पुस्तक के विषय में
मानव के अन्तर्मन में जो शुद्ध बुद्धि चैतन्य अमर सत्ता है वही परमात्मा है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के चतुष्टय से युक्त चेतन को जीवन या परमात्मा कहते हैं । यह परमात्मा से भिन्न भी है, अभिन्न भी। इसे द्वैत भी कहते हैं, अद्वैत भी। जैसे अग्नि से ही चिन्गारी निकलती है, चिन्नगारी को अग्नि से अलग कहा जा सकता है, पर अग्नि बिना चिन्नगारी का कोई अस्तित्व नहीं। परमात्मा अग्नि, जीव चिन्गारी है, दोनों अलग भी हैं और एक भी। गीता में इन .दोनों का अस्तित्व स्वीकारते हुए एक को क्षर दूसरे को अक्षर कहा गया है। आत्मिक एकता, दोनों के मिलन में ही सुख है, इसी को यौगिक शब्दावली में जीवात्मा परमात्मा का मिलन कह सकते हैं। इस मिलन का ही दूसरा नाम 'योग' है।
भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार यह योग पद्धति श्रेष्ठ है क्योंकि 'इसमें मनुष्य की रुचि और प्रवृत्ति ऊँची रहती है। सात्विकता, देवत्व को विकसित करने का प्रचुर अवसर मिलता है । मन शुद्ध होता है, मन को शान्ति, एकाग्रता मिलती है, आध्यात्मिक शक्तियाँ बढ़ती हैं । आज योग विद्या को सही दृष्टि से अपनाने की आवश्यकता है। मात्र आसन प्राणायाम ही योग नहीं, वास्तविक महत्तव आन्तरिक साधना का ही है।
प्राक्कथन
हमारा अध्यात्मवादी देश भारत, अब विकसित देशों से भौतिक- समृद्धि के लिए स्पर्धा में लगा हुआ है और वह शीघ्र ही विकसित देशों की श्रेणी में परिगणित होगा, इसमें भी सन्देह नहीं है। मैं व्यक्तिगत रूप से इसे बुरा नहीं समझता क्योंकि सब प्रकार से साधन-सम्पन्न और शस्य-श्यामला इस भारत- भूमि की सन्तानें हजारों वर्षों से भौतिक समृद्धि से वंचित रही हैं और आज भी लगभग 3० प्रतिशत लते गरीबी की रेखा से नीचे दरिद्र और अशिक्षित हैं। इसके लिए हम किसी अन्य देश या जाति को दोषी नहीं ठहरा सकते। भूल हमसे हुई । यह भूल ज्ञान या दर्शन के स्तर पर नहीं बल्कि व्यवहार के स्तर पर हुई। हमारा ज्ञान और दर्शन तो इतना गगन- स्पर्शी हो गया कि हमारे पैरों का भूमि-स्पर्श ही समाप्त हो गया। हमें हमारा अंतिम पुरुषार्थ 'मोक्ष' इतना भा गया कि धर्म, अर्थ और काम ये तीनों प्रारम्भिक पुरुषार्थ धरे के धरे रह गए ।
अब समय ने पलटा खाया है और हम अपने प्रथम पुरुषार्थ धर्म की उपेक्षा करते हुए केवल काम और अर्थ पर केन्द्रित होते जा रहे हैं। यह असंतुलन सराहनीय नहीं कहा जा सकता क्योंकि हम अतिवाद और एकांगीपन का दण्ड पहले ही बहुत भुगत चुके हैं। यदि हम दूसरों की देखा-देशी अति भौतिकवादी हो गए तो फिर एक दूसरे प्रकार की पीड़ा और यातना को भोगने के लिए हमें कमर कस कर तैयार हो जाना चाहिए। वह पीड़ा और यातना क्या होगी, इसे विकसित देशों की जीवन- पद्धति से समझा जा सकता है। फिर हमें नींद की गोलियाँ खाए बिना नींद नहीं आएगी। हममें से प्रत्येक को अपना- अपना मनोचिकित्सक खोजना होगा, अविवाहित कन्याओं के बच्चे अनाथों के रूप में बड़े होकर अपराधी बनेंगे और दाम्पत्य या पारिवारिक जीवन अभिशाप बन कर रह जाएगा। सम्भवत: हमारा देश भी विकसित होकर अन्य अविकसित देशों का शोषण करने का प्रयास करे, जैसा कि दूसरे विकसित कहलाने वाले राष्ट्र कर रहे हैं।
तो फिर क्या करें? छोड़े इस विकसित राष्ट्र बनने की आकांक्षा को? नहीं, यह सम्भव और व्यावहारिक नहीं है। हम भौतिक दृष्टि से सम्पन्न अवश्य बनें किन्तु अपनी पहचान न खोएँ । भारतीय संस्कृति के जीवन- मूल्यों में आस्था रखते हुए विकास करें। भारतीय संस्कृति त्यागपूर्वक भोग की शिक्षा देती है, 'सर्वे भवन्तु सुखिनः 'और' वसुधैव कुटुम्बकम् 'उसके सर्वोच्च आदर्श हैं। हम केवल अर्थ और काम को अपना आदर्श न बनाएँ क्योंकि हमारे नीतिकार केवल अर्थ और काम को हेय मानते हैं-
''अर्थातुराणां न सुहृन्न बन्धु: कामातुराणां न भयं न लज्जा'' अर्थ- लोलुपों के न कोई मित्र होते हैं न कम् कामातुरों को किसी भी कार्य में न भय लगता है और न लज्जा आती है । किन्तु हमें क्षुधा की चिन्ताओं से भी मुक्त रहना है-
''चिन्तातुराणां न सुखं न निद्रा क्षुधातुराणां न बलं न तेज:। ''चिन्तातुरों को नींद और सुख कहाँ? दरिद्रों में बल और तेज कहाँ?
