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भगवान शिव और उनके द्वादश ज्योतिर्लिंग: Lord Shiva and His Twelve Jyotirlingas

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Item Code: NZA696
Author: डॉ. गिरीशचन्द्र त्रिपाठी: Dr. Girish Chandra Tripathi
Publisher: PUSTAK MAHAL
Language: Hindi
Edition: 2012
ISBN: 9788122310405
Pages: 134 (50 B/W illustrations)
Cover: Paperback
Other Details 9.5 inch X 7.5 inch
Weight 270 gm
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Book Description
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पुस्तक के बारे में

भगवान् शिव और उनके द्वादश ज्योतिर्लिंग ब्रह्मा, विष्णु और शिव-इन त्रिदेवों में जो 'शिव' की गणना है, वे ब्रह्मा नहीं हैं, क्योंकि प्रलयकाल में इनकी स्थिति नहीं रखती, इनकी भी आयु निर्धारित है। 'महेश्वर-शिव' (ब्रह्मा) का ही अस्तित्व निर्धारित है। सृष्टि प्रक्रिया को पुन: बढ़ाने के लिए महेश्वर-शिव द्वारा इनकी नियुक्ति की जाती है। महेश्वर शिव की इच्छा के अनुसार गुणों (सत,रज और तम) के क्षोभ (विकृति) से रजोगुण सम्पन्न ब्रह्मा, सतोगुण सम्पन्न विष्णु और तमोगुण सम्पन्न रुद्र (महेश/शिव) प्रकट हुए। ये तीनों ब्रह्माण्ड के त्रिदेव हैं, जबकि महाशिव, (महेश्वर) कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के नायक हैं। ये त्रिदेव सृष्टि, स्थिति और लय के कार्य करने हेतु महेश्वर शिव द्वारा नियुक्त हुए हैं। 'शिव' शब्द का अर्थ है- कल्याण, अर्थात् भगवान् शिव कल्याण के देवता हैं। नंग-धडंग शरीर, सिर पर जटा, गले में मुण्डमाला, श्मशान में निवास, खाक-भभूत पोते हुए, संहार के लिए तत्पर सदाशिव वास्तव में मंगल के देवता हैं। यह उनका साकार रूप है। वे जब तामसिक शक्ति को धारण करके, ब्रह्माण्ड का नाश करते हैं, तो उन्हें प्रलय या संहार का देवता कहा जाता है।

'लिग' शब्द का अर्थ है- चिन्ह या पहचान। यह सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है, प्रलयकाल में समाहित हो जाती है, उसे ही लिंग कहते हैं। लिंग उस निर्गुण महेश्वर का प्रतीक चिन्ह है। प्रस्तुत में इन्हीं तत्वों की व्याख्या करते हुए, द्वादश शिवलिगों के विभिन्न स्थानों समयों में प्रकट होने, उनके महत्व और पूजन आदि के बारे में कथाओं के माध्यम से सविस्तार वर्णन किया गया है। साथ ही शिव की अष्टमूर्तियों, भूतलिगों और अन्य प्रमुख प्रसिद्ध शिवलिगों के महत्व, उनके स्थान, वहाँ पहुचने के मार्ग आदि की प्रामाणिक जानकारी चित्रों सहित दी गई है। इस कारण यह पुस्तक तीर्थाटन के साथ-साथ दुर्लभ जानकारी पर्यटन की दृष्टि से भी उपयोगी है। प्रत्येक धार्मिक जिज्ञासु के लिए यह पुस्तक पठनीय संग्रहणीय है।

