पुस्तक के बारे में
यह पुस्तक आंख वाले व्यक्ति की बात है। किसी सोच विचार से, किसी कल्पना से, मन के किसी खेल से इसका जन्म नहीं हुआ; बल्कि जन्म ही इस तरह की वाणी का तब होता है, जब मन पूरी तरह शांत गया हो। और मन के शांत होने का एक ही अर्थ है कि मन जब होता ही नहीं। क्योंकि मन जब भी होता है, अशांत ही होता है।
ब्लावट्स्की की यह पुस्तक समाधि के सप्त द्वार वेद, बाइबिल, कुरान महावीर बुद्ध के वचन की हैसियत की है। मैंने इस पुस्तक को जान कर चुना। क्योंकि इधार दो सौ वर्षां में ऐसी न के बराबर पुस्तकें हैं, जिनकी हैसियत वेद, कुरान और बाइबिल की हो। इन थोड़ी दो चार पुस्तकों में यह पुस्तक के समाधि के सप्त द्वार।और यह पुस्तक आपके लिए जीवन की आमूल क्रांति सिद्ध हो सकती है।
इस पुस्तक का किसी धर्म से भी कोई संबंध नहीं है इसलिए भी मैंने चुना है न यह हिंदू है, न यह मुसलमान है, न यह ईसाई है। यह पुस्तक शुद्ध धर्म की पुस्तक है।
ब्लावट्स्की की यह किताब साधारण नहीं है। उसने इसे लिखा नहीं, उसने सुना और देखा है। यह उसकी कृति नहीं है, वरन आकाश में जो अनंत अनंत बुद्धों की छाप छूट गई है, उसका प्रतिबिंब है।
तिब्बत में एक शब्द है: तुलकू। ब्लावट्स्की को भी तिब्बत में तुलकू ही कहा जाता है। तुलकू का अर्थ होता है, ऐसा कोई व्यक्ति जो किसी बोधिसत्व उसके द्वारा काम कर सके। ब्लावट्सकी तुलकू बन सकी। स्त्री थी इसलिए आसानी से बन सकी; समर्पित। जो लोग ब्लावट्स्की के पास रहते थे, वे लोग बड़े चकित होते थे। जब वह लिखने बैठती थी, तो आविष्ट होती थी, पजेस्ड होती थी। लिखते वक्त उसके चेहरे का रंग-रूप बदल जाता था।
आंखे किसी और लोक में चढ़ जाती थी। और जब वह लिखने बैठती थी तो कभी दस घंटे, कभी बारह घंटे लिखती ही चली जाती थी। पागल की तरह लिखती थी। कभी काटती नहीं थी, जो लिखा था उसको।
यह कभी कभी होता था। जब वह खुद लिखती थी, तब उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। तो उसके संगी-साथी उससे पूछते थे: यह क्या होता है? तो वह कहती थी कि जब मैं तुलकू की हालत में होती हूं तब मुझसे कोई लिखवाता है। थियोसाफी में उनको मास्टर्स कहा गया है। कोई सद्गुरु लिखवाता है, मैं नहीं लिखती, मेरे हाथ किसी के हाथ बन जाते है, कोई मुझमें आविष्ट हो जाता है और तब लिखना शुरू हो जाता है। तब मैं अपने वश में नहीं होती; मैं सिर्फ वाहन होती हूं। यह पुस्तक भी ऐेसे ही वाहन की अवस्था में उपलब्ध हुई है।
कभी कभी ऐसा होता था कि कुछ लिखा जाता था और उसके बाद महीनों तक वह अधूरा ही पड़ा रहता था। ब्लावट्स्की के संगी साथी कहते है कि वह पूरा कर डालो जो अधूरा पड़ा है। वह कहती कि कोई उपाय नहीं है पूरा करने का, क्योंकि मैं करूं तो सब खतरा हो जाए; जब मैं फिर आविष्ट हो जाऊंगी, तब पूरा हो जाएगा। उसकी कुछ किताबें अधुरी ही छूट गई हैं, क्योंकि जब कोई बोधिसत्व चेतना उसे पकड़ ले, तभी लिखना हो सकता है।
प्रवेश से पूर्व
मनुष्य के जीवन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वह है समय । समय-जो दिखाई भी नहीं पड़ता । समय-जिसकी कोई परिभाषा भी नहीं की जा सकती । समय-जो हमें जन्म से लेकर मृत्यु तक घेरे हुए है, वैसे जैसे मछली को सागर घेरे हुए है । लेकिन न जिसका हमे कोई स्पर्श होता है, न जो हमें दिखाई पडता है, न हम जिसका कोई स्वाद ले सकते है- हम निरंतर उसकी बात करते हैं । और कहीं गहरे में कुछ अनुभव भी होता है कि वह है । लेकिन जैसे ही पकड़ने जाते है परिभाषा में, हाथ से छूट जाता है ।
संत अगस्तीन ने कहा है कि समय बड़ा अदभुत है । जब मुझसे कोई पूछता नहीं, तो मै जानता हूं कि समय क्या है, और जब मुझसे कोई पूछता है, तभी मै मुश्किल में पड जाता हूं । आप भी जानते हैं कि समय क्या है, लेकिन कोई अगर पूछे कि समय क्या हे, तो आप मुश्किल में पड जाएंगे ।
