गौड़ीय वैष्णव चरितामृत एवं वृन्दावन में विराजमान समाधियाँ: Biographies of Gaudiya Vaishnava Saints

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Item Code: NZA521
Author: महानिधि स्वामी (Mahanidhi Swami)
Publisher: Sree Gaudiya Math, Vrindavan
Language: Hindi
Edition: 2011
Pages: 183
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 220 gm
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Book Description

पुस्तक-परिचय

अत्यधिक लोकप्रिय अंग्रेजी ग्रन्थ गौड़ीय वैष्णव समाधिज़इन वृन्दावन (सन्निविष्ट चित्र देखें) सार्वजनिक अनुरोध पर अब हिंदी में गौड़ीय वैष्णव चरितामृत के रूप में प्रस्तुत है ।

इस अनूठे ग्रन्थ गौड़ीय वैष्णव चरितामृत में वस्तुत: दो पुस्तकें समन्वित हैं । प्रथम पुस्तक श्रीचैतन्य महाप्रभु के प्रमुख नित्य पार्षदों तथा अन्य उल्लेखनीय गौड़ीय वैष्णव आचार्यों के विलक्षण जीवनवृत्तों एवं महत्त्वपूर्ण उपदेशों का वर्णन करती है । द्वितीय पुस्तक गौरांग महाप्रभु के इन नित्य परिषदों तथा इन समस्त गौड़ीय वैष्णव आचार्यो की समाधियों का वर्णन करती है ।

इस पुस्तक की विशिष्टताएँ प्रत्येक समाधि की अवस्थिति समाधियों की पूजा-पद्धति समाधिस्थ वैष्णवगण के प्रति प्रार्थनाएँ इन मुक्तजीवों की कृपा-प्राप्तिविभिन्न प्रकार की समाधियों का अभिज्ञान।

प्रस्तावना

जब भी भगवान श्रीकृष्ण दिव्य धाम से भौतिक जगत में अवतरित होते हैं, उनके पार्षद भी उनके संग आते है । वे धर्म के सिद्धान्तों की पुर्नस्थापना करने में श्रीकृष्ण की सहायता करते हैं तथा दिव्य रसों के प्रेममय आदान-प्रदान द्वारा भगवान को प्रमुदित करते हैं । पचास शताब्दी पूर्व, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के अंतरंग दास, सखा, माता-पिता तथा प्रियतमाएँ गोलोक वृन्दावन से अवतीर्ण होकर भारतभूमि के एक साधारण से अहीर-ग्राम, व्रज में प्रकट हुईं ।

जिस प्रकार, कोई राष्ट्र किसी दूसरे देश में दूतावास स्थापित करता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण अपना नित्य दिव्य धाम वृन्दावन अवरोहित कर लाए, और उसे भारत में नई दिल्ली से दक्षिण पूर्व की ओर लगभग 140 कि.मी. की दूरी पर स्थापित कर दिया । उदाहरणस्वरूप, यद्यपि नई दिल्ली में फ्रान्सिसी दूतावास है, तथापि वह भारतीय विधि-विधानों के अधीन नहीं है । समानतया, हमारी भौतिक दृष्टि के अनुसार, श्रीकृष्ण का नित्य दिव्य धाम भारत के एक भाग में प्रतीयमान होता है, परन्तु वस्तुत: वृन्दावन भौतिक जगत के समस्त विधि-विधानों के परे अप्राकृत रूप में स्थित है ।

भगवान श्रीकृष्ण इस जगत में बद्धजीवों को यह दर्शाने के निमित्त प्रकट होते हैं कि वे अप्राकृत जगत में अपने नित्य प्रेमी-पार्षदों के संग किस प्रकार आनंदप्रद लीलाएँ सम्पन्न करते हैं । श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाएँ इस जगत के दुखार्त बद्धजीवों के मन को मोहित कर लेती हैं । परिणामस्वरूप, वे अपने पाप-कृत्यों को त्याग कर परमेश्वर की सेवा में संलग्न हो जाते हैं ।

पाँच सौ वर्ष पूर्व, श्रीकृष्ण पुन: इस धरती पर अवतरित हुए । वे सुवर्णावतार श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में कलिकाल हेतु विश्वधर्म अर्थात् हरे कृष्ण महामंत्र-हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हटे हर्रे हरे राम हटे राम राम राम हरे हरे-के संकीर्तन का प्रचार करने हेतु प्रकट हुए ।