भगवान् शिव और उनके द्वादश ज्योतिर्लिंग ब्रह्मा, विष्णु और शिव-इन त्रिदेवों में जो 'शिव' की गणना है, वे ब्रह्मा नहीं हैं, क्योंकि प्रलयकाल में इनकी स्थिति नहीं रखती, इनकी भी आयु निर्धारित है। 'महेश्वर-शिव' (ब्रह्मा) का ही अस्तित्व निर्धारित है। सृष्टि प्रक्रिया को पुन: बढ़ाने के लिए महेश्वर-शिव द्वारा इनकी नियुक्ति की जाती है। महेश्वर शिव की इच्छा के अनुसार गुणों (सत,रज और तम) के क्षोभ (विकृति) से रजोगुण सम्पन्न ब्रह्मा, सतोगुण सम्पन्न विष्णु और तमोगुण सम्पन्न रुद्र (महेश/शिव) प्रकट हुए। ये तीनों ब्रह्माण्ड के त्रिदेव हैं, जबकि महाशिव, (महेश्वर) कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के नायक हैं। ये त्रिदेव सृष्टि, स्थिति और लय के कार्य करने हेतु महेश्वर शिव द्वारा नियुक्त हुए हैं। 'शिव' शब्द का अर्थ है- कल्याण, अर्थात् भगवान् शिव कल्याण के देवता हैं। नंग-धडंग शरीर, सिर पर जटा, गले में मुण्डमाला, श्मशान में निवास, खाक-भभूत पोते हुए, संहार के लिए तत्पर सदाशिव वास्तव में मंगल के देवता हैं। यह उनका साकार रूप है। वे जब तामसिक शक्ति को धारण करके, ब्रह्माण्ड का नाश करते हैं, तो उन्हें प्रलय या संहार का देवता कहा जाता है।

'लिग' शब्द का अर्थ है- चिन्ह या पहचान। यह सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है, प्रलयकाल में समाहित हो जाती है, उसे ही लिंग कहते हैं। लिंग उस निर्गुण महेश्वर का प्रतीक चिन्ह है। प्रस्तुत में इन्हीं तत्वों की व्याख्या करते हुए, द्वादश शिवलिगों के विभिन्न स्थानों समयों में प्रकट होने, उनके महत्व और पूजन आदि के बारे में कथाओं के माध्यम से सविस्तार वर्णन किया गया है। साथ ही शिव की अष्टमूर्तियों, भूतलिगों और अन्य प्रमुख प्रसिद्ध शिवलिगों के महत्व, उनके स्थान, वहाँ पहुचने के मार्ग आदि की प्रामाणिक जानकारी चित्रों सहित दी गई है। इस कारण यह पुस्तक तीर्थाटन के साथ-साथ दुर्लभ जानकारी पर्यटन की दृष्टि से भी उपयोगी है। प्रत्येक धार्मिक जिज्ञासु के लिए यह पुस्तक पठनीय संग्रहणीय है।

लेखक-परिचय

डॉ. गिरीशचन्द्र त्रिपाठी ने सम्पूर्णनन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से संस्कृत-व्याकरण में आचार्य तथा पीएच.डी., संस्कृत में एम.., हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से साहित्यरत्न और आयुर्वेदरत्न की डिग्री प्राप्त की है तथा वाराणसी हरिद्वार के संस्कृत महाविद्यालयों में प्राचार्य पद पर कार्य करके, हरिद्वार से ही प्रकाशित आध्यात्मिक मासिक पत्रिका 'दूधाधारी-वचनामृत' में लगभग 23 वर्षों तक सम्पादक रहे। इसके अतिरिक्त अनेक अन्य पत्र-पत्रिकाओं से सम्बद्ध रहे। इनकी लगभग एक हजार रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

डॉ. त्रिपाठी की अनेक वार्ताएँ आकाशवाणी नजीबाबाद से प्रसारित हो चुकी हैं। सम्प्रति स्वतंत्र लेखन में सक्रिय हैं, जिनकी पृष्ठभूमि सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और ज्योतिष से सम्बन्धित है। पुस्तक महल से लेखक की प्रथम पुस्तक 'मृत्यु के बाद क्या?, हिंदू धर्मदर्शन में मृत्युपरांत जीवन की व्याख्या' प्रकाशित है। यही दूसरी पुस्तक है- 'भगवान् शिव और उनके द्वादश ज्योतिर्लिंग' लेखक की अन्य प्रकाशित पुस्तकें हैं- (1) महाभाष& समीक्षण् (संस्कृत) केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय दिल्ली की सहायता से प्रकाशित एवं उ० प्र० सरकार द्वारा पुरस्कृत। (2) बटुक भैरव उपासना (हिंदी संस्कृत) बटुक भैरव प्रकाशन हरिद्वार और (3) पंजाब की हलचल प्रकाशन- संस्कृति मुद्रणालय हरिद्वार।

