संत दर्शन
विश्व प्रसिद्ध दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट का मुख्यालय कनखल स्थित कृपालु बाग आश्रम में अवस्थित है । कृपालु बाग आश्रम की स्थापना सन् 1932 में श्री स्वामी कृपालुदेव जी महाराज ने की थी, जो मूलत: वीरभूमि मेवाड़ (राजस्थान) के थे और उनका संन्यास से पूर्व का नाम यति किशोरचंद था । स्वाधीनता आदोलन में यति किशोरचंद जी ने एक सक्रिय क्रांतिकारी की सफल भूमिका निभाई । गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के संस्थापक स्वामी श्रद्धानंद जी से उनके मधुर एवं घनिष्ठ संबंध रहे । बाद में बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी, चितरंजन दास, गणेश शंकर विद्यार्थी, वी.जे. पटेल, हकीम अजमल खां के गहन संपर्क में आए ।
यति किशोरचंद जी ने 'बंगविप्लव' दल से जुड़ कर इसके द्वारा निकाले गए 'युगांतर' और 'लोकांतर' पत्रों को उत्तर भारत में प्रसारित करने का जोखिम भरा दायित्व संभाला । 'बंगविप्लव' दल ने दिल्ली से लार्ड हार्डिंग बम-कांड को अंजाम दिया, जिसके नायक रासबिहारी बोस थे । उनको हरिद्वार में शरण देने का दायित्व यति किशोरचंद को सौंपा गया था । रासबिहारी बोस पर ब्रिटिश सरकार ने उस जमाने में तीन लाख रुपयों का इनाम रखा हुआ था । यति किशोरचंद ने उनको जंगल के बीच स्थित अपने आश्रम में रखा ।
स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिकारी का जीवन जीने वाले यति किशोरचंद जी की योग एवं अध्यात्म में रुचि प्रशस्त हुई और वे एक सिद्ध योगी बने । सन् 1968 में वे इस संसार को अलविदा कह गए ।
क्रांति, योग साधना और अध्यात्म की पुण्यभूमि कृपालु बाग आश्रम का संचालन कार्य महाराज जी के शिष्यों ने संभाला । इसी परंपरा की एक कड़ी श्री स्वामी शंकरदेव जी हैं जिनके योग्य शिष्य श्री स्वामी रामदेव जी महाराज ने इस आश्रम को योग, आयुर्वेद, वैदिक संस्कृति की दिव्य ज्योति से समुज्जवल कर इसे देश-विदेश में, लोकमानस में, दिग्-दिगंत में विख्यात कर दिया है ।
ऐसे प्रसिद्ध तपस्वी संत का जीवन चरित्र निश्चय ही भारतीय जनमानस में योग और अध्यात्म के प्रति एक नई चेतना की जागृति के लिए सहायक सिद्ध होगा ।
आचार्य बालकृष्ण
पुरोवाक्
पूज्यपाद स्वामी रामदेव जी महाराज की कर्म-भूमि कृपालु बाग आश्रम, कनखल की स्थापना अपने युग की दिव्य विभूति संत शिरोमणि श्री स्वामी कृपालुदेव जी महाराज ने सन् 1932 में की थी। कृपालुदेव जी महाराज के बहु-आयामी व्यक्तित्व के अनुरूप ही इस आश्रम से संचालित गतिविधियां भी बहु-आयामी रही है। महाराजश्री मूलत : वैरागी, फक्कड़ और अध्यात्मवादी संत थे। लेकिन देश, धर्म, संस्कृति के प्रति भी उनका गहरा अनुराग था । गंगा, गीता और गौ के प्रति भी उनकी अद्भुत अनुरक्ति थी । उनका जीवन परमात्मा को समर्पित था अत : ईश्वरीय निष्ठा की अतल गहराईयों में उतर कर वे अपने जीवन को स्वत: खतरों में जानबूझ कर डाल देते थे । इन अद्भूत चमत्कारों से उनका जीवन भरा पड़ा है । वे पुत्रैषणा, वित्तैषणा लोकैषणा से ऊपर उठे हुए संत थे अत: उन्होंने कभी अपने आपको आत्म-प्रचारित करने की चेष्टा नहीं की । यद्यपि उनकी रुचि योग साधना में थी लेकिन फिर भी हम उनको शिक्षा संस्थाओं का निर्माण करते हुए, पुस्तकालय का संचालन करते हुए 'विश्व-ज्ञान' पत्रिका का प्रकाशन करते हुए, गद्य और पद्य में रचना करते हुए, गोरक्षा आन्दोलन में भाग लेते हुए, साम्प्रदायिकता के विरुद्ध लड़ते हुए तथा स्वाधीनता संग्राम में योगदान करते करते हुए देखते हैं । उनका यह जीवन-वृत्त अद्भुत एवं रोमांचकारी तो है ही इसके साथ-साथ प्रेरणादायी भी है।
उनके इस मनोहारी जीवन को आज से लगभग 65 वर्ष पूर्व महाराजश्री के अनन्य भक्त पं. श्यामजी पाराशर, एम.ए. ने लिपिबद्ध करके विक्रमी सम्वत् 1996 (मार्च 1940 ई.) में माता शिव देवी स्मारक निधि में आठवें पुष्प के रूप में राष्ट्र निर्माण ग्रंथ माला, करौल बाग दिल्ली की ओर से प्रकाशित कराया था । प्रथम संस्करण दो हजार प्रतियों का छपा था जो हाथों हाथ वितरित हो गया । जाहिर है कि उनके भक्तों की संख्या हजारों में थी । इस ग्रंथ रत्न की एक ही प्रति महाराजश्री के पट्ट शिष्य और कृपालु बाग आश्रम के वर्तमान संचालक परम श्रद्धेय स्वामी शंकर देव जी के पास उपलब्ध थी । लेकिन जब इस ग्रंथ को प्रकाशित करने का विचार दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट ने किया तो इस प्रति को भी कोई अज्ञातनामा व्यक्ति ले जा चुका था । 