क्या है समय, आप ही मुश्किल में पड़ जाएंगे । ऐसा नहीं है, बड़े-बड़े चिंतक, विचारक, दार्शनिक भी समय के संबंध में उलझन से भरे रहे है । अब तो विज्ञान भी समय के संबंध में चिंता से भर गया है कि समय क्या है।जो-जो सिद्धांत समय के लिए प्रस्तावित किए जाते हैं, उनसे कोई से भी कोई हल नहीं होता ।
कुछ बातें समझनी जरूरी है । क्यों इतनी उलझन है समय के साथ त्र क्या कारण होगा कि हम समय को अनुभव करते हैं, नहीं भी करते है?क्या कारण होगा कि प्रकट रूप से समय हमारी समझ में नहीं आता है।
पहली बात, मछली को भी सागर समझ में नहीं आता है; जब तक मछली को सागर के किनारे कोई उठा कर न फेक दे, तब तक सागर का पता भी नहीं चलता है । सागर में ही मछली पैदा हो और सागर में ही मर जाए, तो उसे कभी पता नहीं चलेगा कि सागर क्या था । क्योंकि जिसे जानना है, उससे थोड़ी दूरी चाहिए । जिसमें हम घिरे हों, उसे जाना नहीं जा सकता । ज्ञान के लिए फासला चाहिए । फासला न हो तो शान नहीं हो सकता । तो मछली को अगर कोई सागर के किनारे मछुआ
पकड़ कर डाल दे रेत मे, तब उसे पहली दफा पता चलता है कि सागर क्या था । सागर के बाहरहोकर पता चलता है कि सागर क्या था । जब सागर नहीं होता है तब पता चलता है कि सागर क्या था! नकार से पता चलता है कि विधेय क्या था! न-होने से पता चलता है कि होना क्या था! रेत पर जब मछली तड़फती है, तब उस तड़फन में उसे पता चलता है कि सागर मेरा जीवन था! सागर मुझे घेरे था, सागर के कारण ही मैं थी, और सागर के बिना मैं न हो सकूंगी!
समय भी ऐसे ही मनुष्य को घेरे हुए है । और जटिलता थोड़ी ज्यादा है । सागर के किनारे तो फेंकी जा सकती है मछली, समय के किनारे फेंकना इतना आसान नहीं है । और मछली को तो कोई दूसरा मछुआ सागर के किनारे फेक सकता है रेत मे, आपको कोई दूसरा आदमी समय के किनारे रेत में नहीं फेंक सकता । आप ही चाहें तो फेंक सकते हैं । मछली खुद ही छलांग ले ले, तो ही किनारे पर पहुंच सकती हें । ध्यान समय के बाहर छलांग हें । इसलिए ध्यानियों ने कहा है : ध्यान है कालातीत, बियांड टाइम । ध्यानियो ने कहा है जहां समय मिट जाता है, वहां समझना कि समाधि आ गई । जहां समय का कोई भी पता नहीं चलता, जहा न कोई अतीत है, न कोई भविष्य, न कोई वर्तमान; जहां समय की धारा नहीं है, जहां समय ठहर गया, टाइमलेस मोमेंट, समय-रहित क्षण आ गया-तब समझना कि ध्यान हो गया । ध्यान और समय विपरीत है । अगर समय है सागर, तो ध्यान सागर से छलांग है । और जटिलता है । और वह जटिलता यह है कि मछली सागर के बाहर तड़फती है, सागर में उसका जीवन है । और हम समय में तड़फते है, और समय के बाहर हमारा जीवन है । हम समय में तड़फते ही रहते है । समय के भीतर कोई आदमी तड़फन से मुक्त नहीं होता । समय के भीतर दुख अनिवार्य है ।
समय में रहते हुए पीड़ा के बाहर जाने का कोई उपाय ही नही है । हां, एक उपाय है, वह धोखा है । और वह है बेहोश हो जाना । बेहोश होकर हम समय भूल जाते हैं, समय के बाहर नहीं होते है । जैसे मछली को कोई बेहोशी का इंजेक्शन दे दे, रहे सागर मे ही, लेकिन सागर के बाहर जैसी हो जाएगी, क्योंकि बेहोश हो जाएगी । जिसका बोध ही नही है, उसके हम बाहर मालूम पड़ते है ।
समय के भीतर जितनी पीड़ाएं है, उनका हल बेहोशी है । इसलिए नाराज मत होना लोगों पर, अगर कोई शराब पी रहा है । वह भी ध्यान की तलाश कर रहा है । कोई और मादकता में डूब रहा है-कोई संगीत में, कोई नृत्य में । कोई कामवासना में लीन हो रहा है-वह भी मूर्च्छा खोज रहा है । वह यह कोशिश कर रहा है कि यह जो समय की पीड़ा का सागर है, इसके बाहर कैसे हो जाऊं?