तो ऐसा कोई मार्ग है जो हमें शरीर से दृढ़ और बलवान बनाए बुद्धि से प्रखर और पुरुषार्थी बनाए भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति करते हुए हमें आत्मवान बनाए और फिर अन्त में हमें अपने अंतिम 'पुरुषार्थ' मोक्ष की ओर प्रेरित करे । जी हाँ! निश्चित् रूप से ऐसा मार्ग है । इसे भारत के एक ऋषि पातंजलि ने योगदर्शन (योगसूत्र) का नाम दिया है।
यह योग-दर्शन क्या है, यदि इसे एक वाक्य में कहना चाहें तो ''यह एक मानवतावादी सार्वभौम, संपूर्ण जीवन-दर्शन है और भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र है।''
मैं योग पर लिखने के लिए बहुत दिनों से उत्सुक था किन्तु साहस नहीं जुटा पा रहा था क्योंकि योग दर्शन पर जो व्याख्याएँ मुझे देखने को मिलीं उनसे मैं आश्वस्त नहीं था या मैं उन्हें समझ नहीं पाया और नये ढंग से इस प्राचीन विद्या की व्याख्या करना निरापद नहीं था । किन्तु जब मैं ''शाश्वत जीवन की व्याख्या-गीत'' लिखने बैठा तो 'योग' मेरे पीछे पड़ गया । लिखूँ गीता पर और ध्यान चला जाए योग पर । योगेश्वर कृष्ण की गीता पर कोई लिखे और योग पर ध्यान न जाएं-यह कैसे सम्भव हो सकता है? गीता भी तो योगशास्त्र ही है । यह भी ब्रह्मविद्या का योगशास्त्र है-'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे।' गीता के दूसरे अध्याय से प्रारम्भ हो गया
''बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु योगस्थ कुरु कर्मणि'' और फिर यह चलता ही रहा, योग: कर्मसु कौशलम् योगो भवति दुःखहा आदि आदि । गीता में 'योग' और 'युक्त' शब्द प्रत्येक प्रकरण में सैकड़ों बार आने पर तंग आ गया तो उस 'योगेश्वर' से ही मन ही मन प्रार्थना करनी पड़ी कि प्रभो! आपके गीता के गीत को समाप्त करने दो, फिर आपके योग की बात को भूलूँगा नहीं । उस प्रतिज्ञा को निभाना मेरी विवशता हो गयी।
योग पर लिखते हुए मुझे आदि से अन्त तक आनन्द का अनुभव होता चला गया। किन्तु 'साधनपाद' में जाकर 'पंच-क्लेशों' में फँस गया । इन पंच क्लेशों पर जब शल्य क्रिया का प्रयोग किया तो पता चला कि ये सारे क्लेश तो हमारी दो प्रमुख मूल प्रवृतियों (आत्मविस्तार और आत्म- सरंक्षण) से सम्बन्ध रखते हैं। यदि इस पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया जाए (जो कि असंभव है) तो जीवन- धारा ही समाप्त हो जाएगी और यदि इन्हें स्वतंत्रता दे दी जाए तो जीवन में क्लेश के अतिरिक्त रह ही क्या जाता है? इनका शोधन और उदात्तीकरण ही तो धर्म और मानव-संस्कृति का मूल आधार है। हजारों वर्ष पूर्व एक ऋषि ने करुणापूर्वक यदि क्लेशों के मूल कारण का दिग्दर्शन करा दिया तो आने वाली पीढ़ियों को उनके उद्देश्य को समझ कर उन क्लेशों की व्याख्या करनी चाहिए थी। यदि इस युग में ऐसे महान् दर्शन की उपयुक्त व्याख्या न की तो योग साधना करेगा कौन? इस भौतिक जगत् को 'अविद्या' कह कर इससे भागने से काम चलने वाला नहीं है। इस 'अविद्या' और इसकी सन्तानों को भली प्रकार समझना होगा, तभी हम योगविद्या के आदर्श पात्र बन पाएँगे।
