में पारंपरिक मूल्यों और सांस्कृतिक बोध की वृद्धि होने से संग्रहालयों और पुस्तकालयों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। इनमें से पुस्तकालयों में केवल पुस्तकें ही नहीं संग्रहित की जा रही हैं वरन् दुर्लभ पांडुलिपियों, चित्रों, मूर्तियों और विभिन्न प्रकार की कला-सामग्रियों को भी संग्रहित किया जा रहा है। कला-पारखियों और संग्राहकों ने भी अपने-अपने निजी संग्रह बना रखे हैं।

इन कला-कृतियों का अपना महत्व है क्योंकि ये सभ्यता और इतिहास के प्रत्येक काल के संदेशों को उद्घाटित करती हैं । इनकी उपादेयता इनके सौंदर्य और आकर्षण पर ही निर्भर नहीं करती, वरन् मानव-ज्ञान के विस्तार में इनकी भूमिका अद्वितीय रही है। प्राचीन काल में जनसाधारण द्वारा, दैनिक जीवन के प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुएं जैसे बर्तन, उपकरण, चित्र तथा अलंकरण सामग्रियां, मानव-विकास के लिए अध्ययन सामग्री प्रस्तुत करती हैं। लोककला, मानव जाति द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुएं, जनजातीय वस्तुएं-मानव इतिहास के दस्तावेज आदि-संग्रहणीय सामग्रियां हैं । समकालीन कलात्मक वस्तुएं और कुछ समय पूर्व की वस्तुओं के नमूने हमें मानव-विकास के संबंध में कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य प्रदान करते हैं।

अनेक कालों से चले आ रहे इन बहुमूल्य साक्ष्यों के परिरक्षकों का यह परम दायित्व है कि इन सामग्रियों की ठीक से देखभाल और परिरक्षण किया जाए। संग्रहालय के अध्यक्ष का कार्य वस्तुओं को सुरक्षित रीति से रखना, उन्हें प्रदर्शित करना और उन्हें प्रलेखित कर उनकी व्याख्या करना है । पुस्तकालय में, पुस्तकालयाध्यक्ष, पुस्तकों को प्राप्त कर, उनकी सूची बनाकर, पाठकों के सम्मुख अध्ययन के लिए प्रस्तुत करता है और उनके समुचित रखरखाव की व्यवस्था करता है। वे वस्तुएं जो निजी अभिरक्षा में रखी होती हैं, यद्यपि व्यक्तिगत संपत्ति की श्रेणी में आती हैं पर मानव-मात्र के विकास के प्रतीक और राष्ट्रीय परिसंपत्ति के रूप में इनका महत्व कम नहीं है। अत: इनका संरक्षण अवश्य किया जाना चाहिए।