अनुक्रम |
||
1 |
स्रोतापत्र बन |
9 |
2 |
प्रथम दर्शन |
23 |
3 |
सम्यक दर्शन |
41 |
4 |
सम्यक जीवन |
61 |
5 |
प्रवेश द्वार |
81 |
6 |
क्षांति |
97 |
7 |
घातक छाया |
119 |
8 |
अस्तित्व से तादात्म्य |
139 |
9 |
स्वामी बन |
159 |
10 |
आगे बढ़ |
181 |
11 |
मन के पार |
201 |
12 |
सावधान! |
221 |
13 |
समय और तू |
241 |
14 |
तितिक्षा |
259 |
15 |
बोधिसत्व बन! |
277 |
16 |
ऐसा है आर्य मार्ग |
295 |
17 |
प्राणिमात्र के लिए शांति |
309 |
पारिभाषिक शब्दावली के अर्थ |
323 |
|
ओशो- एक परिचय |
329 |
|
ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट |
330 |
|
ओशो का हिंदी साहित्य |
332 |
|
अधिक जानकारी के लिए |
337 |
पुस्तक के बारे में
यह पुस्तक आंख वाले व्यक्ति की बात है। किसी सोच विचार से, किसी कल्पना से, मन के किसी खेल से इसका जन्म नहीं हुआ; बल्कि जन्म ही इस तरह की वाणी का तब होता है, जब मन पूरी तरह शांत गया हो। और मन के शांत होने का एक ही अर्थ है कि मन जब होता ही नहीं। क्योंकि मन जब भी होता है, अशांत ही होता है।
ब्लावट्स्की की यह पुस्तक समाधि के सप्त द्वार वेद, बाइबिल, कुरान महावीर बुद्ध के वचन की हैसियत की है। मैंने इस पुस्तक को जान कर चुना। क्योंकि इधार दो सौ वर्षां में ऐसी न के बराबर पुस्तकें हैं, जिनकी हैसियत वेद, कुरान और बाइबिल की हो। इन थोड़ी दो चार पुस्तकों में यह पुस्तक के समाधि के सप्त द्वार।और यह पुस्तक आपके लिए जीवन की आमूल क्रांति सिद्ध हो सकती है।
इस पुस्तक का किसी धर्म से भी कोई संबंध नहीं है इसलिए भी मैंने चुना है न यह हिंदू है, न यह मुसलमान है, न यह ईसाई है। यह पुस्तक शुद्ध धर्म की पुस्तक है।
ब्लावट्स्की की यह किताब साधारण नहीं है। उसने इसे लिखा नहीं, उसने सुना और देखा है। यह उसकी कृति नहीं है, वरन आकाश में जो अनंत अनंत बुद्धों की छाप छूट गई है, उसका प्रतिबिंब है।
तिब्बत में एक शब्द है: तुलकू। ब्लावट्स्की को भी तिब्बत में तुलकू ही कहा जाता है। तुलकू का अर्थ होता है, ऐसा कोई व्यक्ति जो किसी बोधिसत्व उसके द्वारा काम कर सके। ब्लावट्सकी तुलकू बन सकी। स्त्री थी इसलिए आसानी से बन सकी; समर्पित। जो लोग ब्लावट्स्की के पास रहते थे, वे लोग बड़े चकित होते थे। जब वह लिखने बैठती थी, तो आविष्ट होती थी, पजेस्ड होती थी। लिखते वक्त उसके चेहरे का रंग-रूप बदल जाता था।
आंखे किसी और लोक में चढ़ जाती थी। और जब वह लिखने बैठती थी तो कभी दस घंटे, कभी बारह घंटे लिखती ही चली जाती थी। पागल की तरह लिखती थी। कभी काटती नहीं थी, जो लिखा था उसको।
यह कभी कभी होता था। जब वह खुद लिखती थी, तब उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। तो उसके संगी-साथी उससे पूछते थे: यह क्या होता है? तो वह कहती थी कि जब मैं तुलकू की हालत में होती हूं तब मुझसे कोई लिखवाता है। थियोसाफी में उनको मास्टर्स कहा गया है। कोई सद्गुरु लिखवाता है, मैं नहीं लिखती, मेरे हाथ किसी के हाथ बन जाते है, कोई मुझमें आविष्ट हो जाता है और तब लिखना शुरू हो जाता है। तब मैं अपने वश में नहीं होती; मैं सिर्फ वाहन होती हूं। यह पुस्तक भी ऐेसे ही वाहन की अवस्था में उपलब्ध हुई है।