वे ग्वालबाल व गोपबालाएँ जिन्होनें वृब्दावन में श्रीकृष्ण के संग क्रीडाएँ की थी, श्रीचैतव्य महाप्रभु का संग करने हेतु श्रीनवद्वीपधाम में विद्यार्थी तथा ब्राह्मण बन गईं । उदाहरणार्थ, श्रीकृष्ण की सखियाँ ललिता एवं विशाखा श्रीचैतन्य के अत्यन्त अंतरंग पार्षद स्वरूपदामोदर गोस्वामी तथा रामानन्दराय बन गईं ।

श्रीरुप मंजरी एवं श्रीलवंग मंजरी श्रीरूप गोस्वामी तथा श्रीसनातन गोस्वामी बनीं । उन्होंने मिलजुल कर हरिनामामृत का आस्वादन किया तथा संकीर्तन आन्दोलन का प्रचार-प्रसार किया ।

प्रत्येक जीवात्मा को राधा-कृष्ण प्रेमाभक्ति प्रदान करने की आकांक्षा से, चैतन्य महाप्रभु ने वृन्दावन के षड्गोस्वामीगण को शक्ति प्रदान की, और उन्होंने भक्तिमय कथ्यों का संकलन किया तथा अनेक अजुगतजनों को राधा-कृष्ण की शुद्ध भक्ति के विज्ञान का प्रशिक्षण दिया ।

श्रीसनातन गोस्वामी ने सम्बन्ध-तत्त्व तथा साधन-भक्ति के दो मार्गों अर्थात् वैधी एवं रागानुगा की व्याख्या की । ""रसाचार्य"" श्रीरूप गोस्वामी ने राधा-कृष्ण एवं उनके प्रेमी भक्तगण के मध्य प्रेम-व्यवहार के अंतरंग रहस्यों को प्रकाशित किया । श्रील जीव गोस्वामी ने अपनी प्रतिभा-सम्पन्न विद्वत्ता तथा समस्त वेदों के विचक्षण अन्वेषण के माध्यम से गौड़ीय वैष्णववाद की वरेण्यता को निर्णीत रूप से प्रमाणित कर दिखाया । उन्होंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के परमश्रेष्ठ पद को भी सिद्ध कर दिया । श्रीरधुनाथदास गोस्वामी ने सिखाया कि किस प्रकार राधा-कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ दिव्य आसाक्ति द्वारा भौतिक विरक्ति की पराकाष्ठा तक पहुँचा जा सकता है । हर दूसरे दिन, छाछ की कुछ बूँदें पीकर जीवन-निर्वाह करते हुए, वे वृन्दावन में गिरि गोवर्धन के राधाकुण्ड तट पर सदैव दिव्य भाव में आविष्ट रहे ।

श्रीचैतन्यज़ टीचिंग्ज़ में, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर श्रीकृष्ण चैतन्य एवं क्तके कृपामय पार्षदों की भूमिका स्पष्ट करते हैं।

""श्रीकृष्ण चैतन्य के जीवनवृत्त के निष्पक्ष अध्ययन से हमें वृन्दावन में राधा-कृष्ण के प्रति गोपियों की प्रीति के वास्तविक भाव को पूर्णरूपेण समझने में सहायता मिलेगी । इसका गुह्य कारण यह है कि श्रीकृष्ण चैतन्य स्वयं श्रीकृष्ण ही है। और श्रीकृष्ण चैतन्य के पार्षद वही गोपियाँ, मंजरियाँ तथा अन्य दास हैं जो ब्रज में श्रीकृष्ण के संगी थे । श्रीकृष्ण चैतन्य एवं उनके पार्षदों के कार्यकलाप भी व्रज में श्रीकृष्ण की लीलाओं से अभिन्न, तथापि भिन्न भी हैं ।

जे चाहें तो स्वयं को हमारे समक्ष प्रकट कर सकते है । श्रीकृष्ण चैतन्य के नित्य पार्षद स्वरूपसिद्ध जीवों के रूप में इस प्राकृत जगत में अवतरित होते हैं । और वे इस प्रकार कार्य करते है कि बद्धजीव उन्हें गलत न समझें"" यद्यपि ये भक्तगण गोलोक वृन्दावन में राधा-कृष्ण की अत्यन्त अंतरंग लीलाओं में शाश्वतरूप से भाग लेते हैं, वे मात्र पाँच सौ वर्ष पूर्व इस धराधाम पर प्रकट हुए थे । गुरुवर्ग एवं साधक भक्तजन के रूप में कार्य करते हुए, उन्होंने अपने कर्म, वचन तथा साहित्य के माध्यम से सहस्त्रों जनों को आध्यात्मिक जीवन का उपदेश

दिया । किन्तु यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि चूँकि वे सब अब अप्राकृत जगत में लौट चुके हैं, हम कैसे एव कहाँ उनकी कृपा प्राप्त कर सकते हैं? प्रार्थना में ठाकुर महाशय नरोत्तमदास गौरांग महाप्रभु के नित्य पार्षदों के विरह में एक भक्त की वेदना व्यक्त करते हुए कहते है।