'योग संदेश' के प्रबंध सम्पादक डॉ. सुरेन्द सिंह कादियाण भी इस कार्य में विशेष रुचि ले रहे थे । उन्होंने इस पुस्तक को हरिद्वार स्थित अनेक पुस्तकालयों में तलाशा लेकिन विफल मनोरथ रहे। एक दिन आश्रम में अचानक ही उनकी भेंट कृपालुदेव महाराज के शिष्य लेहरूलाल पालीवाल, महावीर कॉलोनी, बड़गाँव, बेदला रोड, उदयपुर से हुई । उनसे चर्चा करते हुए 'मालूम हुआ कि कृपालुदेव महाराज के जीवन चरित्र की एक प्रति उनके पास है । डॉ. सुरेन्द्र के आग्रह पर उन्होंने यह प्रति आश्रम में भेज दी और डायमंड पॉकेट बुक्स ने इसे कम्प्यूटर पर टाइप किया । जब इसके पूफ्र देखे जाने लगे तो न जाने किसकी लापरवाही से यह प्रति भी गुम हो गई । चूँकि इस प्रति के एकाध अध्याय फटे हुए थे और कहीं-कहीं कागज फटा होने से मैटर अधूरा था इसलिए भी व्यवधान पड़ा । इस स्थिति के कारण पुस्तक प्रकाशन में अनावश्यक विलम्ब होता रहा । डॉ. सुरेन्द्र कादियाण ने जब अपनी समस्या सत्यधर्म प्रकाशन रोहिणी, दिल्ली के संस्थापक आदरणीय आचार्य सत्यानन्द जी नैष्ठिक के समक्ष रखी तो उन्होंने संकेत दिया कि इस पुस्तक की एक प्रति उनके संग्रह में है । अंतत: सत्यानन्द जी नैष्ठिक के सौजन्य से प्राप्त प्रति के आधार पर यह ग्रंथ रत्न प्रकाशित करने की स्थिति में पहुंचा । एतदर्थ उनका विशेष धन्यवाद है । श्री लेहरुलाल पालीवाल तो धन्यवाद के पात्र हैं ही ।
अड़चनों के बावजूद प्रभु-कृपा से यह ग्रंथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें अतीव आत्मिक आनन्द महसूस हो रहा है । दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट को अपनी गतिविधियां चलाने के लिए स्वामी शंकरदेव जी ने कृपालुबाग आश्रम में हमें जो आश्रय दिया था उसके लिए हम संत आत्मा कृपालुदेव जी के ऋणी थे । इस पुस्तक के प्रकाशन से हम एक सीमा तक इस ऋण से अपने को अगा हुआ महसूस करते हैं। दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट भी उसी देव संस्कृति का प्रचारक-प्रसारक है जिसके लिए कृपालुदेव जी महाराज आजीवन प्रयासरत रहे थे । महाराजश्री ने योग की जिस धारा का आलम्बन किया था उसी को पूज्यपाद स्वामी रामदेव जी के सान्निध्य में दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट पूरे भारत में ही नही बल्कि अखिल विश्व में फैला चुका है । आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को लोकप्रिय बना कर दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट स्वदेशी का पाठ भारतीय जनमानस को पढ़ा रहा है । महाराजश्री राजनीतिक पराधीनता की बेड़िया काटने के लिए स्वाधीनता संग्राम में कूदे थे तो दिव्य योग मदिर ट्रस्ट सांस्कृतिक और आर्थिक स्वाधीनता के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से संघर्षरत है । निश्चय ही हम इस देवासुर संग्राम में विजयश्री प्राप्त करेंगे क्योंकि हमारा यह संघर्ष संत कृपालुदेव महाराज सरीखी योग- आत्मा की पुण्य-भूमि से शुरू हुआ है जिससे हमें निरन्तर आत्म-प्रेरणा और आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती रही है ।
इस ग्रंथ रत्न ने हजारों पाठकों का दृष्टिकोण और जीवन बदल कर रख दिया थी जिसकी साक्षी कृपालुदेव 'महाराज की शिष्य परम्परा आज भी दे रही है । श्यामजी पाराशर एक सिद्धहस्त लेखक थे । उन्होंने यह ग्रंथ महाराजश्री के सान्निध्य में बैठकर भक्ति भाव से लिखा था जिसका अपना अलग ही प्रभाव है । दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट आशा रखता है कि वर्षो से अनुपलब्ध इस ग्रंथ रत्न को पढ़कर पाठक वृन्द अपने को धन्य महसूस करेगा क्योंकि प्रभुभक्ति, योग, साधना, अध्यात्म, देशभक्ति, जनसेवा, धर्म, संस्कृति, मानवता आदि सबका इसमें मधुर मिश्रण है ।
इस सद्ग्रंथ के पुन: प्रकाशन में सहयोगी रहे सभी महानुभावों के प्रति मैं दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट की ओर से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं और आशा रखता हूं कि एक बार फिर यह ग्रंथ लोकप्रियता की अपनी बुलंदी को स्पर्श करता हुआ अपने हजारों पाठकों को दिशाबोध देने में सफल होगा ।
भूमिका
बद्ध दास्ता के बंधन में पड़े करोड़ों भाई बंधा।
लेने जाते हो एकाकी कौन मुक्ति का तुम आनंद ॥
सन्त राष्ट्र की विभूति हैं और सन्तों का जीवन राष्ट्र की अमर सम्पत्ति है । इस विशाल संसार सागर की तरंगों के संघर्ष पर डगमगा रहे अनेक पथ-प्रान्त मानव-पोतों के लिए महात्माओं का चरित्र एक ज्योति-स्तम्भ (Light-Tower) है । जब-जब भी शस्य श्यामला भारत वशुन्धरा शत्रुओं के अत्याचार से आकुल हो उठी जब-जब भी गौ-ब्राह्मण का जीवन संकटमय हुआ, उसी-उसी समय राष्ट्र के सूत्रधार सच्चे साधु, महात्मा कर्मयोग की कृपाण हाथ में लेकर मातृ-भूमि की आपदाओं का नाश करने के लिए आगे बड़े । जब तक सूर्य और चन्द्र गगन में विहार करते हैं, तब तक पतित पावनी भगवती भागीरथी की निर्मल धारा भारत जननी के कण्ठ को अलंकृत कर रही है । जब तक भारत का वह महान् संतरी हिमालय जननी जन्म-भूमि की गौरवान्वित पताका को कंचनझंगा के उच्चतम शिखर पर फहरा रहा है और जब तक महान् विशालकाय वरुण देव निरन्तर माँ भारती के चरणों का प्रक्षालण कर रहे हैं तब तक भारतीय इतिहास के अगस्त्य, विश्वामित्र, परशुराम, बुद्ध, शंकर, महावीर, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, समर्थ गुरु रामदास गुरुतेग बहादुर, गुरु गोविन्द सिंह, ऋषि दयानन्द तथा महात्मा गांधी को कौन भूल सकता है।
सन्त जन ही वैदिक संस्कृति का आधार रूप हैं । विगत एक सहस्र वर्षों के गजनवी, नादिरशाही और गोराशाही आक्रमणों को निरन्तर सहन करता हुआ भी आज यह भारतीय प्रासाद इन...