कभी कभी ऐसा होता था कि कुछ लिखा जाता था और उसके बाद महीनों तक वह अधूरा ही पड़ा रहता था। ब्लावट्स्की के संगी साथी कहते है कि वह पूरा कर डालो जो अधूरा पड़ा है। वह कहती कि कोई उपाय नहीं है पूरा करने का, क्योंकि मैं करूं तो सब खतरा हो जाए; जब मैं फिर आविष्ट हो जाऊंगी, तब पूरा हो जाएगा। उसकी कुछ किताबें अधुरी ही छूट गई हैं, क्योंकि जब कोई बोधिसत्व चेतना उसे पकड़ ले, तभी लिखना हो सकता है।
प्रवेश से पूर्व
मनुष्य के जीवन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वह है समय । समय-जो दिखाई भी नहीं पड़ता । समय-जिसकी कोई परिभाषा भी नहीं की जा सकती । समय-जो हमें जन्म से लेकर मृत्यु तक घेरे हुए है, वैसे जैसे मछली को सागर घेरे हुए है । लेकिन न जिसका हमे कोई स्पर्श होता है, न जो हमें दिखाई पडता है, न हम जिसका कोई स्वाद ले सकते है- हम निरंतर उसकी बात करते हैं । और कहीं गहरे में कुछ अनुभव भी होता है कि वह है । लेकिन जैसे ही पकड़ने जाते है परिभाषा में, हाथ से छूट जाता है ।
संत अगस्तीन ने कहा है कि समय बड़ा अदभुत है । जब मुझसे कोई पूछता नहीं, तो मै जानता हूं कि समय क्या है, और जब मुझसे कोई पूछता है, तभी मै मुश्किल में पड जाता हूं । आप भी जानते हैं कि समय क्या है, लेकिन कोई अगर पूछे कि समय क्या हे, तो आप मुश्किल में पड जाएंगे ।
क्या है समय, आप ही मुश्किल में पड़ जाएंगे । ऐसा नहीं है, बड़े-बड़े चिंतक, विचारक, दार्शनिक भी समय के संबंध में उलझन से भरे रहे है । अब तो विज्ञान भी समय के संबंध में चिंता से भर गया है कि समय क्या है।जो-जो सिद्धांत समय के लिए प्रस्तावित किए जाते हैं, उनसे कोई से भी कोई हल नहीं होता ।
कुछ बातें समझनी जरूरी है । क्यों इतनी उलझन है समय के साथ त्र क्या कारण होगा कि हम समय को अनुभव करते हैं, नहीं भी करते है?क्या कारण होगा कि प्रकट रूप से समय हमारी समझ में नहीं आता है।
पहली बात, मछली को भी सागर समझ में नहीं आता है; जब तक मछली को सागर के किनारे कोई उठा कर न फेक दे, तब तक सागर का पता भी नहीं चलता है । सागर में ही मछली पैदा हो और सागर में ही मर जाए, तो उसे कभी पता नहीं चलेगा कि सागर क्या था । क्योंकि जिसे जानना है, उससे थोड़ी दूरी चाहिए । जिसमें हम घिरे हों, उसे जाना नहीं जा सकता । ज्ञान के लिए फासला चाहिए । फासला न हो तो शान नहीं हो सकता । तो मछली को अगर कोई सागर के किनारे मछुआ
पकड़ कर डाल दे रेत मे, तब उसे पहली दफा पता चलता है कि सागर क्या था । सागर के बाहरहोकर पता चलता है कि सागर क्या था । जब सागर नहीं होता है तब पता चलता है कि सागर क्या था! नकार से पता चलता है कि विधेय क्या था! न-होने से पता चलता है कि होना क्या था! रेत पर जब मछली तड़फती है, तब उस तड़फन में उसे पता चलता है कि सागर मेरा जीवन था! सागर मुझे घेरे था, सागर के कारण ही मैं थी, और सागर के बिना मैं न हो सकूंगी!
