प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य आज स्तरीयता की जिन ऊँचाइयों को छू रहा है, उसकी नींव में अनेक मनीषियों और साहित्यसेवियों का योगदान रहा है।1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लगभग अकेले ही हिन्दी साहित्य के माध्यम से नये जन-जागरण का जो शुभारम्भ किया था, राजनीतिक ही नहीं अनेक सामाजिक बुराइयों के विरोध में लेखन का असाधारण सदुपयोग किया था, उस परम्परा को आगे बढाने में जिन महान साहित्यकारों का असाधारण योगदान रहा है, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जी उनमें अग्रगण्य हैं।
वह जितने बड़े कवि और विद्वान थे, उतना ही महान उनका सरल और सादगी भरा व्यक्तित्व भी था। राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत और फारसी आदि के निष्णात विद्वान हरिऔध जी का काव्यशास्त्र पर असाधारण अधिकार था । आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में जन्मे हरिऔध जी ने औपचारिक स्कूली शिक्षा भले ही मिडिल स्कूल तक प्राप्त की हो, पर हिन्दी साहित्य रचना में 'प्रिय प्रवास’ जैसी रचनाओं से उन्होंने जो ऊँचाइयाँ छुई, उसके चलते उन्हें 'कवि सम्राट’ और 'साहित्य वाचस्पति’ जैसी उपाधियों से अलंकृत किया गया । 'प्रिय प्रवास’ खड़ी बोली हिन्दी का पहला महाकाव्य है और अपने लालित्य-प्रवाह के कारण साहित्यप्रेमियों के बीच विशेष रूप से चर्चित रहा है। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वह दो-दो बार अध्यक्ष चुने गये । महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के आग्रह पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में डेढ़ दशक से भी अधिक समय तक उन्होंने प्राध्यापन कार्य किया था।
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के साथ उन्होंने जो साहित्य रचना शुरू की, वह अगले लगभग पाँच दशकों तक निरन्तर नयी ऊँचाइयाँ छूती रही । इस अवधि में उन्होने कविता, उपन्यास, आलोचना, निबन्ध और अन्य अनेक विधाओं में लगभग 42 पुस्तकों की रचना की। ऐसे महान कवि और लेखक की रचनाधर्मिता को समझना और उससे आज के सवालो के संदर्भ में दिशा-निर्देश लेना समय की सर्वप्रमुख आवश्यकता है। सच तो यह है कि ऐसे महान लेखकों और उनकी रचनाओं को समझे बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य की ऊँचाइयों को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता।
इसी अनिवार्यता के संदर्भ में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान महत्वपूर्ण रचनाकारों के व्यक्तित्व कृतित्व को समर्पित ग्रन्थों का प्रकाशन कर रहा है और यह पुस्तक भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। इसका प्रकाशन संस्थान की स्मृति संरक्षण योजना के अन्तर्गत किया जा रहा है। आशा है कि न केवल हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक उपादेय सिद्ध होगी बल्कि हिन्दी साहित्य में रुचि रखने वाले सभी पाठकों के बीच भी इसका समादर होगा।
निवेदन
आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ से यह सौभाग्य रहा है कि जिन विद्वानो और साहित्यसेवियों ने इराके विकास में अप्रतिम भूमिका निभाई, उन्होंने कला के साथ-साथ सामाजिक न्याय के लिए भी इसके सदुपयोग पर अनवरत जोर दिया। 1857 के पहले स्वतत्रता सग्राम के बाद जब अंग्रेजों ने विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे आन्दोलनों को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी थी, उस समय भी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सरीखे साहित्य मनीषी अपनी रचनाओं के माध्यम से जन-जागरण की अलख जगा रहे थे। उनका योगदान सिर्फ इतना ही नहीं था कि उन्होंने बुरी तरह दबे-कुचले उत्तर भारतीय समाज में नये जीवन का शुभारम्भ किया, आधुनिक हिन्दी साहित्य को एक प्रतिबद्ध दिशा दी बल्कि उन्होंने इस महान कार्य को आगे बढाने वाले मनीषियों की एक भरी-पूरी परम्परा भी छोड़ी।
स्व.अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध इसी महान परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। प्राध्यापन के साथ-साथ निरन्तर साहित्य रचना में निमग्न रहते हुए हरिऔध जी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अतुलनीय भूमिका निभाई । उनके इस समग्र साहित्यिक कृतित्व को इस पुस्तक में संकलित कर विद्वान लेखक डॉ० कन्हैया सिंह ने उन सभी पाठकों और शोधार्थियों के लिए एक आसाधारण कार्य किया है जो एक ही स्थान पर ऐसे रचनाकारों के असाधारण कृतित्व और व्यक्तित्व को नजदीक से देखना और समझना चाहते हैं। जिस तरह से विद्वान लेखक डॉ० कन्हैया सिंह ने हरिऔध जी के बचपन से लेकर अंतिम समय तक, उनकी विभिन्न रचनाओं की भाषा-शैली से लेकर उनके कथ्य तक और सम्पूर्णता में हिन्दी साहित्य पर उनके लेखन के प्रभाव को शब्द दिये हैं, उसकी जितनी भी सराहना की जाय कम होगी । यह देख सुखद आश्चर्य होता है कि एक ओर जहाँ वह विभिन्न भाषाओ के ज्ञाता थे, भारतीय परम्परा से पूरी तरह परिचित थे, आज के समाज के लिए उसकी उपादेयता में रचे-बसे थे, वहीं काव्य शास्त्र की गहराइयों और विशेष रूप से छन्द आदि के माध्यम से विभिन्न रसों की अभिव्यक्ति में भी निष्णात थे। 'प्रिय प्रवास’ जैसी रचनाओ में श्रृंगार रस हो या भक्ति रस, उपन्यासों 'निबन्धों का गद्य हो या वाक्पटुता आदि, सभी जगह उनकी विद्वत्ता पग-पग पर आह्लादित करती है।
हरिऔध जी जैसे रचनाकारों ने आधुनिक हिन्दी साहित्य को जो मजबूत आधार दिया, उसी का सुपरिणाम आज इसकी ऊँचाइयों के रूप में हमारे सामने है। साहित्य सेवा में उनकी सक्रियता के तत्काल बाद उत्तर भारत में हिन्दी सेवियों की एक भरी-पूरी परम्परा चल निकली और कहना न होगा कि उरस्ने विभिन्न शैलियों में असाधारण साहित्य-रचना के साथ अपनी अतुलनीय पहचान बनायी । इन मनीषियों की सक्रियता की पृष्ठभूमि में कहीं न कही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हरिऔध जी जैसे साहित्यसेवियों द्वारा दिखाये गये मार्ग का योगदान भी था । ऐसे में निश्चय ही हरिऔध जी जैसे महान व्यक्तित्व और उनके कृतित्व को समर्पित यह रचना सुधी पाठकों और शोधार्थियों के बीच अपनी पहचान बनायेगी, ऐसी आशा है।
प्राक्कथन