भूमिका

जब भगवान् शंकर का परिणय-संस्कार माता पार्वती के साथ हो रहा था, उस समय दोनों पक्षों के गौत्राच्चार का जब प्रकरण आया, तो आचार्य ने शिवजी मै पूछा- 'तुम्हारे पिता का नाम क्या है? शंकर ने उत्तर दिया-'ब्रह्मा' तुम्हारे दादा कौन हैं? तब उत्तर मिला-'विष्णु' तुम्हारे परदादा कौन हैं? तब शंकर ने कहा- 'वह तो सबके हम ही हैं।'

पाणिग्रहण का तात्पर्य है-सम्बन्ध स्थापित करना या बनाना जीव भी शिव के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है, क्योंकि उसके बिना वह अधूरा है जब वह सम्बन्ध स्थापित करने लगता है, तो शिव की ओर से उससे भी उसके अनेक पुश्तों (जन्मों) का विवरण प्रुछा जाता है- तुम्हारा संस्कार क्या है? तुम्हारे सम्बन्ध किन-किन प्रकृति वाले लोगों से रहे हैं? जिस प्रकार भगवान् शिव ही सबके कारण (पिता) हैं, उसी ग्कार तुम भी उन सभी प्रकार के कर्मों के कारण हौ ' इसलिए मनुष्य को स्वयं अपने भाग्य का निर्माता ऊहा गया है गीता में काम, क्रोध और लोभ को जन्य के तीन द्वार बताए गए हैं ये तीनों आत्मा का विनाश करने वाले हैं, इसलिए इन तीनों से मुक्त हुआ स्थ ही अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है और परमगति को प्राप्त करता है इन विकारों से छुटकारा पाना बहुत सरल नहीं है, क्योंकि बड़े-बड़े ॠषि-मुनियों को भी इनका शिकार होते देखा गया है ये प्रबल विकार शुद्ध अन्तरात्मा को ऊपर से ढँक लेते हैं। जिस पुकार 'धूम' अग्नि को ढँक लेता है, दर्पण को धूल आच्छादित कर लेती है और गर्भ जेर से ढँका रहता है, उसी प्रकार यह ज्ञान भी कामनारूपी मैल से ढँक जाता है-ऐसा श्रीमद्भगवद्गीता का अभिमत है कभी नहीं तृप्त होने वाली कामनारूपी आग ज्ञानी पुरुष के लिए सदा दुश्मन है, जो ज्ञान को आच्छादित करती है इससे छुटकारा पाने के लिए अपने अन्दर दैवी सम्पदा को विकसित करना होगा मनुष्य के अन्दर जो वास्तविक अहम् है, जो सच्चा स्वरूप है, वह सर्वथा शुद्ध और आनन्दमय है जो आनन्दमय है, वही परमेश्वर का साक्षात् स्वरूप है इसका अनुभव करने के लिए, ईश्वर के साथ अपनी एकता स्थपित करने के लिए मनुष्य को अपनी इच्छाशक्ति और संकल्प को पूर्ण विकसित करते हुए उसे सुदृढ बनाना होगा उस अपार आनन्द की राशि ईश्वरीय सत्ता के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव करना होगा

जैसाकि आपने ऊपर पढ़ा है, भगवान् शिव ही सबके दादा हैं, फिर भी उन्होंने अपनी दादागिरी कभी नहीं दिखाई है, जैसाकि किसी कवि ने लिखा है-

सब देवता शीश पुजाये, ईश पुजाये लिंग।

भगवान् एक हैं, पर उनके अनेक रूप भी हैं जिस समय वे जैसा स्वांग करते हैं, वैसा ही उनका नाम पड़ जाता है वे ही भगवान् जब संसार की सृष्टि करते हैं, तो ब्रह्मा कहलाते हैं, पालन करते हैं, तो विष्णु कहलाते हैं और जब संहार करते हैं, तो उन्हें 'शिव' कहा जाता है 'शिव' का अर्थ है-कल्याण भगवान् शिव की संहारलीला में भी जीव के कल्याण का रहस्य छिपा हुआ है वे भगवान् अत्यन्त चतुर लोगों के भी शिरोमणि हैं, फिर भी अपने भक्तों के लिए निरे भोले बने रहते हैं वे रुद्र होकर भी वास्तविक रूप से आशुतोष हैं उस लोकपावन शिव की प्रसन्नता के लिए आक और धतूरे की पुष्पांजलि ही पर्याप्त है जितनी शीघ्रता से भगवान् शंकर प्रसन्न होते हैं, इतनी शीघ्रता से प्रसन्न होने वाला परमात्मा का अन्य कोई रूप नहीं है भगवान् शिव ने डमरू बजाकर नाचते हुए अपने सनक आदि मुनियों को ब्रह्मज्ञान दे दिया और देव-दानवों को जलते हुए देखकर हलाहल विष उठाकर पी गये गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी ओर संकेत करते हुए लिखा है-

जरत सकल सुरबृन्द, बिषम गरल जेहि पान किय।

तेहि भजसि मतिमन्द, की कृपालु शंकर सरिस ।।

भगवान् शिव अपने भक्तों को इस लोक में सुख देते हैं तथा मृत्यु के बाद भी उन्हें मोक्ष प्रदान करते हैं, इसीलिए भगवान् शिव का नाम 'शंकर' है इनके कल्याणमय स्वभाव को देखकर ही आपत्तियों के आने पर हर मनुष्य इनकी शरण में जाता है जैसाकि शास्त्रों का अभिमत है, कर्मफल देने-लेने के लिए ही सृष्टि होती है, उस समय यह जीव नाना प्रकार के दु:खों को भोगता रहता है एकमात्र प्रलयकाल में ही इन सबसे छुटकारा मिलता है वह माता-पिता के समान सबको सुला देता है, जिसे परमात्मा की बड़ी कृपा माननी चाहिए प्रलयकाल में किसी को तनिक भी कष्ट नहीं होता है, क्योंकि वह सबके दु:खों को हर लेता है, इसीलिए उसे 'हर' कहा जाता है इस अपार करुणा का ज्ञान जिसे नहीं होता है, वह शिव के इस कष्ट निवारक कार्य को तमोगुण कहता है स्वच्छ प्रकाशमय सभी सत्त्वगुण उसी में प्रकट होते हैं, इसलिए वह कर्पूरगौर है उसकी निर्दोषिता ही गौरवर्ण है

वह परमात्मा कुकर्मी पापियों को आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक-इन तीन प्रकार के शूलों से पीड़ा देता है, इसीलिए वह त्रिशूलधारी है प्रलयकाल में एकमात्र वही शेष रहता है, अन्य कोई नहीं बचता है, जिसके कारण यह ब्रह्माण्ड श्मशान बन जाता है इसकी भस्म और रुण्ड-मुण्ड एकमात्र उसका ही अलंकार बनते है, जिससे वह चिताभस्मावलेपी 'और' रुण्डमुण्डधारी कहलाता है, वह अघोरियों के समान चिताभूमि का निवासी नहीं है वह परमात्मा भूत, भविष्य और वर्तमान- इन तीनों कालों की बातों को जानता है, इसीलिए वह 'त्रिनयन' कहलाता है वृष कहते हैं- धर्म को, जिस पर वह सवारी करता है अर्थात् वह धर्मात्माओं के हृदय में निवास करता है, इसीलिए उसे बैल की सवारी वाला कहते हैं

संसार के लूले-लंगड़े मन्ये काने, कुरूप-कूबड़े सभी उसकी भक्ति करते हैं और वह सबको अपना लेता है अर्थात् वह सभी भूतों अर्थात् प्राणियों का स्वामी है इसीलिए उसे भूतभावन कहा जाता है कि प्रेतों का राजा। दो जिह्वा वाले साँप चुगलखोर हैं, किन्तु परमात्मा उन्हें भी अपने गले का हार बना लेता है, क्योंकि पिता अपने बुरे लड़कों को भी अपने से लिपटाये रखता है पाप और विष समान ही हैं वह सबके पापों को, दोषों को अर्थात् विषों को पी जाता है और क्षमा कर देता है वह अपने को अर्द्धनारीश्वर के रूप में प्रकट करके संसार के जीवों को माता और पिता दोनों के सुख को प्रदान करता है उनमें किसी भी प्रकार का लौकिक सम्बन्ध नहीं होता है

भगवान् शिव को वेदान्तदर्शन ने 'तुरीय ब्रह्म' कहा है अर्थात् यही एक मात्र सत्य है, इसके अतिरिक अन्य सब मिथ्या है, इसलिए शिव ही एक मात्र अद्वितीय ब्रह्म हैं- 'शिवम् अद्वितीय तुरीय ब्रह्म इत्युच्यते 'शिव से ऊपर कुछ भी नहीं है, ऐसा वेदों का भी कथन है यह जगत् सत् और असत् का मिलाजुला रूप है सृष्टि के प्रारम्भ में सत् था और असत्, परन्तु एकमात्र शिव था। जैसाकि इस वेद वाक्य से पता चलता है-

 

अनुक्रमणिका

 

भूमिका

5

अध्याय 1 : शिवतत्त्व, स्वरूप और उसकी महिमा

9

अध्याय 2 : लिंग का प्रादुर्भाव और उसका रहस्य

18

अध्याय 3 : द्वादश ज्योतिर्लिंग

30

श्री सोमनाथ (सौराष्ट्र, गुजरात)

32

श्री मचिकार्जुन (तमिलनाडु)

37

श्री महाकालेश्वर (उज्जैन)

39

श्री ओंकारेश्वर (अमलेश्वर) (मालवा)

45

श्री केदारेश्वर (उत्तराखण्ड, हिमालय)

50

श्री भीमशंकर (महाराष्ट्र)

58

श्री विश्वेश्वर (काशी)

63

श्री त्र्यम्बकेश्वर (पंचवटी, नासिक)

68

श्री वैद्यनाथ (झारखंड)

73

श्री नागेश्वर (गुजरात/बड़ौदा)

77

श्री सेतुबन्ध - रामेश्वर (तमिलनाडु)

82

श्री घुश्मेश्वर (हैदराबाद)

87

अध्याय 4 : उपज्योतिर्लिंग, अष्टमूर्ति व पंचभूतलिंग

91

अध्याय 5 : प्रसिद्ध विविध शिवलिंग और उनका महत्त्व

101

1 श्री अमरनाथ

101

2. श्री लिंगराज मंदिर (भुवनेश्वर)

103

3. श्री शूलपाणीश्वर (मध्य प्रदेश)

106

4. श्री केदारेश्वर (केदारलिंग) (वाराणसी)

108

5. श्री भगवान् एकलिंग (चित्तौड़)

110

6. श्री मंगेश महादेव (गोवा)

113

7. जबलपुर के श्री गौरी शंकर

115

8. जसदण के श्री सोमनाथ

116

9. श्री दक्षेश्वर महादेव (कनखल, उत्तराखंड)

117

अध्याय 6 : शिवपूजन, निर्माल्य व नैवेद्य

122

अध्याय 7 : आक्षेपक प्रश्न व उत्तर

131

 

 

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