समय भी ऐसे ही मनुष्य को घेरे हुए है । और जटिलता थोड़ी ज्यादा है । सागर के किनारे तो फेंकी जा सकती है मछली, समय के किनारे फेंकना इतना आसान नहीं है । और मछली को तो कोई दूसरा मछुआ सागर के किनारे फेक सकता है रेत मे, आपको कोई दूसरा आदमी समय के किनारे रेत में नहीं फेंक सकता । आप ही चाहें तो फेंक सकते हैं । मछली खुद ही छलांग ले ले, तो ही किनारे पर पहुंच सकती हें । ध्यान समय के बाहर छलांग हें । इसलिए ध्यानियों ने कहा है : ध्यान है कालातीत, बियांड टाइम । ध्यानियो ने कहा है जहां समय मिट जाता है, वहां समझना कि समाधि आ गई । जहां समय का कोई भी पता नहीं चलता, जहा न कोई अतीत है, न कोई भविष्य, न कोई वर्तमान; जहां समय की धारा नहीं है, जहां समय ठहर गया, टाइमलेस मोमेंट, समय-रहित क्षण आ गया-तब समझना कि ध्यान हो गया । ध्यान और समय विपरीत है । अगर समय है सागर, तो ध्यान सागर से छलांग है । और जटिलता है । और वह जटिलता यह है कि मछली सागर के बाहर तड़फती है, सागर में उसका जीवन है । और हम समय में तड़फते है, और समय के बाहर हमारा जीवन है । हम समय में तड़फते ही रहते है । समय के भीतर कोई आदमी तड़फन से मुक्त नहीं होता । समय के भीतर दुख अनिवार्य है ।
समय में रहते हुए पीड़ा के बाहर जाने का कोई उपाय ही नही है । हां, एक उपाय है, वह धोखा है । और वह है बेहोश हो जाना । बेहोश होकर हम समय भूल जाते हैं, समय के बाहर नहीं होते है । जैसे मछली को कोई बेहोशी का इंजेक्शन दे दे, रहे सागर मे ही, लेकिन सागर के बाहर जैसी हो जाएगी, क्योंकि बेहोश हो जाएगी । जिसका बोध ही नही है, उसके हम बाहर मालूम पड़ते है ।
समय के भीतर जितनी पीड़ाएं है, उनका हल बेहोशी है । इसलिए नाराज मत होना लोगों पर, अगर कोई शराब पी रहा है । वह भी ध्यान की तलाश कर रहा है । कोई और मादकता में डूब रहा है-कोई संगीत में, कोई नृत्य में । कोई कामवासना में लीन हो रहा है-वह भी मूर्च्छा खोज रहा है । वह यह कोशिश कर रहा है कि यह जो समय की पीड़ा का सागर है, इसके बाहर कैसे हो जाऊं?
अनुक्रम |
||
1 |
स्रोतापत्र बन |
9 |
2 |
प्रथम दर्शन |
23 |
3 |
सम्यक दर्शन |
41 |
4 |
सम्यक जीवन |
61 |
5 |
प्रवेश द्वार |
81 |
6 |
क्षांति |
97 |
7 |
घातक छाया |
119 |
8 |
अस्तित्व से तादात्म्य |
139 |
9 |
स्वामी बन |
159 |
10 |
आगे बढ़ |
181 |
11 |
मन के पार |
201 |
12 |
सावधान! |
221 |
13 |
समय और तू |
241 |
14 |
तितिक्षा |
259 |
15 |
बोधिसत्व बन! |
277 |
16 |
ऐसा है आर्य मार्ग |
295 |
17 |
प्राणिमात्र के लिए शांति |
309 |
पारिभाषिक शब्दावली के अर्थ |
323 |
|
ओशो- एक परिचय |
329 |
|
ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट |
330 |
|
ओशो का हिंदी साहित्य |
332 |
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अधिक जानकारी के लिए |
337 |