साहित्य, समाज और संस्कृति का बडा घनिष्ट संबंध है। युगद्रष्टा रचनाकार जिस साहित्य का सृजन करता है, वह समाज का चित्रण और निरूपण ही नहीं करता अपितु उसे उपयुक्त दिशाबोध भी प्रदान करता है तथा अपने समाज का सांस्कृतिक जीवन-दर्शन भी प्रस्तुत करता है। संस्कृति किसी राष्ट्र की आत्मा होती है। वह उस देश के साहित्य में ही अपने भास्वर रूप में दिखाई पडती है। अपनी संस्कृति का सच्चा रूप सहज ही कबीर, सूर, जायसी, तुलसी से लेकर हरिऔध, मैथिलीशरण, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी आदि की कविताओं में, भारतेन्दु, प्रेमचन्द, अज्ञेय, नागर, हजारी प्रसाद, कुबेरनाथ, मोहन राकेश के नाटको, उपन्यासों, निकन्धों में देखा जा सकता है। अत: अपने देश, समाज और संस्कृति को समझने के लिए अपने कालजयी रचनाकारों के अवदान का सम्यक् बोध आवश्यक होना है।
विश्व तीव्र गति से आगे बढ रहा है। साहित्य की दिशा भी समाज के साथ बढ रही है। आधुनिक कविता जो कभी भारतेन्दु के गीतो और हरिऔध, मैथिलीशरण की राष्ट्रीय कविताओं में अपनी पहचान बनाती थी, वह 'आधुनिकता’ और 'उत्तर आधुनिकता’ के तकनीकी मुहावरों में देखी जा रही है। समाजवाद-मार्क्सवाद से बढ़कर वैश्वीकरण, उदारवाद और मुक्त व्यापार के प्रसार के साथ हम अपनी जड़ से कट कर आर्थिक युग के एक यत्र रवे बन रहे हैं। ऐसे समय में साहित्य स्वयं कितना महत्त्वपूर्ण रह गया है, यह विचार का विषय है। 'हरिऔध’ जो बीसवी सदी के महान पुरोधा थे, उन पर संक्षिप्त आलोचना की प्रासंगिकता का सवाल उठ सकता है। मेरी दृष्टि में यह सोच कुठित मन की जड़ता की द्योतक होगी। हर नवीन अपने प्राचीन के क्रोड़ से उपजता है। हरिऔध ने तुलसी-सूर से आकार ग्रहण किया। प्रसाद-पंत ने हरिऔध से और आगे की पीढ़ी ने प्रसाद-पत से प्रेरणा प्राप्त की। यह क्रम चलता रहता है। उत्तर प्रदेश हिन्दी सस्थान, लखनऊ का प्रस्ताव मिला कि मैं अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध’ पर एक संक्षिप्त समीक्षा लिख दूँ तो मुझे प्रसन्नता हुई। मैं भी 'हरिऔध’ की तरह आजमगढ़ी हूँ। साहित्य में आजमगढ़ अपना स्थान रखता है। शायर श्री इकबाल सुहेल ने लिखा है:
इस खित्तए आजमगढ़ पै मगर, फैज़ाने तजल्ली है मकसर,
जो जर्रा यहाँ से उठता है, वह नैयरे आजम होता है।
इस पुस्तक में गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश’ की समालोचना पुस्तक महाकवि हरिऔध’ और सुधी विद्वान् डॉ० किशारीलाल गुप्त के हरिऔध शती स्मारक ग्रंथ’ तथा संग्रह-ग्रंथ 'हरिऔध पद्यामृत’, डॉ० मुकुन्द देव शर्मा के 'हरिऔध और उनका साहित्य’ तथा स्वयं महाकवि की रचनाओं का उपयोग किया गया है। इन सभी का कृतज्ञ हूँ। पुस्तक की पाण्डुलिपि के अवलोकन और सुझाव-संशोधन के लिए मैं मान्यवर डॉ० प्रभाकर शुक्ल का आभारी हूँ। संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष प्रसिद्ध गीतगार मा० सोम ठाकुर, निदेशक श्री प्रभात कुमार मिश्र तथा अन्य अधिकारियों का भी आभारी हूँ जिन्होंने इस पुण्यकार्य हेतु मुझे प्रेरित किया।
अनुक्रम |
||
1 |
व्यक्ति और व्यक्तित्व |
1 |
2 |
ब्रजभाषा काव्य और रस कलस |
13 |
3 |
हरिऔध के प्रबधकाव्य |
34 |
4 |
मुक्तक रचनाएँ |
68 |
5 |
गद्यकार हरिऔध और भाषा के प्रयोग |
87 |
परिशिष्ट |
||
1 |
हरिऔध संबंधी तिथियाँ |
107 |
2 |
हरिऔध-साहित्य |
108 |