प्राय: कला-सामग्रियों को परिरक्षित करने तथा उन्हें विघटन से बचाने की इच्छा के बावजूद इस संबंध में आवश्यक जानकारी जनसाधारण को नहीं है। लोगों को इसका भी ज्ञान नहीं है कि वस्तुओं की परिरक्षा संबंधी सामान्य सावधानी रखने से ही बहुत लाभ प्राप्त किया जा सकते हैं। अत: प्रस्तुत पुस्तक के लेखन के समय मेरा उद्देश्य पुरातात्विक, मानवजाति संबंधी और अन्य प्रयुक्त सामग्रियों के विषय में संक्षिप्त, सैद्धांतिक और तध्यात्मक जानकारी प्रदान करना है ताकि इन सामग्रियों को विघटन और क्षति पहुंचाने वाले प्रमुख कारकों की पहचान की जा सके और फलत: इन्हें क्षतिग्रस्त होने से बचाया जा सके। यह विशेष रूप से आवश्यक है कि उन संभावित खतरों पर ध्यान दिया जाये जो कला-वस्तुओं, पुस्तकों और पांडुलिपियों के रखरखाव के समय उत्पन्न होते हैं । उन खतरों से कैसे निपटा जाए, साथ ही इसे भी जान लेना चाहिए । वे दिन अब गये जब पांडुलिपियों और कलात्मक सामग्रियों को शाही तोशाखानों में सुरक्षित रखा जाता था और उन्हें केवल समारोहों के अवसरों पर ही बाहर निकाला जाता था । कला सामग्रियां, पुरावस्तुएं और मानवजाति संबंधी सामग्रियां, प्राकृतिक काल-प्रभाव और अपक्षय से प्रभावित होती हैं । मानवजन्य कारकों के अलावा इन समस्त सामग्रियों को अनेक प्रकार के प्राकृतिक हास के दौर से लगातार गुजरना पड़ता है। पाषाण की सुंदर मूर्तियां लवण की उपस्थिति से टूट-फूट जाती हैं। वायुमंडलीय आर्द्रता के उतार-चढ़ाव के कारण काष्ठ की कलात्मक मूर्तियां दरारें एड्ने से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। प्रकाश के प्रभाव से रंगीन वस्त्र बदरंग और कमजोर होने लगते हैं। दीमक की तरह के कीट बहुमूल्य कला-सामग्रियों को एक ही रात्रि में चूर्ण में परिवर्तित कर देते हैं। समस्त प्रकार के कागज की सामग्रियों, वस्त्रों, चित्रों इत्यादि को कवक क्षतिग्रस्त कर देते हैं। बहुमूल्य कला-सामग्रियों की गलत और लापरवाही से की गयी पैकिंग से उन्हें क्षति पहुंचती है। ऐसे मामलों में प्रश्न यह उठता है कि इस प्रकार के विनाश से बचने के लिए क्या किया जाए? हममें से अनेक लोग यह सोचते हैं कि जैसे ही कोई वस्तु या पांडुलिपि अथवा दस्तावेज, संग्रहालय, पुस्तकालय, अभिलेखागार या संग्रह में रख दिया जाता है, तो वह स्वत: ही परिरक्षित हो जाता है और उसे परिरक्षित करने का दायित्व वहीं पर समाप्त हो जाता है । पर वास्तव में ऐसा नहीं होता। इसके उपरांत ऐसे कदम उठाने पड़ते हैं कि उनके विघटन की प्रक्रिया पर रोक लग जाए। इन्टेक भारतीय संरक्षण संस्थान, लखनऊ ने इस महत्वपूर्ण तथ्य को उजागर किया है कि प्राय: अधिकतर सामग्रियां, वातानुकूलन या संरक्षण की कमी के फलस्वरूप विघटित नहीं होतीं, बल्कि मुख्य रूप से लापरवाही, रखरखाव की कमी और अनुपयुक्त भंडारण के कारण होती हैं। वास्तव में, सांस्कृतिक संपदा के संरक्षण के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है (1) वस्तुओं में पहले से व्याप्त दोषों का इलाज अथवा उपचार करना, और (2) भावी क्षति से उसकी रक्षा और उनके रखरखाव की समुचित व्यवस्था करना ।

वस्तु में पहले से विद्यमान दोषों के उपचार और उसमें निहित क्षति के संरक्षण के लिए एक उपयुक्त संरक्षण प्रयोगशाला का होना आवश्यक है, जिससे वस्तु की जांच, उसके रोगों का निदान करने के उपरांत उसकी विस्तृत रिपोर्ट बनाकर उसका उपचार किया जा सके । अनेक प्रकार के उपस्करों से उसका परीक्षण करने के उपरांत, प्रयोगशाला में यह ज्ञात हो जाता है कि वस्तु को कितनी क्षति पहुंच चुकी है और किस प्रकार से उसे उसकी मूल स्थिति में लाना संभव है। पर हमें यह जान लेना चाहिए कि एक सामान्य संरक्षण प्रयोगशाला में विश्लेषण के लिए अत्याधुनिक उपस्करों जैसे एटोमिक एब्सोर्पशन स्पेक्ट्रोफोटोमीटर या एक्स-रे फ्लोरेसैंस स्पेक्ट्रोमीटर की आवश्यकता होती है। संरक्षण प्रयोगशाला वस्तुओं के उपचार के लिए निर्मित की जाती है और इसमें जिन उपकरणों का प्रयोग किया जाता है, यद्यपि वे सामान्य प्रकार के होते हैं, पर उनके प्रयोग के लिए अत्यंत उच्च स्तरीय तकनीकी कौशल की आवश्यकता होती है।

संरक्षण-उपचार या अनुसंधान के विपरीत, वस्तुओं को आगामी क्षति से बचाने के लिए तथा अच्छी स्थिति में रखने के लिए, कुछ सावधानियां आवश्यक हैं। वस्तुओं के संग्रह की सुविधाओं के अलावा इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि कीट (कीड़े-मकोड़े) सामग्री को क्षति न पहुंचाने पाएं। परिरक्षक को वस्तुओं के गुणधर्मों, उनके रासायनिक आचरण और उन पर पर्यावरण के. प्रभाव तथा क्षय के अन्य कारणों का ज्ञान होना चाहिए।

