गृहदाह: Grihadaha by Sharat Chandra

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Item Code: NZD233
Publisher: Radhakrishna Prakashan Pvt. Ltd.
Author: शरतचन्द्र (Sharat Chand)
Language: Hindi
Edition: 2013
ISBN: 9788183616041
Pages: 230
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 260 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

गृहदाह शरतचन्द्र

गृहदाह सामाजिक विसंगतियों, विषमताओं और विडम्बनाओं का चित्रण करनेवाला शरतचन्द्र का एक अनूठा मनौवैज्ञानिक उपन्यास है। मनोविज्ञान की मान्यता है कि व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं-एक अन्तर्मुखी और दूसरा बहिर्मुखी। गृहदाह के कथानक की बुनावट मुख्यत: तीन पात्रों को लेकर की गई है। महिम, सुरेश और अचला। महिम अन्तर्मुखी है, और सुरेश बहिर्मुखी है। अचला सामाजिक विसंगतियाँ, विषमताओं और विडम्बनाओं की शिकार एक अबला नारी है, जो महिम से प्यार करती है। बाद में वह महिम से शादी भी करती है। वह अपने अन्तर्मुखी पति के स्वभाव से भली भाँति परिचित है। मगर महिम का अभिन्न मित्र सुरेश महिम को अचला से भी ज्याद जानता-पहचानता है। सुरेश यह जानता है कि महिम अभिमानी भी है और स्वाभिमानी भी।

सुरेश और महिम दोनों वैदिक धर्मावलम्बी हैं जबकि अचला ब्राह्म है। सुरेश ब्रह्म समाजियों से घृणा करता है। उसे महिम का अचला के साथ मेल-जोल कतई पसन्द नहीं है। लेकिन जब सुरेश एक बार महिम के साथ अचला के घर जाकर अचला से मिलता है, तो वह अचला के साथ घर बसाने का सपना देखने लगता है। लेकिन विफल होने के बावजूद सुरेश अचला को पाने की अपनी इच्छा को दबा नहीं सकता है। आखिर वह छल और कौशल से अचला को पा तो लेता है, लेकिन यह जानते हुए भी कि अचला उससे प्यार नहीं करती है, वह अचला को एक विचित्र परिस्थिति में डाल देता है।

सामाजिक विसंगतियों, विषमताओं और विडम्बनाओं का शरतचन्द्र ने जितना मार्मिक वर्णण इस उपन्यास में किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

महिम अचला की बात जानने की कोशिश तक नहीं करता है।

निर्दोष, निरीह नारी की विवशता और पुरुष के अभिमान, स्वाभिमान और अहंकार का ऐसा अनूठा चित्रण गृहदाह कम छोड़ और किसी उपन्यास में नहीं मिलेगा।

लेखक के विषय में

शरतचन्द्र

जन्म : 15 सितम्बर, 1876 को हुगली जिले के देवानन्दपुर (पश्चिम बंगाल) में हुआ ।

प्रमुख कृतियाँ : पंडित मोशाय, बैकुंठेर बिल मेज दीदी, दर्पचूर्ण श्रीकान्त अरक्षणीया, निष्कृति मामला? फल गृहदाह शेष प्रश्न देवदास बाम्हन की लड़की विप्रदास देना पावना पथेर दाबी और चरित्रहीन।

'चरित्रहीन' पर 1974 में फिल्म बनी थी । 'देवदास' पर फिल्म का निर्माण तीन बार हो चुका है। इसके अतिरिक्त 'परिणीता' 1953 और 2005 में, 'बड़ी दीदी' (1969) तथा 'मँझली बहन' आदि पर भी चलचित्रों के निर्माण हुए हैं । 'श्रीकान्त' पर टी.वी. सीरियल भी ।

निधन : 16 जनवरी, 1938

अनुवादक : विमल मिश्र

जन्म : 9 जनवरी, 1932

शिक्षा : एमए. हिन्दी (राँची विश्वविद्यालय)

अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ व कविता प्रकाशित ।

1950 से 1956 तक देवघर के एक मिडिल स्कूल में शिक्षक । 1956 से 1965 तक देवघर कॉलेज, देवघर में असिस्टेंट लाइब्रेरियन । 1965 से 1997 तक कोलकाता के एक विख्यात द्वापर सेकंडरी स्कूल में शिक्षक । कोलकाता प्रवास काल में बांग्ला की तीस श्रेष्ठ कृतियों का अनुवाद । सम्मान : बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद के लिए 1981 में निखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन के 'देश' तथा 1986 में राजभाषा विभाग, बिहार सरकार के पुरस्कार से सम्मानित ।

सम्प्रति : राजकमल प्रकाशन के लिए समूर्ण शरत साहित्य का शुद्धतम अनुवाद करने में तल्लीन।

आवरण-चित्र : सोरित

इलाहाबाद में जन्म और शिक्षा । जनसत्ता (कलकत्ता) से पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट की शुरुआत । दिली में आब्जर्वर पायोनियर सहारा टाइम्स टाइम्स ऑफ इडिया में कार्टूनिस्ट, इलस्ट्रेटर के रूप में कार्य किया । वर्तमान में आउटलुक में बतौर इलस्ट्रेटर ।

प्रकाशित कृतियाँ : 'द गेम' (ग्राफिक्स नॉवेल), महाश्वेता देवी के '19वीं' धारा का अपराधी' (उपन्यास) का बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद । राजकमल प्रकाशन से बच्चों की किताबों का एक सेट शीघ्र प्रकाश्य।

भूमिका

बांग्ला के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार शरतचन्द्र के उपन्यास 'गृहदाह' का यह नया हिन्दी अनुवाद राजकमल प्रकाशन समूह के प्रबन्ध निदेशक श्री अशोक महेश्वरी की इच्छा का परिणाम है । क्रिया इच्छा का आनुषंगिक परिणाम है । सो, अशोक जी की इच्छा शरत-साहित्य के नए हिन्दी अनुवाद के माध्यम से साकार हो रही है । पता नहीं कैसे अशोक जी को यह मालूम हुआ कि शरत-साहित्य के पहले से उपलब्ध हिन्दी अनुवादों में खामियाँ हैं । यह जानकारी प्राप्त होते ही उन्होंने मूल शरत-साहित्य के साथ पहले से उपलब्ध हिन्दी अनुवादों का पंक्ति-दर-पंक्ति मिलान करवाकर उसकी पड़ताल कराने और जरूरत पड़ने पर नए सिरे से अनुवाद कराने की ठानी । उन्होंने यह कार्य करने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी । यह जानते हुए भी कि यह कार्य कितना कठिन है और मेरी क्या सीमा है, मैंने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए यह कठिन कार्य करने की जिम्मेदारी स्वीकार की । मैं उनका बड़ा आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे इस योग्य समझा।

अब तक मैं 'चरित्रहीन', 'पाथेर दाबि', 'श्रीकांत' और 'देवदास' का अनुवाद कर चुका हूँ और उपर्युक्त चारों अनूदित पुस्तकें प्रकाशित भी हो चुकी हैं । उसी कम में 'गृहदाह' का यह नया हिन्दी अनुवाद हिन्दी पास्को के सामने प्रस्तुत है । इस अनुवाद के क्रम में मैंने पाया कि अशोक जी की जानकारी बिलकुल सही है और उनका यह अनूठा प्रयास सराहनीय है । वे अगर यह प्रयास नहीं करते तो हिन्दी-जगत् को यह कभी मालूम भी नहीं पड़ता कि शरत-साहित्य का हिन्दी में सही अनुवाद नहीं हुआ है । हालाँकि शरत-साहित्य के इन्हीं गलत अनुवादों को, जो पहले से उपलब्ध हैं, सही और शुद्ध अनुवाद समझकर हिन्दी-जगत् गद्गद था और हिन्दी पाठक इस मुगालते में थे कि उन्होंने शरत-साहित्य को पढ़ा है । मैं नीचे उदाहरणस्वरूप 'गृहदाह' के पहले से उपलब्ध हिन्दी अनुवाद में हुई कुछ गलतियों को पाठकों के सामने रखूँगा, ताकि वे समझ सकें कि मैं हवा में बात नहीं कर रहा हूँ । गलतियाँ तो पूरी पुस्तक में भरी पड़ी हैं । उन्हें जानने के लिए यह नया अनुवाद पढ़ना जरूरी है ।

अनुवाद साहित्य की एक प्रमुख विधा है । अनूदित साहित्य के बिना किसी भी भाषा का साहित्य-भंडार अधूरा माना जाएगा । अनुवाद के बिना हमारी जिन्दगी का रोजमर्रा का काम नहीं चल सकता । अन्यान्य भाषा-भाषियों के साथ हम अनुवाद के द्वारा ही अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं । मातृभाषा हमें घुट्टी में मिलती है । बाद में शुद्ध-शुद्ध बोलने और लिखने के लिए हम मातृभाषा के व्याकरण को सीखते हैं । हम जो भी अन्य भाषा सीखते हैं, उसे हम मातृभाषा के माध्यम से अनुवाद के द्वारा सीखते हैं । मसलन, अंग्रेजी के डी ओ जी-डॉग माने कुत्ता और जी ओ डी-गॉड माने ईश्वर हम मातृभाषा के माध्यम से अनुवाद के द्वारा ही सीखते हैं । इतना ही नहीं, जब हम यह सीखते हैं कि 'मैन गोज' का मतलब 'आदमी जाता है' होता है और इन्हीं दोनों शब्दों को एक साथ मिला देने पर बने शब्द 'मैंगोज' का अर्थ भी हम मातृभाषा के माध्यम से अनुवाद के द्वारा ही सीखते हैं । अंग्रेजी पूरी तरह सीख लेने के बाद हम जब किसी और भाषा को सीखते हैं, तो उस भाषा को भी हम अंग्रेजी के माध्यम से नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा के माध्यम से अनुवाद के द्वारा सीखते हैं । हमारा मस्तिष्क यह अनुवाद इतनी त्वरित गति से करता है कि हम यह जान ही नहीं पाते हैं कि अनुवाद के द्वारा ही हम धड़ल्ले से बोलते और लिखते हैं ।

अनुवाद के लिए उस भाषा के, जिस भाषा की कृति का अनुवाद किया जा रहा हो, शिल्प-सौन्दर्य और व्याकरण की जानकारी होना बहुत जरूरी है । इन दोनों में से किसी एक की भी जानकारी के बिना अनुवाद नहीं किया जा सक्ता है । भाषा के शिल्प-सौन्दर्य को कुछ लोग भाषा का संस्कार कहते हैं ।

मैं नीचे बड़े दावे और सबूतों के साथ यह कह रहा हूँ कि 'गृहदाह' के पहले से उपलब्ध हिन्दी अनुवाद के अनुवादक को उपर्युक्त दोनों बातों की पूरी जानकारी नहीं थी अन्यथा वे ऐसी गलतियाँ नहीं करते, जैसी की हैं ।

अब जरा इन दोनों वाक्यों को देखिए

अनुवाद पृ. 36 (1) और देर करने से न चलेगा केदार बाबू

अनुवाद पृ. 51 (2) महिम के विवाह में आए बिना कैसे चले ।

मैं यहाँ शब्दार्थ-सम्बन्धी गलतियों का उल्लेख जान-बूझकर नहीं कर रहा हूँ । उन गलतियों को गिनाने लगूँगा, तो भूमिका का आकार बहुत बढ़ जाएगा । यहाँ मैं सिर्फ शिल्प-सौन्दर्य और व्याकरण सम्बन्धी गलतियों की चर्चा करूँगा ।

(1) मूल बांग्ला के पृ. 481 शरत रचनावली (2) प्रकाशक-तूली कलम, 1 कॉलेज रोड़ कलकत्ता-9, सं. 15 में एक वाक्य है-ये सब छेड़े फेलो, अनुवादक महोदय ने इसका अनुवाद पृ. 58 पर किया है-ये कपड़े उतारो । यहाँ यह बताने की जरूरत नहीं कि कपड़े उतारने और कपड़े बदलने में क्या फर्क है । बांग्ला के 'कापड़ छाड़ो' का हिन्दी अर्थ है कपड़ा बदलो, न कि कपड़ा उतारो । (2) मूल पृ. 495 में एक वाक्य है-आमार मन हो तो तुम्हार अजना नई ।

इसका अनुवाद है-मेरा मन भी तुमसे छिपा नहीं है ।

सही अनुवाद होगा-मेरा मन कैसा हैं, यह तो तुमसे छिपा नहीं है ।

(3) मूल 503 पर एक वाक्य है-परसों थेके तोमार पथ चेये-चेये तोमार मृणालेर चोख दुईटि क्षये गेलो जे । अनूदित 58 पर इसका अनुवाद यों किया गया है-परसों से तुम्हारी राह देखते-देखते तुम्हारी मृणाल की आँखें घिस गईं ।

यह विशुद्ध लिप्यन्तर है ।

(4) पृ. 88 पर के इस वाक्य को पढ़िए और देखिए कि यह हिन्दी का कैसा वाक्य है-

इधर उस झुटपुटे कमरे के अन्दर एकटक देखते-देखते उसकी अपनी आखें दुख से दुखा गई ।

लगे हाथ पृ. 90 के इस वाक्य को देखिए-

और उसके सिर के बाल तक खड़े हो गए । होना चाहिए-उसके सर के बाल तक सिहर उठे ।

(5) मूल 575 पृ. पर है-एवम् कालो पाथरेर गा दिया जेमन झरनार धारा नामिया आसे ठीक तेमनि दुई चोखेर कोले बाहिया अश्रु बहितेछे ।

अनु. पृ. 179 पर इसका अनुवाद यों है-और काले पत्थर में से जैसे झरना फूट निकलता है ठीक उसी तरह उसकी आँखों से आँसू बह रहा था । जबकि होना चाहिए-और जैसे काली चट्टान पर से होकर झरने का पानी उतर आता है, ठीक वैसे ही दोनों आँखों के नीचे पड़े काले निशान से होकर आँसू बह रहे हैं ।

(6) मूल 584 पर एक वाक्य है-कार अपराध कतो बड़ो से विचार जार खुशी से करुक, आमि क्षमा करबो केवल आभार पाने चेये, एई ना माँ तोमार उपदेश?

अनु. पृ. 189 पर इसका अनुवाद इस प्रकार है-किसका गुनाह कितना बड़ा है, इसका फैसला जो चाहे करे, मैं सिर्फ अपनी ओर देखते हुए क्षमा करूँगा ।

ऊपर चिह्रित पंक्ति में बांग्ला भाषा का जो शिल्प-सौन्दर्य है उसे अनुवादक महोदय ने नहीं समझा । बस सिर्फ लिप्यन्तर करके उन्होंने रख दिया, जिसका अर्थ हिन्दी पाठक कभी समझ नहीं पाएँगे । यहीं अपनी ओर देखने का अर्थ है- अपना फायदा देखना । अत: इसका अनुवाद इस प्रकार होगा-मैं माफ करूँगा सिर्फ अपना फायदा देखकर ।

अब मैं उन गलतियों का उल्लेख करता हूँ जिनका सम्बन्ध व्याकरण से है । मूल पृ. 597 पर है-तुमि आमार चिठि पेयेछी ?

अनुवाद पृ. 204 पर है-तुम्हे मेरी चिट्ठी मिली?

होना चाहिए था-तुम्हें मेरी चिट्ठी मिली है?

तुम्हें मेरी चिट्ठी मिली और तुम्हें मेरी चिट्ठी मिली है-दोनों में बड़ा भारी अन्तर है । हिन्दी का कोई भी जानकार इसे समझ सकता है ।

(7) मूल पृ. 601 पर बांग्ला के वाक्य हैं-

अचला जे तोमाके कली भालो बासितो से आमि ओ बुझिनि, तुमिओ बोझोनि, ओ निजे ओ बुझते पारिनि ।

अनुवाद पृ. 209 पर इसका अनुवाद इस प्रकार है-

अचला तुम्हें कितना प्यार करती है, इसे मैंने भी नहीं समझा, तुमने भी नहीं-खुद उसने भी नहीं समझा ।

यहाँ बुझिनि, बोझोनि, पारिनि-ये तीनों पूर्ण भूतकाल के वाक्य हैं । हालाँकि अनुवादक महोदय ने इन्हें सामान्य भूतकाल के वाक्य के रूप में लिख दिया । अगर वे बांग्ला का व्याकरण जानते, तो वे ऐसी गलतियाँ नहीं करते ।

मैं इन वाक्यों का सही अनुवाद लिख देता हूँ-अचला तुम्हें कितना प्यार करती थी, यह न ही मैंने समझा था, न ही तुमने समझा था और न ही वह खुद समझ सकी थी ।

अनुवादक एक भाषा की कृति को अनूदित करके दूसरी भाषा के पाठकों तक पहुँचाता है । इसलिए अनुवादक की जिम्मेदारी बनती है कि वह मूल भाषा के शिल्प-सौन्दर्य और व्याकरण को समझे । ऐसा न होने पर अनूदित कृति पाठकों के हृदय में वह भाव सम्प्रेषित नहीं कर पाएगी जो मूल कृति में व्यंजित और अभिव्यक्त हुआ । ऐसी स्थिति में अनूदित कृति-विशेष के प्रति पाठकों की क्या धारणा होगी, यह समझने की बात है ।

शरत-साहित्य के पहले से उपलब्ध अनुवादों को पढ़ने के बाद अब मैं यह कह सकता हूँ कि एक समय-सीमा के अन्दर बांग्ला की जिन कृतियों का अनुवाद हिन्दी में हुआ है, उनमें से अधिकांश का कमोबेश यही हश्र हुआ होगा जो शरत-साहित्य का हुआ है

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