काँठा नोट स्वजय-कय काँहा सनातन

काँठा दास रप्रनाथ पतित-पावन ।।

काँठा नोट भट्टयुगु कोठा कविराज

एककाले कोथागेला गोरा नटराज ।।

ये सब संगीर संगे जे कैला विलास

से ठग जा पाइया काँदे नरोत्तमदास ।।

""मेरे स्वरूप दामोदर, श्रीरूप-सनातन तथा पतितों का भी उद्धार करनेवाले रघुनाथदास गोस्वामी कहाँ गए । मेरे गोपालभट्ट गोस्वामी, रधुनाथभट्ट गोस्वामी, कृष्णदास कविराज गोस्वामी तथा नटवरशिरोमणि श्रीचैतन्य महाप्रभु-ये सब एक साथ कहाँ गए? इन सब के साथ जिन्होंने सुन्दर-सुन्दर लीलाएँ की, उनका संग नहीं पाकर यह नरोत्तमदास विलाप कर रहा है ।""

वस्तुत:, भगवान एव उनके भक्तगण का वियोग, नरोत्तमदास ठाकुर जैसे शुद्ध भक्तों में ऐसे दारुण भाव उत्पन्न कर देता है । किन्तु सौभाग्यवश, चैतन्य महाप्रभु की दिव्य व्यवस्था से, हम अब भी उनकी कृपा प्राप्त कर सकते हैं ।

श्रीचैतन्य महाप्रभु के पार्षद करुणावरुणालय हैं, जो त्रस्त बद्धजीवों की सहायतार्थ अपनी कृपातरंगें सर्वदा भेजते रहते हैं । यह कृपा चेतना को शुद्ध दिव्य प्रज्ञा से प्रबुद्ध करती है, तथा कय को आनंदमय दिव्य भावों से अजुप्राणित करती है । उनकी कृपा-उर्मियों पर आरूढ़ हो बद्धजीव आवर्तक जन्म-मृत्यु रूप अँधियारे अंबुधि को अचिरेण पार कर लेता है, और दिव्य धाम के उन्नल तट पर पहुँच जाता है । वहाँ वह श्रीवृन्दावन धाम में राधा-कृष्ण की प्रेमसेवा के दिव्य रसार्णव में गोते लगाने लगता है।गोस्वामियों तथा श्रीचैतन्य महाप्रभु के अजुकम्पाशील अजुयायियों का संग करने से, मनुष्य को उनकी कृपा प्राप्त होगी । यह सग उनके द्वारा रचित कथ्यों, उनके क्रियाकलापों का वर्णन करनेवाले कथ्यों, उनकी शिष्य-परम्परा तथा वृन्दावन एप अन्य तीर्थस्थलों में विराजमान उनकी समाधियों में उपलब्ध है ।

भारत में जनसाधारण को मृत्योपरांत चिताग्नि में भस्म कर विस्मृत कर दिया जाता है, किन्तु चैतन्य महाप्रभु के महान भक्तगण को गाड़ा जाता है, तथा उनका स्मरण, सेवा व पूजा की जाती है । उनके आध्यात्मीकृत कलेवरों को वृन्दावन की पावन भूमि में श्रीकृष्ण के मन्दिरों अथवा लीलास्थलों के समीप प्रेमपूर्वक तिष्ठित कर दिया जाता है । जहाँ ये महान भक्तगण नित्य निवास करते हैं, उस स्थान पर प्रस्तर के साधारण अथवा आलंकारिक ढाँचे बनाए जाते है जिन्हें समाधि-मब्दिर अथवा मात्र समाधि कहा जाता है । ये समाधि-मन्दिर श्रद्धालु भक्तगण को इन समाधिस्थ जन से अनवरत निगमित होने वाली दिव्य कृपा, आशीष तथा प्रेरणा से जोड्ने में केन्द्रबिंदु का कार्य करते हैं ।

समाधियों के दर्शन करने, उन्हें प्रणाम करने, उनकी प्रदक्षिणा करने, उनके प्रति आत्म-निवेदनपूर्ण प्रार्थनाएँ करने तथा उन्हें मिष्ठान्न, धूप, दीप, पुष्प व यमुनाजल जैसी पूजा-सामग्री अर्पित करने से, एक सच्चे भक्त को श्रीचैतन्य महाप्रभु के इन नित्य पार्षदों की कृपा प्राप्त होगी । चूँकि मुक्त जीव काल व देश की सीमाओं के परे होते हैं, वे कभी-कभी एक भक्त के समक्ष प्रकट होकर वापस घर अर्थात् भगवद्धाम की ओर जाते पथ पर व्यक्तिगत रूप से उसका मार्गदर्शन करते हैं । गौड़ीय वैष्णव इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं । न केवल इतिहास, अपितु पूर्ववर्ती आचार्यों के वचन भी समाधिस्थ वैष्णवों की शक्ति को सिद्ध करते है । जैसाकि पूर्वोक्त किया गया है, ""यदि श्रीचैतन्य महाप्रभु के नित्य पार्षद चाहें, तो स्वय को हमारे समक्ष प्रकट कर सकते है ।""