वस्तुओं की स्वच्छता और मरम्मत के छोटे-मोटे कार्य परिरक्षक स्वयं ही कर सकता है, यदि उसे इसका आभास हो जाए कि वस्तुओं को किस प्रकार का खतरा पहुंच सकता है । उसे इसका ज्ञान होना चाहिए कि उनके हास के कौन से माध्यम अथवा कारक हैं और वे वस्तुओं को किस प्रकार प्रभावित करते हैं तथा किन प्रविधियों को अपना कर उनके हास को नियंत्रित किया जा सकता है। उसे संकट के संकेतों का ज्ञान होना चाहिए, साथ ही उसे यह भी ज्ञात होना चाहिए कि कला सामग्रियों का कैसे खयाल रखा जाये तथा किस प्रकार भंडार में सुरक्षित रीति से रखा जाए। उसमें आवश्यकतानुसार कला-सामग्रियों के संबंध में कीट और कवकनाशियों के प्रयोग की भी योग्यता होनी चाहिए।

परिरक्षक को सामान्य उपचार की उन विधियों का ज्ञान होना चाहिए जिसे प्राथमिक चिकित्सा कहते हैं। किसी संग्रह या पुस्तकालय के प्रभारी में यह जानने की क्षमता होनी चाहिए कि कब विशेषज्ञ की राय अथवा वस्तुओं के उपचार की आवश्यकता है ।

सरक्षण और पुनरुद्धार में अंतर

अब हमें 'संरक्षण' और 'पुनरुद्धार' शब्दों के अंतर को जान लेना चाहिए । आजकल 'पुनरुद्धार' शब्द से अधिक 'संरक्षण' शब्द का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इस शब्द का अर्थ-विस्तार अधिक है। पुनरुद्धार का तात्पर्य किसी वस्तु को मरम्मत द्वारा, जहां तक हो सके उसके मूल भौतिक और मूल सौंदर्य की अवस्था में रखने की क्रिया से है । यह क्रिया वस्तु-हास को ठीक करती है । इसका अपना एक सीमित उद्देश्य होता है, जिसका आरंभ और अंत होता है । दूसरी ओर संरक्षण का दायरा काफी बड़ा है । इसकी परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की गयी है-किसी प्रकार की सांस्कृतिक परिसंपत्ति की सामग्रियों को एक स्थान में सुरक्षित रखने, उनका रखरखाव अथवा उपचार करने तथा उनकी प्रकृति तथा गुणधर्मो का निर्धारण करने, उनके हास को रोकने से संबंधित क्रियाकलाप; तथा अन्य प्रकार के कार्य जो इन परिसंपत्तियों की वर्तमान स्थिति में सुधार लाएं (अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण संस्थान, लंदन की संविधियां) । संरक्षण एक अवधारणा है, जिसमें परिरक्षण और पुनरुद्धार दोनों ही सम्मिलित होते हैं । ऊपरी तौर से परिरक्षण के अंतर्गत वस्तु को भौतिक और रासायनिक दृष्टि से दुरुस्त स्थिति में रखने का प्रयास किया जाता है । अत: यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो कभी समाप्त नहीं होती ।

परिरक्षण की रीतियों पर चर्चा करने से पूर्व हमें सर्वप्रथम यह जानना चाहिए कि विघटन क्या है, और वे कौन-कौन से तत्व हैं जो वस्तुओं को नष्ट करते हैं । विघटन या हास वस्तु में परिवर्तन होने की स्थिति है, जो वस्तु और विनाश के कारकों के पारस्परिक द्वंद्व से होता है । अत: परिरक्षण के लिए जिन वस्तुओं से ये सामग्रियां निर्मित हुई हैं, उनकी रासायनिक और भौतिक प्रकृति का अध्ययन अवश्यमेव किया जाना चाहिए और उन विशिष्ट कारणों को भी जानने का प्रयास करना चाहिए जो उन वस्तुओं के हास के लिए उत्तरदायी होते हैं ।