प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य आज स्तरीयता की जिन ऊँचाइयों को छू रहा है, उसकी नींव में अनेक मनीषियों और साहित्यसेवियों का योगदान रहा है।1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लगभग अकेले ही हिन्दी साहित्य के माध्यम से नये जन-जागरण का जो शुभारम्भ किया था, राजनीतिक ही नहीं अनेक सामाजिक बुराइयों के विरोध में लेखन का असाधारण सदुपयोग किया था, उस परम्परा को आगे बढाने में जिन महान साहित्यकारों का असाधारण योगदान रहा है, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जी उनमें अग्रगण्य हैं।
वह जितने बड़े कवि और विद्वान थे, उतना ही महान उनका सरल और सादगी भरा व्यक्तित्व भी था। राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत और फारसी आदि के निष्णात विद्वान हरिऔध जी का काव्यशास्त्र पर असाधारण अधिकार था । आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में जन्मे हरिऔध जी ने औपचारिक स्कूली शिक्षा भले ही मिडिल स्कूल तक प्राप्त की हो, पर हिन्दी साहित्य रचना में 'प्रिय प्रवास’ जैसी रचनाओं से उन्होंने जो ऊँचाइयाँ छुई, उसके चलते उन्हें 'कवि सम्राट’ और 'साहित्य वाचस्पति’ जैसी उपाधियों से अलंकृत किया गया । 'प्रिय प्रवास’ खड़ी बोली हिन्दी का पहला महाकाव्य है और अपने लालित्य-प्रवाह के कारण साहित्यप्रेमियों के बीच विशेष रूप से चर्चित रहा है। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वह दो-दो बार अध्यक्ष चुने गये । महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के आग्रह पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में डेढ़ दशक से भी अधिक समय तक उन्होंने प्राध्यापन कार्य किया था।
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के साथ उन्होंने जो साहित्य रचना शुरू की, वह अगले लगभग पाँच दशकों तक निरन्तर नयी ऊँचाइयाँ छूती रही । इस अवधि में उन्होने कविता, उपन्यास, आलोचना, निबन्ध और अन्य अनेक विधाओं में लगभग 42 पुस्तकों की रचना की। ऐसे महान कवि और लेखक की रचनाधर्मिता को समझना और उससे आज के सवालो के संदर्भ में दिशा-निर्देश लेना समय की सर्वप्रमुख आवश्यकता है। सच तो यह है कि ऐसे महान लेखकों और उनकी रचनाओं को समझे बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य की ऊँचाइयों को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता।
इसी अनिवार्यता के संदर्भ में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान महत्वपूर्ण रचनाकारों के व्यक्तित्व कृतित्व को समर्पित ग्रन्थों का प्रकाशन कर रहा है और यह पुस्तक भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। इसका प्रकाशन संस्थान की स्मृति संरक्षण योजना के अन्तर्गत किया जा रहा है। आशा है कि न केवल हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक उपादेय सिद्ध होगी बल्कि हिन्दी साहित्य में रुचि रखने वाले सभी पाठकों के बीच भी इसका समादर होगा।
निवेदन
आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ से यह सौभाग्य रहा है कि जिन विद्वानो और साहित्यसेवियों ने इराके विकास में अप्रतिम भूमिका निभाई, उन्होंने कला के साथ-साथ सामाजिक न्याय के लिए भी इसके सदुपयोग पर अनवरत जोर दिया। 1857 के पहले स्वतत्रता सग्राम के बाद जब अंग्रेजों ने विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे आन्दोलनों को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी थी, उस समय भी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सरीखे साहित्य मनीषी अपनी रचनाओं के माध्यम से जन-जागरण की अलख जगा रहे थे। उनका योगदान सिर्फ इतना ही नहीं था कि उन्होंने बुरी तरह दबे-कुचले उत्तर भारतीय समाज में नये जीवन का शुभारम्भ किया, आधुनिक हिन्दी साहित्य को एक प्रतिबद्ध दिशा दी बल्कि उन्होंने इस महान कार्य को आगे बढाने वाले मनीषियों की एक भरी-पूरी परम्परा भी छोड़ी।
स्व.अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध इसी महान परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। प्राध्यापन के साथ-साथ निरन्तर साहित्य रचना में निमग्न रहते हुए हरिऔध जी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अतुलनीय भूमिका निभाई । उनके इस समग्र साहित्यिक कृतित्व को इस पुस्तक में संकलित कर विद्वान लेखक डॉ० कन्हैया सिंह ने उन सभी पाठकों और शोधार्थियों के लिए एक आसाधारण कार्य किया है जो एक ही स्थान पर ऐसे रचनाकारों के असाधारण कृतित्व और व्यक्तित्व को नजदीक से देखना और समझना चाहते हैं। जिस तरह से विद्वान लेखक डॉ० कन्हैया सिंह ने हरिऔध जी के बचपन से लेकर अंतिम समय तक, उनकी विभिन्न रचनाओं की भाषा-शैली से लेकर उनके कथ्य तक और सम्पूर्णता में हिन्दी साहित्य पर उनके लेखन के प्रभाव को शब्द दिये हैं, उसकी जितनी भी सराहना की जाय कम होगी । यह देख सुखद आश्चर्य होता है कि एक ओर जहाँ वह विभिन्न भाषाओ के ज्ञाता थे, भारतीय परम्परा से पूरी तरह परिचित थे, आज के समाज के लिए उसकी उपादेयता में रचे-बसे थे, वहीं काव्य शास्त्र की गहराइयों और विशेष रूप से छन्द आदि के माध्यम से विभिन्न रसों की अभिव्यक्ति में भी निष्णात थे। 'प्रिय प्रवास’ जैसी रचनाओ में श्रृंगार रस हो या भक्ति रस, उपन्यासों 'निबन्धों का गद्य हो या वाक्पटुता आदि, सभी जगह उनकी विद्वत्ता पग-पग पर आह्लादित करती है।
हरिऔध जी जैसे रचनाकारों ने आधुनिक हिन्दी साहित्य को जो मजबूत आधार दिया, उसी का सुपरिणाम आज इसकी ऊँचाइयों के रूप में हमारे सामने है। साहित्य सेवा में उनकी सक्रियता के तत्काल बाद उत्तर भारत में हिन्दी सेवियों की एक भरी-पूरी परम्परा चल निकली और कहना न होगा कि उरस्ने विभिन्न शैलियों में असाधारण साहित्य-रचना के साथ अपनी अतुलनीय पहचान बनायी । इन मनीषियों की सक्रियता की पृष्ठभूमि में कहीं न कही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हरिऔध जी जैसे साहित्यसेवियों द्वारा दिखाये गये मार्ग का योगदान भी था । ऐसे में निश्चय ही हरिऔध जी जैसे महान व्यक्तित्व और उनके कृतित्व को समर्पित यह रचना सुधी पाठकों और शोधार्थियों के बीच अपनी पहचान बनायेगी, ऐसी आशा है।
प्राक्कथन
साहित्य, समाज और संस्कृति का बडा घनिष्ट संबंध है। युगद्रष्टा रचनाकार जिस साहित्य का सृजन करता है, वह समाज का चित्रण और निरूपण ही नहीं करता अपितु उसे उपयुक्त दिशाबोध भी प्रदान करता है तथा अपने समाज का सांस्कृतिक जीवन-दर्शन भी प्रस्तुत करता है। संस्कृति किसी राष्ट्र की आत्मा होती है। वह उस देश के साहित्य में ही अपने भास्वर रूप में दिखाई पडती है। अपनी संस्कृति का सच्चा रूप सहज ही कबीर, सूर, जायसी, तुलसी से लेकर हरिऔध, मैथिलीशरण, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी आदि की कविताओं में, भारतेन्दु, प्रेमचन्द, अज्ञेय, नागर, हजारी प्रसाद, कुबेरनाथ, मोहन राकेश के नाटको, उपन्यासों, निकन्धों में देखा जा सकता है। अत: अपने देश, समाज और संस्कृति को समझने के लिए अपने कालजयी रचनाकारों के अवदान का सम्यक् बोध आवश्यक होना है।
विश्व तीव्र गति से आगे बढ रहा है। साहित्य की दिशा भी समाज के साथ बढ रही है। आधुनिक कविता जो कभी भारतेन्दु के गीतो और हरिऔध, मैथिलीशरण की राष्ट्रीय कविताओं में अपनी पहचान बनाती थी, वह 'आधुनिकता’ और 'उत्तर आधुनिकता’ के तकनीकी मुहावरों में देखी जा रही है। समाजवाद-मार्क्सवाद से बढ़कर वैश्वीकरण, उदारवाद और मुक्त व्यापार के प्रसार के साथ हम अपनी जड़ से कट कर आर्थिक युग के एक यत्र रवे बन रहे हैं। ऐसे समय में साहित्य स्वयं कितना महत्त्वपूर्ण रह गया है, यह विचार का विषय है। 'हरिऔध’ जो बीसवी सदी के महान पुरोधा थे, उन पर संक्षिप्त आलोचना की प्रासंगिकता का सवाल उठ सकता है। मेरी दृष्टि में यह सोच कुठित मन की जड़ता की द्योतक होगी। हर नवीन अपने प्राचीन के क्रोड़ से उपजता है। हरिऔध ने तुलसी-सूर से आकार ग्रहण किया। प्रसाद-पंत ने हरिऔध से और आगे की पीढ़ी ने प्रसाद-पत से प्रेरणा प्राप्त की। यह क्रम चलता रहता है। उत्तर प्रदेश हिन्दी सस्थान, लखनऊ का प्रस्ताव मिला कि मैं अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध’ पर एक संक्षिप्त समीक्षा लिख दूँ तो मुझे प्रसन्नता हुई। मैं भी 'हरिऔध’ की तरह आजमगढ़ी हूँ। साहित्य में आजमगढ़ अपना स्थान रखता है। शायर श्री इकबाल सुहेल ने लिखा है:
इस खित्तए आजमगढ़ पै मगर, फैज़ाने तजल्ली है मकसर,
जो जर्रा यहाँ से उठता है, वह नैयरे आजम होता है।
इस पुस्तक में गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश’ की समालोचना पुस्तक महाकवि हरिऔध’ और सुधी विद्वान् डॉ० किशारीलाल गुप्त के हरिऔध शती स्मारक ग्रंथ’ तथा संग्रह-ग्रंथ 'हरिऔध पद्यामृत’, डॉ० मुकुन्द देव शर्मा के 'हरिऔध और उनका साहित्य’ तथा स्वयं महाकवि की रचनाओं का उपयोग किया गया है। इन सभी का कृतज्ञ हूँ। पुस्तक की पाण्डुलिपि के अवलोकन और सुझाव-संशोधन के लिए मैं मान्यवर डॉ० प्रभाकर शुक्ल का आभारी हूँ। संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष प्रसिद्ध गीतगार मा० सोम ठाकुर, निदेशक श्री प्रभात कुमार मिश्र तथा अन्य अधिकारियों का भी आभारी हूँ जिन्होंने इस पुण्यकार्य हेतु मुझे प्रेरित किया।
अनुक्रम |
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1 |
व्यक्ति और व्यक्तित्व |
1 |
2 |
ब्रजभाषा काव्य और रस कलस |
13 |
3 |
हरिऔध के प्रबधकाव्य |
34 |
4 |
मुक्तक रचनाएँ |
68 |
5 |
गद्यकार हरिऔध और भाषा के प्रयोग |
87 |
परिशिष्ट |
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1 |
हरिऔध संबंधी तिथियाँ |
107 |
2 |
हरिऔध-साहित्य |
108 |