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
के भगवद् वाक्य के अनुसार समय-समय पर स्तम्भ रूप बन कर भारतीय प्रासाद की छत को गिरने से बचाने वाले कतिपय सन्त महात्माओं के सदुद्योग के पुण्य प्रताप से ही अपने अस्तित्व को बनाये हुए है ।
अस्तु! यदि हम राष्ट्र की सोई हुई आत्मा को जगाना चाहते है-यदि हम भारत-वसु-धरा के करोड़ों बच्चों को निर्धनता दासता पराधीनता के प्रबल पाशों से मुक्ति दिलाना चाहते हैं और यदि हम स्वयं अपना अथवा अपनी सन्तान का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहते हैं, तो हम को सन्तों के जीवन का ध्यानपूर्वक मनन कर तदनुसार ही अपनी जीवन नैया को खेना पड़ेगा ।
राष्ट्र-निर्माण कथ माला के पाठकों की सेवा में मैं आज अपना आठवां पुष्प भेंट कर रहा हूं । जिस प्रकार मेरे भारत-सन्देश, जवाहर-दिग्विजय, भारत में स्वर्ग इत्यादि कथों का जनता ने मान किया है, मैं आशा करता हूं, इस मेरे सन्त-दर्शन का भी पाठक-गण उसी प्रकार स्वागत करेंगे ।
इस कथ में मैने एक महात्मा का जीवन-चरित्र लिखा है । दो वर्ष पूर्व पिछले कुम्भ- अवसर पर सर्वप्रथम मुझे इन महात्मा के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । कुम्भ-अवसर पर महाशय खुशहालचन्द खुर्सन्द (महात्मा आनन्द स्वामी) के प्रधानत्व में जिस हिन्दू-नवजीवन कांफ्रेन्स का विशाल आयोजन किया गया था; वह सब इन्हीं महात्मा के अथक परिश्रम का फल था । आप उस कांफ्रेन्स के स्वागताध्यक्ष थे । उन्हीं दिनों मुझे भी आपके निकट सम्पर्क में कई दिन तक रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मेरे बहुत से इष्ट मित्रों ने मुझे इन्हीं महात्मा के जीवन सम्बन्धी बड़ी ही विचित्र तथा शिक्षाप्रद घटनाएं सुनाईं । आपकी जीवन-कथा को सुन कर मैंने अनुभव किया कि यदि इस जीवन-कथा को राष्ट्र निर्माण मथ माला की ओर से देश के नवयुवकों तक पहुंचाया जाए तो सचमुच देश और जाति का बड़ा ही उपकार होगा । इसी आशा से मैंने इस कथ को प्रकाशित कराने का साहस किया है ।
सन्त-दर्शन के नायक के जीवन के एक-एक अक्षर में आदरणीय पाठकों को निष्काम कर्मयोग की प्रतिभा दिखाई देगी । जिस जीवनशक्ति को प्राप्त करने के लिए उनकी आत्मा प्रतिक्षण तड़पा करती है, उसी शक्ति को इस सन्त-दर्शन की पंक्तियों पर बिखरी देख कर पाठक अपने आप को सौभाग्यवान समझेंगे । "भक्त प्रह्लाद जैसी उत्कट भक्ति भावना, भक्त ध्रुव जैसी भक्ति दृढ़ता, बलवीर शाकुन्तल जैसी निर्भयता, राम जैसा साहस, कृष्ण जैसी नीति, बुद्ध जैसा त्याग, महावीर जैसा धर्म साधन शंकर जैसी विद्वता, गुरु नानकदेव जैसी सहनशीलता, समर्थ गुरु रामदास जैसी धर्म वीरता, वैरागी जैसा आत्म विश्वास, ऋषि दयानन्द जैसा ब्रह्मचर्य छत्रपति शिवाजी महाराज जैसी देशभक्त, महाराणा प्रताप जैसा स्वदेशाभिमान गुरु गोविंद सिंह जैसी बलिदान भावना, राष्टूरथी जवाहर जैसी लोकप्रियता, से-गांव के सन्त जैसी निर्मलता । "कदम-कदम पर उनके निराशापूर्ण जीवन पथ पर आशा का मीनार वन कर खड़ी रहेगी ।
द्वितीय विश्व-युद्ध की महंगाई के कारण प्रकाशकों ने जिस अर्थ संकट को धैर्य से सहते हुए ग्रन्थ को प्रकाशित किया है, इसके लिए उनका धन्यवाद है । मैंने भी अपना कर्तव्य पालन करने में कोई त्रुटि नहीं रखी यदि भूले से कोई त्रुटि रह भी गई हो तो पाठकगण उसके लिए मुझे क्षमा करेंगे ।
अनुक्रमणिका |
||
अध्याय |
खंड पहला-वीर बालक |
पृष्ठ |
1 |
वीर भूमि मेवाड़ |
21 |
2 |
अनुपम फूल |
25 |
3 |
विचित्र बालक |
31 |
4 |
फूलकुंवर |
37 |
5 |
होनहार बालक |
40 |
6 |
नाकू के पेट में |
44 |
7 |
बंधु वियोग |
49 |
8 |
पथ-भ्रान्त पथिक |
53 |
9 |
कृष्ण बलदेव की जोड़ी |
59 |
10 |
बेदला में विद्याध्यन |
65 |
11 |
काशी की धुन |
70 |
12 |
फिर काशी की और |
74 |
13 |
बाबा विश्वनाथ की नगरी में |
81 |
14 |
एक स्वप्न |
84 |
15 |
काशी से हरिद्वार पैदल |
88 |
खंड दूसरा- उत्तराखंड के पथ पर |
||
16 |
डाकुओं के शिविर में |
97 |
17 |
गुप्त गुफा की रहस्यपूर्ण लीला |
104 |
18 |
शिवालय के अवधूत साधु |
109 |
19 |
अघोरियों का भैरवी चक्र |
113 |
20 |
सन्त-समागम |
122 |
21 |
हरिद्वार में |
127 |
22 |
हरिद्वार में प्रथम दिवस |
129 |
23 |
फूलकुंवर से नन्दकिशोर |
132 |
खंड तीसरा- ब्रह्मचारी |
||
24 |
ब्रह्मचारी नन्दकिशोर |
139 |
25 |
देश सेवा के पथ पर |
149 |
26 |
परीक्षा की कसौटी पर |
161 |
27 |
कोढ़ी का उद्धार |
174 |
28 |
पूर्व जन्म के घर की याद |
180 |
29 |
परीक्षा की दूसरी अग्नि में |
185 |
30 |
इन्द्र-शक्ति का विकास |
195 |
31 |
प्रभु के चरणों में |
203 |
32 |
तारक मंत्र माहात्म्य |
218 |
33 |
राजाओं से भेंट |
230 |
34 |
इकलिंग की याद |
232 |
35 |
प्रेम का दीवानापन |
238 |
खंड चौथा- यति किशोरचन्द्र |
||
36 |
यति किशोरचन्द्र |
249 |
37 |
प्रेम पुजारी |
254 |
38 |
अपने प्रभु की गोद में |
261 |
39 |
न इस पार. न उस पार |
265 |
40 |
अनंत के पथ पर |
274 |
41 |
शिवलोक तथा स्वर्गलोक का यात्री |
278 |
42 |
नीलकंठ का विचित्र साधु |
282 |
43 |
पहाड़ की परियां |
288 |
44 |
सिद्धस्रोत की यात्रा |
292 |
45 |
अयोध्या का राजा |
298 |
46 |
शाकुंभर देवी की यात्रा |
302 |
47 |
एक हमदर्द कुत्ता |
311 |
48 |
नील पर्वत पर महाल की माखी |
318 |
49 |
दक्ष घाट पर अभूतपूर्व दृश्य |
322 |
50 |
बाबा सिद्धनाथ के दर्शन |
328 |
51 |
फकीरों की टोली में |
335 |
खंड पांचवां- स्वाधीनता का पुजारी |
||
52 |
लोकमान्य तिलक से भेंट |
343 |
53 |
आनंद-सेवक पश्व |
349 |
54 |
कुम्भ का स्वयं-सेवक |
364 |
55 |
प्रकृति का उपासक |
375 |
56 |
स्वराज्य का पहला झंडा |
383 |
57 |
युगान्तर और लोकान्तर |
388 |
58 |
सी. आई.डी. की दुर्गति |
400 |
59 |
लार्ड हार्डिंग पर बम |
408 |
60 |
तीन लाख पर लात |
416 |
61 |
रास बिहारी के साथ बनारस में |
425 |
62 |
गिरी रूपी राहू |
429 |
63 |
भारती जी का ऋण |
436 |
64 |
शहीदों का खून |
445 |
65 |
अमृतसर कांग्रेस |
449 |
66 |
कटारपुर केस |
453 |
67 |
गो- भक्तों की रक्षा |
462 |
68 |
धर्म युद्ध का वीर सैनिक |
470 |
69 |
सुजानपुर का अभूतपूर्व दृश्य |
489 |
70 |
मुल्ला के वेश में |
503 |
71 |
अनेक ग्रंथों के रचयिता |
515 |
72 |
गांधी की आधी में |
521 |
73 |
दहकती हुई होली में |
529 |
74 |
आदर्श देशभक्त |
533 |
75 |
स्वाभिमान की मूर्ति |
538 |
76 |
महात्मा हंसराज जी को लायब्रेरी भेट |
548 |
खंड छठा- कल्याण मार्ग के पथिक |
||
77 |
यति जी की नाग कुटी |
553 |
78 |
एक योगी की अद्भुत लीला |
557 |
79 |
सन्त-दर्शन |
571 |
80 |
अध्यात्म धारा |
579 |
81 |
योग की गूढ़ गुत्थियां |
588 |
82 |
मृत्यु का स्वरूप |
600 |
83 |
सात्विक भावना का फल |
614 |
84 |
ओ३म् धुन में दो बालऋषि |
618 |
85 |
सन्तों की अमृत वाणी |
621 |
86 |
मोनी की नदी में केहरी |
649 |
87 |
यौगिक चमत्कार |
656 |
88 |
इकतारे का गवैया |
665 |
89 |
शुद्धि का चक्र |
671 |
90 |
संगठन का बिगुल |
673 |
91 |
यति जी और संन्यास |
676 |
92 |
संत कृपालु देव |
679 |
खंड सातवां- संत कृपालुदेव |
||
93 |
गुरु के साथ कश्मीर को |
683 |
94 |
अखिल भारत तीर्थ-यात्रा |
691 |
95 |
कैलाश दर्शन |
706 |
96 |
मानसरोवर से नेपाल |
715 |
97 |
जीवन मुक्त गीता |
721 |
98 |
वेदान्त सुधा |
735 |
99 |
विश्व-ज्ञान मन्दिर |
744 |
100 |
हिन्दू नवजीवन सम्मेलन |
756 |
101 |
उपसंहार |
756 |
जीवन संध्या की ओर |
763 |
संत दर्शन
विश्व प्रसिद्ध दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट का मुख्यालय कनखल स्थित कृपालु बाग आश्रम में अवस्थित है । कृपालु बाग आश्रम की स्थापना सन् 1932 में श्री स्वामी कृपालुदेव जी महाराज ने की थी, जो मूलत: वीरभूमि मेवाड़ (राजस्थान) के थे और उनका संन्यास से पूर्व का नाम यति किशोरचंद था । स्वाधीनता आदोलन में यति किशोरचंद जी ने एक सक्रिय क्रांतिकारी की सफल भूमिका निभाई । गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के संस्थापक स्वामी श्रद्धानंद जी से उनके मधुर एवं घनिष्ठ संबंध रहे । बाद में बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी, चितरंजन दास, गणेश शंकर विद्यार्थी, वी.जे. पटेल, हकीम अजमल खां के गहन संपर्क में आए ।
यति किशोरचंद जी ने 'बंगविप्लव' दल से जुड़ कर इसके द्वारा निकाले गए 'युगांतर' और 'लोकांतर' पत्रों को उत्तर भारत में प्रसारित करने का जोखिम भरा दायित्व संभाला । 'बंगविप्लव' दल ने दिल्ली से लार्ड हार्डिंग बम-कांड को अंजाम दिया, जिसके नायक रासबिहारी बोस थे । उनको हरिद्वार में शरण देने का दायित्व यति किशोरचंद को सौंपा गया था । रासबिहारी बोस पर ब्रिटिश सरकार ने उस जमाने में तीन लाख रुपयों का इनाम रखा हुआ था । यति किशोरचंद ने उनको जंगल के बीच स्थित अपने आश्रम में रखा ।
स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिकारी का जीवन जीने वाले यति किशोरचंद जी की योग एवं अध्यात्म में रुचि प्रशस्त हुई और वे एक सिद्ध योगी बने । सन् 1968 में वे इस संसार को अलविदा कह गए ।
क्रांति, योग साधना और अध्यात्म की पुण्यभूमि कृपालु बाग आश्रम का संचालन कार्य महाराज जी के शिष्यों ने संभाला । इसी परंपरा की एक कड़ी श्री स्वामी शंकरदेव जी हैं जिनके योग्य शिष्य श्री स्वामी रामदेव जी महाराज ने इस आश्रम को योग, आयुर्वेद, वैदिक संस्कृति की दिव्य ज्योति से समुज्जवल कर इसे देश-विदेश में, लोकमानस में, दिग्-दिगंत में विख्यात कर दिया है ।
ऐसे प्रसिद्ध तपस्वी संत का जीवन चरित्र निश्चय ही भारतीय जनमानस में योग और अध्यात्म के प्रति एक नई चेतना की जागृति के लिए सहायक सिद्ध होगा ।
आचार्य बालकृष्ण
पुरोवाक्
पूज्यपाद स्वामी रामदेव जी महाराज की कर्म-भूमि कृपालु बाग आश्रम, कनखल की स्थापना अपने युग की दिव्य विभूति संत शिरोमणि श्री स्वामी कृपालुदेव जी महाराज ने सन् 1932 में की थी। कृपालुदेव जी महाराज के बहु-आयामी व्यक्तित्व के अनुरूप ही इस आश्रम से संचालित गतिविधियां भी बहु-आयामी रही है। महाराजश्री मूलत : वैरागी, फक्कड़ और अध्यात्मवादी संत थे। लेकिन देश, धर्म, संस्कृति के प्रति भी उनका गहरा अनुराग था । गंगा, गीता और गौ के प्रति भी उनकी अद्भुत अनुरक्ति थी । उनका जीवन परमात्मा को समर्पित था अत : ईश्वरीय निष्ठा की अतल गहराईयों में उतर कर वे अपने जीवन को स्वत: खतरों में जानबूझ कर डाल देते थे । इन अद्भूत चमत्कारों से उनका जीवन भरा पड़ा है । वे पुत्रैषणा, वित्तैषणा लोकैषणा से ऊपर उठे हुए संत थे अत: उन्होंने कभी अपने आपको आत्म-प्रचारित करने की चेष्टा नहीं की । यद्यपि उनकी रुचि योग साधना में थी लेकिन फिर भी हम उनको शिक्षा संस्थाओं का निर्माण करते हुए, पुस्तकालय का संचालन करते हुए 'विश्व-ज्ञान' पत्रिका का प्रकाशन करते हुए, गद्य और पद्य में रचना करते हुए, गोरक्षा आन्दोलन में भाग लेते हुए, साम्प्रदायिकता के विरुद्ध लड़ते हुए तथा स्वाधीनता संग्राम में योगदान करते करते हुए देखते हैं । उनका यह जीवन-वृत्त अद्भुत एवं रोमांचकारी तो है ही इसके साथ-साथ प्रेरणादायी भी है।
उनके इस मनोहारी जीवन को आज से लगभग 65 वर्ष पूर्व महाराजश्री के अनन्य भक्त पं. श्यामजी पाराशर, एम.ए. ने लिपिबद्ध करके विक्रमी सम्वत् 1996 (मार्च 1940 ई.) में माता शिव देवी स्मारक निधि में आठवें पुष्प के रूप में राष्ट्र निर्माण ग्रंथ माला, करौल बाग दिल्ली की ओर से प्रकाशित कराया था । प्रथम संस्करण दो हजार प्रतियों का छपा था जो हाथों हाथ वितरित हो गया । जाहिर है कि उनके भक्तों की संख्या हजारों में थी । इस ग्रंथ रत्न की एक ही प्रति महाराजश्री के पट्ट शिष्य और कृपालु बाग आश्रम के वर्तमान संचालक परम श्रद्धेय स्वामी शंकर देव जी के पास उपलब्ध थी । लेकिन जब इस ग्रंथ को प्रकाशित करने का विचार दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट ने किया तो इस प्रति को भी कोई अज्ञातनामा व्यक्ति ले जा चुका था । 'योग संदेश' के प्रबंध सम्पादक डॉ. सुरेन्द सिंह कादियाण भी इस कार्य में विशेष रुचि ले रहे थे । उन्होंने इस पुस्तक को हरिद्वार स्थित अनेक पुस्तकालयों में तलाशा लेकिन विफल मनोरथ रहे। एक दिन आश्रम में अचानक ही उनकी भेंट कृपालुदेव महाराज के शिष्य लेहरूलाल पालीवाल, महावीर कॉलोनी, बड़गाँव, बेदला रोड, उदयपुर से हुई । उनसे चर्चा करते हुए 'मालूम हुआ कि कृपालुदेव महाराज के जीवन चरित्र की एक प्रति उनके पास है । डॉ. सुरेन्द्र के आग्रह पर उन्होंने यह प्रति आश्रम में भेज दी और डायमंड पॉकेट बुक्स ने इसे कम्प्यूटर पर टाइप किया । जब इसके पूफ्र देखे जाने लगे तो न जाने किसकी लापरवाही से यह प्रति भी गुम हो गई । चूँकि इस प्रति के एकाध अध्याय फटे हुए थे और कहीं-कहीं कागज फटा होने से मैटर अधूरा था इसलिए भी व्यवधान पड़ा । इस स्थिति के कारण पुस्तक प्रकाशन में अनावश्यक विलम्ब होता रहा । डॉ. सुरेन्द्र कादियाण ने जब अपनी समस्या सत्यधर्म प्रकाशन रोहिणी, दिल्ली के संस्थापक आदरणीय आचार्य सत्यानन्द जी नैष्ठिक के समक्ष रखी तो उन्होंने संकेत दिया कि इस पुस्तक की एक प्रति उनके संग्रह में है । अंतत: सत्यानन्द जी नैष्ठिक के सौजन्य से प्राप्त प्रति के आधार पर यह ग्रंथ रत्न प्रकाशित करने की स्थिति में पहुंचा । एतदर्थ उनका विशेष धन्यवाद है । श्री लेहरुलाल पालीवाल तो धन्यवाद के पात्र हैं ही ।
अड़चनों के बावजूद प्रभु-कृपा से यह ग्रंथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें अतीव आत्मिक आनन्द महसूस हो रहा है । दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट को अपनी गतिविधियां चलाने के लिए स्वामी शंकरदेव जी ने कृपालुबाग आश्रम में हमें जो आश्रय दिया था उसके लिए हम संत आत्मा कृपालुदेव जी के ऋणी थे । इस पुस्तक के प्रकाशन से हम एक सीमा तक इस ऋण से अपने को अगा हुआ महसूस करते हैं। दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट भी उसी देव संस्कृति का प्रचारक-प्रसारक है जिसके लिए कृपालुदेव जी महाराज आजीवन प्रयासरत रहे थे । महाराजश्री ने योग की जिस धारा का आलम्बन किया था उसी को पूज्यपाद स्वामी रामदेव जी के सान्निध्य में दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट पूरे भारत में ही नही बल्कि अखिल विश्व में फैला चुका है । आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को लोकप्रिय बना कर दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट स्वदेशी का पाठ भारतीय जनमानस को पढ़ा रहा है । महाराजश्री राजनीतिक पराधीनता की बेड़िया काटने के लिए स्वाधीनता संग्राम में कूदे थे तो दिव्य योग मदिर ट्रस्ट सांस्कृतिक और आर्थिक स्वाधीनता के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से संघर्षरत है । निश्चय ही हम इस देवासुर संग्राम में विजयश्री प्राप्त करेंगे क्योंकि हमारा यह संघर्ष संत कृपालुदेव महाराज सरीखी योग- आत्मा की पुण्य-भूमि से शुरू हुआ है जिससे हमें निरन्तर आत्म-प्रेरणा और आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती रही है ।
इस ग्रंथ रत्न ने हजारों पाठकों का दृष्टिकोण और जीवन बदल कर रख दिया थी जिसकी साक्षी कृपालुदेव 'महाराज की शिष्य परम्परा आज भी दे रही है । श्यामजी पाराशर एक सिद्धहस्त लेखक थे । उन्होंने यह ग्रंथ महाराजश्री के सान्निध्य में बैठकर भक्ति भाव से लिखा था जिसका अपना अलग ही प्रभाव है । दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट आशा रखता है कि वर्षो से अनुपलब्ध इस ग्रंथ रत्न को पढ़कर पाठक वृन्द अपने को धन्य महसूस करेगा क्योंकि प्रभुभक्ति, योग, साधना, अध्यात्म, देशभक्ति, जनसेवा, धर्म, संस्कृति, मानवता आदि सबका इसमें मधुर मिश्रण है ।
इस सद्ग्रंथ के पुन: प्रकाशन में सहयोगी रहे सभी महानुभावों के प्रति मैं दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट की ओर से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं और आशा रखता हूं कि एक बार फिर यह ग्रंथ लोकप्रियता की अपनी बुलंदी को स्पर्श करता हुआ अपने हजारों पाठकों को दिशाबोध देने में सफल होगा ।
भूमिका
बद्ध दास्ता के बंधन में पड़े करोड़ों भाई बंधा।
लेने जाते हो एकाकी कौन मुक्ति का तुम आनंद ॥
सन्त राष्ट्र की विभूति हैं और सन्तों का जीवन राष्ट्र की अमर सम्पत्ति है । इस विशाल संसार सागर की तरंगों के संघर्ष पर डगमगा रहे अनेक पथ-प्रान्त मानव-पोतों के लिए महात्माओं का चरित्र एक ज्योति-स्तम्भ (Light-Tower) है । जब-जब भी शस्य श्यामला भारत वशुन्धरा शत्रुओं के अत्याचार से आकुल हो उठी जब-जब भी गौ-ब्राह्मण का जीवन संकटमय हुआ, उसी-उसी समय राष्ट्र के सूत्रधार सच्चे साधु, महात्मा कर्मयोग की कृपाण हाथ में लेकर मातृ-भूमि की आपदाओं का नाश करने के लिए आगे बड़े । जब तक सूर्य और चन्द्र गगन में विहार करते हैं, तब तक पतित पावनी भगवती भागीरथी की निर्मल धारा भारत जननी के कण्ठ को अलंकृत कर रही है । जब तक भारत का वह महान् संतरी हिमालय जननी जन्म-भूमि की गौरवान्वित पताका को कंचनझंगा के उच्चतम शिखर पर फहरा रहा है और जब तक महान् विशालकाय वरुण देव निरन्तर माँ भारती के चरणों का प्रक्षालण कर रहे हैं तब तक भारतीय इतिहास के अगस्त्य, विश्वामित्र, परशुराम, बुद्ध, शंकर, महावीर, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, समर्थ गुरु रामदास गुरुतेग बहादुर, गुरु गोविन्द सिंह, ऋषि दयानन्द तथा महात्मा गांधी को कौन भूल सकता है।
सन्त जन ही वैदिक संस्कृति का आधार रूप हैं । विगत एक सहस्र वर्षों के गजनवी, नादिरशाही और गोराशाही आक्रमणों को निरन्तर सहन करता हुआ भी आज यह भारतीय प्रासाद इन...
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
के भगवद् वाक्य के अनुसार समय-समय पर स्तम्भ रूप बन कर भारतीय प्रासाद की छत को गिरने से बचाने वाले कतिपय सन्त महात्माओं के सदुद्योग के पुण्य प्रताप से ही अपने अस्तित्व को बनाये हुए है ।
अस्तु! यदि हम राष्ट्र की सोई हुई आत्मा को जगाना चाहते है-यदि हम भारत-वसु-धरा के करोड़ों बच्चों को निर्धनता दासता पराधीनता के प्रबल पाशों से मुक्ति दिलाना चाहते हैं और यदि हम स्वयं अपना अथवा अपनी सन्तान का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहते हैं, तो हम को सन्तों के जीवन का ध्यानपूर्वक मनन कर तदनुसार ही अपनी जीवन नैया को खेना पड़ेगा ।
राष्ट्र-निर्माण कथ माला के पाठकों की सेवा में मैं आज अपना आठवां पुष्प भेंट कर रहा हूं । जिस प्रकार मेरे भारत-सन्देश, जवाहर-दिग्विजय, भारत में स्वर्ग इत्यादि कथों का जनता ने मान किया है, मैं आशा करता हूं, इस मेरे सन्त-दर्शन का भी पाठक-गण उसी प्रकार स्वागत करेंगे ।
इस कथ में मैने एक महात्मा का जीवन-चरित्र लिखा है । दो वर्ष पूर्व पिछले कुम्भ- अवसर पर सर्वप्रथम मुझे इन महात्मा के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । कुम्भ-अवसर पर महाशय खुशहालचन्द खुर्सन्द (महात्मा आनन्द स्वामी) के प्रधानत्व में जिस हिन्दू-नवजीवन कांफ्रेन्स का विशाल आयोजन किया गया था; वह सब इन्हीं महात्मा के अथक परिश्रम का फल था । आप उस कांफ्रेन्स के स्वागताध्यक्ष थे । उन्हीं दिनों मुझे भी आपके निकट सम्पर्क में कई दिन तक रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मेरे बहुत से इष्ट मित्रों ने मुझे इन्हीं महात्मा के जीवन सम्बन्धी बड़ी ही विचित्र तथा शिक्षाप्रद घटनाएं सुनाईं । आपकी जीवन-कथा को सुन कर मैंने अनुभव किया कि यदि इस जीवन-कथा को राष्ट्र निर्माण मथ माला की ओर से देश के नवयुवकों तक पहुंचाया जाए तो सचमुच देश और जाति का बड़ा ही उपकार होगा । इसी आशा से मैंने इस कथ को प्रकाशित कराने का साहस किया है ।
सन्त-दर्शन के नायक के जीवन के एक-एक अक्षर में आदरणीय पाठकों को निष्काम कर्मयोग की प्रतिभा दिखाई देगी । जिस जीवनशक्ति को प्राप्त करने के लिए उनकी आत्मा प्रतिक्षण तड़पा करती है, उसी शक्ति को इस सन्त-दर्शन की पंक्तियों पर बिखरी देख कर पाठक अपने आप को सौभाग्यवान समझेंगे । "भक्त प्रह्लाद जैसी उत्कट भक्ति भावना, भक्त ध्रुव जैसी भक्ति दृढ़ता, बलवीर शाकुन्तल जैसी निर्भयता, राम जैसा साहस, कृष्ण जैसी नीति, बुद्ध जैसा त्याग, महावीर जैसा धर्म साधन शंकर जैसी विद्वता, गुरु नानकदेव जैसी सहनशीलता, समर्थ गुरु रामदास जैसी धर्म वीरता, वैरागी जैसा आत्म विश्वास, ऋषि दयानन्द जैसा ब्रह्मचर्य छत्रपति शिवाजी महाराज जैसी देशभक्त, महाराणा प्रताप जैसा स्वदेशाभिमान गुरु गोविंद सिंह जैसी बलिदान भावना, राष्टूरथी जवाहर जैसी लोकप्रियता, से-गांव के सन्त जैसी निर्मलता । "कदम-कदम पर उनके निराशापूर्ण जीवन पथ पर आशा का मीनार वन कर खड़ी रहेगी ।
द्वितीय विश्व-युद्ध की महंगाई के कारण प्रकाशकों ने जिस अर्थ संकट को धैर्य से सहते हुए ग्रन्थ को प्रकाशित किया है, इसके लिए उनका धन्यवाद है । मैंने भी अपना कर्तव्य पालन करने में कोई त्रुटि नहीं रखी यदि भूले से कोई त्रुटि रह भी गई हो तो पाठकगण उसके लिए मुझे क्षमा करेंगे ।
अनुक्रमणिका |
||
अध्याय |
खंड पहला-वीर बालक |
पृष्ठ |
1 |
वीर भूमि मेवाड़ |
21 |
2 |
अनुपम फूल |
25 |
3 |
विचित्र बालक |
31 |
4 |
फूलकुंवर |
37 |
5 |
होनहार बालक |
40 |
6 |
नाकू के पेट में |
44 |
7 |
बंधु वियोग |
49 |
8 |
पथ-भ्रान्त पथिक |
53 |
9 |
कृष्ण बलदेव की जोड़ी |
59 |
10 |
बेदला में विद्याध्यन |
65 |
11 |
काशी की धुन |
70 |
12 |
फिर काशी की और |
74 |
13 |
बाबा विश्वनाथ की नगरी में |
81 |
14 |
एक स्वप्न |
84 |
15 |
काशी से हरिद्वार पैदल |
88 |
खंड दूसरा- उत्तराखंड के पथ पर |
||
16 |
डाकुओं के शिविर में |
97 |
17 |
गुप्त गुफा की रहस्यपूर्ण लीला |
104 |
18 |
शिवालय के अवधूत साधु |
109 |
19 |
अघोरियों का भैरवी चक्र |
113 |
20 |
सन्त-समागम |
122 |
21 |
हरिद्वार में |
127 |
22 |
हरिद्वार में प्रथम दिवस |
129 |
23 |
फूलकुंवर से नन्दकिशोर |
132 |
खंड तीसरा- ब्रह्मचारी |
||
24 |
ब्रह्मचारी नन्दकिशोर |
139 |
25 |
देश सेवा के पथ पर |
149 |
26 |
परीक्षा की कसौटी पर |
161 |
27 |
कोढ़ी का उद्धार |
174 |
28 |
पूर्व जन्म के घर की याद |
180 |
29 |
परीक्षा की दूसरी अग्नि में |
185 |
30 |
इन्द्र-शक्ति का विकास |
195 |
31 |
प्रभु के चरणों में |
203 |
32 |
तारक मंत्र माहात्म्य |
218 |
33 |
राजाओं से भेंट |
230 |
34 |
इकलिंग की याद |
232 |
35 |
प्रेम का दीवानापन |
238 |
खंड चौथा- यति किशोरचन्द्र |
||
36 |
यति किशोरचन्द्र |
249 |
37 |
प्रेम पुजारी |
254 |
38 |
अपने प्रभु की गोद में |
261 |
39 |
न इस पार. न उस पार |
265 |
40 |
अनंत के पथ पर |
274 |
41 |
शिवलोक तथा स्वर्गलोक का यात्री |
278 |
42 |
नीलकंठ का विचित्र साधु |
282 |
43 |
पहाड़ की परियां |
288 |
44 |
सिद्धस्रोत की यात्रा |
292 |
45 |
अयोध्या का राजा |
298 |
46 |
शाकुंभर देवी की यात्रा |
302 |
47 |
एक हमदर्द कुत्ता |
311 |
48 |
नील पर्वत पर महाल की माखी |
318 |
49 |
दक्ष घाट पर अभूतपूर्व दृश्य |
322 |
50 |
बाबा सिद्धनाथ के दर्शन |
328 |
51 |
फकीरों की टोली में |
335 |
खंड पांचवां- स्वाधीनता का पुजारी |
||
52 |
लोकमान्य तिलक से भेंट |
343 |
53 |
आनंद-सेवक पश्व |
349 |
54 |
कुम्भ का स्वयं-सेवक |
364 |
55 |
प्रकृति का उपासक |
375 |
56 |
स्वराज्य का पहला झंडा |
383 |
57 |
युगान्तर और लोकान्तर |
388 |
58 |
सी. आई.डी. की दुर्गति |
400 |
59 |
लार्ड हार्डिंग पर बम |
408 |
60 |
तीन लाख पर लात |
416 |
61 |
रास बिहारी के साथ बनारस में |
425 |
62 |
गिरी रूपी राहू |
429 |
63 |
भारती जी का ऋण |
436 |
64 |
शहीदों का खून |
445 |
65 |
अमृतसर कांग्रेस |
449 |
66 |
कटारपुर केस |
453 |
67 |
गो- भक्तों की रक्षा |
462 |
68 |
धर्म युद्ध का वीर सैनिक |
470 |
69 |
सुजानपुर का अभूतपूर्व दृश्य |
489 |
70 |
मुल्ला के वेश में |
503 |
71 |
अनेक ग्रंथों के रचयिता |
515 |
72 |
गांधी की आधी में |
521 |
73 |
दहकती हुई होली में |
529 |
74 |
आदर्श देशभक्त |
533 |
75 |
स्वाभिमान की मूर्ति |
538 |
76 |
महात्मा हंसराज जी को लायब्रेरी भेट |
548 |
खंड छठा- कल्याण मार्ग के पथिक |
||
77 |
यति जी की नाग कुटी |
553 |
78 |
एक योगी की अद्भुत लीला |
557 |
79 |
सन्त-दर्शन |
571 |
80 |
अध्यात्म धारा |
579 |
81 |
योग की गूढ़ गुत्थियां |
588 |
82 |
मृत्यु का स्वरूप |
600 |
83 |
सात्विक भावना का फल |
614 |
84 |
ओ३म् धुन में दो बालऋषि |
618 |
85 |
सन्तों की अमृत वाणी |
621 |
86 |
मोनी की नदी में केहरी |
649 |
87 |
यौगिक चमत्कार |
656 |
88 |
इकतारे का गवैया |
665 |
89 |
शुद्धि का चक्र |
671 |
90 |
संगठन का बिगुल |
673 |
91 |
यति जी और संन्यास |
676 |
92 |
संत कृपालु देव |
679 |
खंड सातवां- संत कृपालुदेव |
||
93 |
गुरु के साथ कश्मीर को |
683 |
94 |
अखिल भारत तीर्थ-यात्रा |
691 |
95 |
कैलाश दर्शन |
706 |
96 |
मानसरोवर से नेपाल |
715 |
97 |
जीवन मुक्त गीता |
721 |
98 |
वेदान्त सुधा |
735 |
99 |
विश्व-ज्ञान मन्दिर |
744 |
100 |
हिन्दू नवजीवन सम्मेलन |
756 |
101 |
उपसंहार |
756 |
जीवन संध्या की ओर |
763 |