वस्तुओं की प्रकृति

समस्त वस्तुओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है : (1) अकार्बनिक और (2) कार्बनिक । पाषाण, धातुऐं और सिरेमिक्स आदि अकार्बनिक पदार्थ हैं, जबकि काष्ठ, कागज, वस्त्र, चर्म, हाथीदांत, अस्थि, पंख और अन्य सामग्रियां जो जीवित वस्तुओं और वनस्पतियों से प्राप्त की जाती हैं, उन्हें कार्बनिक पदार्थ कहते हैं । कार्बनिक सामग्रियों का अकार्बनिक सामग्रियों की तुलना में अधिक प्राकृतिक क्षय होता है । अत: कार्बनिक वस्तुओं के परिरक्षण के लिए अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है । तथापि, इसका यह अर्थ नहीं है कि अकार्बनिक सामग्रियां पूर्णतया क्षय या विनाश के प्रति प्रतिरक्षित होती हैं । इनका भी हास होता है, पर कार्बनिक सामग्रियों की तुलना में उसकी गति धीमी होती है ।

अपघटन या ह्रास के कारक

ऐसे अनेक कारक होते हैं जिनका पदार्थों के ऊपर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है । खुले वातावरण में सूर्य का प्रत्यक्ष प्रकाश तथा लगातार तेज गर्मी, आधी-तूफान और खुले स्थान में वस्तुओं के पड़े रहने से उन पर अत्यंत विनाशकारी प्रभाव पड़ता है । पर इसका यह अर्थ नहीं है कि वस्तुएं भवनों के अंदर सुरक्षित और संरक्षित रहती हैं । ऐसे अनेक कारक होते हैं जो रात-दिन लगातार वस्तुओं के संपर्क में आकर, धीरे-धीरे भवनों के अंदर भी उन्हें विघटन की प्रक्रिया के घेरे में ले आते हैं । वस्तुओं के विघटन के कुछ कारण प्राकृतिक हैं, और कुछ कारणों को मानवजन्य माना जा सकता है। जलवायुगत परिस्थितियां और वातावरण, प्रकाश, सूक्ष्म जीव जैसे कवक, कीट तथा वातावरण में प्रदूषकों की उपस्थिति- ये समस्त प्राकृतिक कारण हैं जो वस्तुओं को विघटन की ओर ले जाने में सहायक होते हैं।

इन वस्तुओं को मानव भी अनेक प्रकार से हानि पहुंचाता है । वस्तुओं को त्रुटिपूर्ण ढंग से उठाने और पकड़ने, उनकी उपेक्षा करने, भंडारघरों की सामग्रियों को गलत तरीके से रखने, दुर्घटनाओं या अग्निकांडों से प्राय: वस्तुओं को अपार नुकसान पहुंचता है। ऐसे भी दृष्टांत मिलते हैं जब पाषाण मूर्तियां एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय टूट गयी, क्योंकि पैकरों ने मूर्ति के चारों और लचीली पैंकिंग सामग्री का काफी मात्रा में प्रयोग नहीं किया था। तह करके रखे गए वस्त्र प्राय: तहों से कटने-फटने लगते हैं।

इन सबके अलावा वस्तुओं में भी दोष होता है, जिसके फलस्वरूप उनका लगातार हास होता रहता है । उदाहरणार्थ पत्थर में लवण और कागज में अन्त की उपस्थिति से इनका हास शीघ्र होने लगता है।

प्रस्तुत पुस्तक को दो भागों में विभक्त किया गया है जिससे विषय को सरलता से समझा जा सके । हम जब तक कला सामग्रियों को हानि पहुंचाने वाले कारकों तथा जिस सामग्री से वह वस्तु बनाई गयी है, उसकी प्रकृति को पूर्णतया नहीं जान लेंगे, तब तक हम उन वस्तुओं के संरक्षण के लिए उचित कदम नहीं उठा सकते।

 

विषय-सूची

 
 

प्राक्कथन

सात

 

भूमिका

नौ

भाग-1

1

जलवायु एवं वातावरण

3

2

प्रकाश

15

3

कीट

20

4

कवक

27

5

वायुमंडलीय प्रदूषण

29

6

कला-वस्तुओं का गलत रखरखाव

31

7

अग्नि

38

 

भाग-2

8

पाषाण वस्तुएं

45

9

धातुएं

50

10

सिरेमिक

57

11

काष्ठ

62

12

वस्त्र

66

13

पांडुलिपियां तथा पुस्तकें

70

14

जंतु-चर्म और उसके उत्पाद

77

15

आरेखण और रंग-चित्र

79

16

फोटोग्राफ

88

17

विविध सामग्रियां

91

 

शब्दावली

98

 

सदंर्भ ग्रंथ

100

 

Sample Pages







Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at help@exoticindia.com
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through help@exoticindia.com.
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories