अनादि काल से आत्मा कर्मों के कारण अपने वास्तविक रूप को भूलकर अज्ञानवश नाना प्रकार के कष्टों का अनुभव कर रहा है और फिर उन्हीं कर्मों के निमित्तों से नूतन कर्मों का संचय कर रहा है, किन्तु सम्यगृक्षयोपशम के न होने के कारण से ही औदयिक भाव की प्रकृतियों में निमग्न हो रहा है, अतः काल-लब्धि के परिपक्व होने पर ही इसको विकास-मार्ग की ओर गमन करने का समय प्राप्त हो सकता है। जब अनादि सान्त कर्मों की प्रकृति वाला आत्मा शुद्ध क्षयोपशम के होने पर मनुष्य-योनि में आता है, तब यह शुभ निमित्तों के मिल जाने पर धर्म क्रियाओं की ओर झुकने लगता है।
धर्म-विषय
अपरज्य यह भी ध्यान में रहे कि धर्म-क्रियाओं के स्थान पर भी बहुत सी आत्माएं अधर्म क्रियाओं के करने में प्रयत्नशील बन जाती हैं, इसका मुख्य कारण सम्यम् दर्शन का न होना हो है, क्योंकि धार्मिक क्रियाओं के निर्णय करने में सम्यग्दर्शन और सम्यगू-ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है, वास्तव में सम्यग्दर्शन और सम्यम्-ज्ञान के होने पर ही सम्यक् चारित्र की उपलब्धि हो सकती है, अन्यथा नहीं।
सम्यक् चारित्र
जब तक उक्त तीन रत्नों की परस्पर एकरूपता नहीं होती तब तक मोक्ष-मार्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी कारण से आचार्य श्रीउमास्वाति जी 'तत्त्वार्थसूत्र' के प्रथमाध्याय के प्रथम ही सूत्र में कहते हैं कि-
"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः"
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र ये ही तीनों मोक्ष के मार्ग हैं। सो इन तीनों के एक साथ मिल जाने पर आत्मा स्व-कल्याण कर सकता है तथा उसे निर्वाण पद की प्राप्ति सुगमतया हो सकती है, किन्तु यह विषय उन्हीं आत्माओं के लिए है जो अनादि-सान्त कमों वाले हैं।
इस स्थान पर यह शंका उत्पन्न होनी भी स्वाभाविक है कि जब कर्मों को अनादि माना गया है तो फिर कर्मों में सान्तता किस प्रकार आ सकती है? इस शंका के समाधान में कहा जाता है कि-कर्मों का क्रम (प्रवाह) अनादि है, कर्म अनादि नहीं है। कारण कि अनादि आत्मा अनादि काल से कर्म करने और भोगने के चक्र में फंसा हुआ है, किन्तु जब इसने नूतन कर्मों के संचार का निरोध कर दिया तब फिर यह पूर्व कर्मों का तप आदि द्वारा क्षय कर सकता है। इसी कारण से भव्य आत्माओं के कर्मों की संज्ञा अनादि-सान्त मानी गई है।
किन्तु जब आत्मा कर्मों से सर्वथा विमुक्त हो जाता है तब उसे निर्वाण-पद की प्राप्ति हो जाती है। जैनागम कर्मों का फल मोक्ष नहीं मानता, यहां कर्म-क्षय को ही मोक्ष माना जाता है।
अन्तकृदशांग सूत्र में इस प्रकार के भव्य जोवों की दशा का वर्णन किया गया है जो अन्तिम श्वासोच्छ्वास में निर्वाण-पद प्राप्त कर सके हैं, किन्तु आयुष्य-कर्म के शेष न होने से केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन से देखे हुए पदार्थों को प्रदर्शित नहीं कर सके, इसी कारण से उन्हें 'अन्तकृत केवली' कहा गया है।
प्रस्तुत शास्त्र बारह अंगशास्त्रों में से आठवां अंग शास्त्र है, इसका अर्थ अर्हत्-प्रणीत और सूत्र गणधर प्रणीत हैं। इसके आठ वर्ग हैं और एक ही श्रुतस्कन्ध है। प्रत्येक वर्ग के पृथक् पृथक् अध्ययन हैं। जैसे कि- पहले और दूसरे वर्ग में दस-दस अध्ययन रखे गए हैं, तृतीय वर्ग के तेरह अध्ययन हैं, चतुर्थ और पंचम वर्ग के भी दस-दस अध्ययन हैं, छठे वर्ग के सोलह अध्ययन हैं, सातवें वर्ग के तेरह अध्ययन और आठवें वर्ग के दस अध्ययन हैं, किन्तु प्रत्येक अध्ययन के उपोद्घात में इस विषय को स्पष्ट किया गया है कि 'अमुक अध्ययन का तो अर्थ श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार से वर्णन किया है, तो इस अध्ययन का क्या अर्थ बताया है?' इस प्रकार की शंका के समाधान में श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बूस्वामी के प्रति प्रस्तुत अध्ययन का अर्थ वर्णन करने लग जाते हैं, अतः यह शास्त्र सर्वज्ञ-प्रणीत होने से सर्वधा मान्य है।
यद्यपि अन्तकृद्दशांग सूत्र में भगवान् अरिष्टनेमि और भगवान् महावीर स्वामी के ही समय में होने वाले जीवों की संक्षिप्त जीवन-चर्या का दिग्दर्शन कराया गया है, तथापि अन्य तीर्थंकरों के शासन में होने वाले अन्तकृत् केवलियों की भी जीवन-चर्या इसी प्रकार जान लेनी चाहिए।
कारण कि-द्वादशांगीवाणी शब्द से पौरुषेय है और अर्थ से अपौरुषेय है।
यह शास्त्र भव्य प्
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