गौड़ीय वैष्णव चरितामृत में समाधियों के अभिप्राय, इतिहास तथा महत्त्व की व्याख्या की गई है । इसमें समाविष्ट अनेक वैष्णवगण के जीवन वृत्तों, समाधियों के दिशाबोध, तथा उनके प्रति अभिवृत्ति एवं पूजा-निर्देशों के कारण यह गन्थ वृन्दावन की समाधियों के दर्शन करने के लिए एक मार्ग-निर्देशिका तथा कृष्ण भावनामृत में प्रगति करने के लिए एक लघु-पुस्तिका, दोनों का ही कार्य करता है । जो इन समाधियों के दर्शन करने में असमर्थ हैं, वे भी श्रीचैतन्य के नित्य पार्षदोंके तिरोभाव अथवा आविर्भाव दिवस के अवसर पर उनके जीवन तथा उपदेशों के विषय में पच्छ कर, इस कन्न का लाभ उठा सकते हैं।

पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण तथा उनके शुद्ध भक्तगण का स्मरण भक्ति का एक प्रभावकारी अंग है । अतएव, मात्र दिवंगत वैष्णववृन्द का स्मरण तथा उनसे कृपा-याचना करने से, भक्त आध्यात्मिक प्रगति कर सकता है । वैष्णवगण की कृपा मानव-जीवन का उद्देश्य अर्थात् श्रीवृन्दानधाम में नित्य निवास एवं श्री श्री गांधर्विका-गिरिधारी के पदारविन्दों की प्रेमसेवा प्राप्त करने हेतु नितान्त आवश्यक है । गीतावली, में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर वैष्णव-स्मरण एवं वृन्दावन-वास के सम्बन्ध पर बल देते हुए कहते है:

स्मर गोष्ठीसह कर्णपूर, सेन शिवानन्द

अजस्त स्मर, स्मर रे

गोष्ठीसह कर्णपूरे

स्मर रूपाजुग साधुजन भजनानन्द

ब्रजे आम अदि चाओ रे

रुपाजुग साधु स्मर

""तुम्हें श्रील कवि कर्णपूर एवं उनके समस्त परिजनों का स्मरण करना चाहिए जो श्रीचैतन्य महाप्रभु के निष्ठावान दास है । तुम्हें कवि कर्णपूर के पिताश्री शिवानन्द सेन का भी स्मरण करना चाहिए । सर्वदा उन सब वैष्णवगण का स्मरण करो जो श्रील रूप गोस्वामी द्वारा प्रवर्तित पथ का पूर्णतया पालन करते है, तथा जो भजन में मटन रहते हैं । यदि तुम वास्तव में व्रजवास के इच्छुक हो, तो तुम्हें समस्त रूपानुग वैष्णवों का स्मरण करना चाहिए ।""

इस्कॉन (अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ)के सदस्य यह जानकर प्रसन्न होंगे कि गौड़ीय वैष्णव चरितामृत में संघ के वार्षिक वैष्णव पंचाग में उल्लिखित समस्त वैष्णवगण के जीवन-चरित दिए गए हैं । लेखक यह आशा करता है कि यह गन्थ भक्तगण को चैतव्य महाप्रभु के नित्य पार्षदों की अनन्त कृपा प्राप्त करने में सहायक होगा । तब उसे त्वरित सरस युगलकिशोर श्रीश्री राधा-श्यामसुन्दर की निस्स्वार्थ सेवा हेतु श्रीवृन्दावन धाम में नित्य निवास करने का सुयोग प्राप्त होगा ।

 

विषय-सूची

 

खण्ड-

 

1

गौड़ीय वैष्णव चरितामृत वैष्णव चरितामृत

1

खण्ड

 

2

वृन्दावन में विराजमान समाधियाँ

115

3

अध्याय एक समाधियाँ

116

4

अध्याय दो समाधियों का इतिहास

120

5

अध्याय तीन समाधियों के भेद

122

6

अध्याय चार समाधि-स्थल

129

7

अध्याय पाँच समाधियों का दर्शन

141

8

अध्याय छ: पूजा एवं पर्व

157

9

मानचित्र

 
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