मैंने योग-सूत्र के सभी सूत्रों की व्याख्या नहीं की है। प्रत्येक पाद के कुछ प्रमुख सूत्रों की व्याख्या इस प्रकार की है कि सम्बन्धित पाद के अन्य सूत्र भी स्पष्ट हो जाएँ क्योंकि अन्य सूत्र प्रमुख सूत्रों का केवल समर्थन ही तो करते हैं। प्रमुख सूत्रों की व्याख्याएँ इस ढंग से प्रस्तुत की हैं कि योगसूत्र का मुख्य उद्देश्य पाठकों के समक्ष पूरी तरह स्पष्ट हो जाए। वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से सम्बन्धित चारों पुरुषार्थो को सिद्ध करने का क्रमश: अभ्यास करे। इसके लिए उसे कहीं गिरि-कन्दराओं में भागने की आवश्यकता नहीं है। वह गृहस्थ- धर्म और सामाजिक दायित्वों का भली प्रकार निर्वाह करते हुए अपने जीवन की सार्थकता सिद्ध करे। अन्त में मैं पुन: दोहराना चाहूँगा कि इस भौतिकवादी, क्लेशमय जीवन में योग की सबसे अधिक आवश्यकता है। थोड़ा-सा नियमित आसन और प्राणायाम उसे नीरोग और स्वस्थ बनाए रखेगा । यम-नियमों के पालन से उसके चरित्र में अकल्पनीय परिवर्तन घटित होगा। धारणा और ध्यान के अभ्यास से वह न केवल तनावरहित होगा बल्कि उसकी कार्य- कुशलता में भी वृद्धि होगी, वह अपनी समृद्धि से स्वयं को और अपने समाज को हर प्रकार की प्रगति की ओर अग्रसर करने में सफल होगा =।
'योग-दर्शन' एक सार्वभौमिक और सार्वकालिक जीवन-दर्शन है । इसके महत्त्व को सभी देश और जाति के लोग बिना भेद- भाव के स्वीकार करने लगे हैं; किन्तु इस पुस्तक का अध्ययन कर यदि हमारी युवा पीढ़ी योग-साधना में रुचिशील बनी तो लेखक अपने श्रम को सार्थक मानेगा। मैं श्री पुरुषोत्तमदासजी मोदी का आभारी हूँ जिन्होंने सहर्ष इस पुस्तक के प्रकाशन का गुरुतर दायित्व स्वीकार किया । मेरे अभिन्न मित्र डॉ० बद्रीप्रसाद पंचोलीजी को धन्यवाद देना स्वयं को धन्यवाद देना जैसा लगता है किन्तु परम्परा-पालन के लिए उन्हें भी धन्यवाद, जिन्होंने सीडी बनने के पूर्व अन्तिम संशोधन का दायित्व सहर्ष निभाया।
पुस्तक के विषय में
मानव के अन्तर्मन में जो शुद्ध बुद्धि चैतन्य अमर सत्ता है वही परमात्मा है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के चतुष्टय से युक्त चेतन को जीवन या परमात्मा कहते हैं । यह परमात्मा से भिन्न भी है, अभिन्न भी। इसे द्वैत भी कहते हैं, अद्वैत भी। जैसे अग्नि से ही चिन्गारी निकलती है, चिन्नगारी को अग्नि से अलग कहा जा सकता है, पर अग्नि बिना चिन्नगारी का कोई अस्तित्व नहीं। परमात्मा अग्नि, जीव चिन्गारी है, दोनों अलग भी हैं और एक भी। गीता में इन .दोनों का अस्तित्व स्वीकारते हुए एक को क्षर दूसरे को अक्षर कहा गया है। आत्मिक एकता, दोनों के मिलन में ही सुख है, इसी को यौगिक शब्दावली में जीवात्मा परमात्मा का मिलन कह सकते हैं। इस मिलन का ही दूसरा नाम 'योग' है।
भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार यह योग पद्धति श्रेष्ठ है क्योंकि 'इसमें मनुष्य की रुचि और प्रवृत्ति ऊँची रहती है। सात्विकता, देवत्व को विकसित करने का प्रचुर अवसर मिलता है । मन शुद्ध होता है, मन को शान्ति, एकाग्रता मिलती है, आध्यात्मिक शक्तियाँ बढ़ती हैं । आज योग विद्या को सही दृष्टि से अपनाने की आवश्यकता है। मात्र आसन प्राणायाम ही योग नहीं, वास्तविक महत्तव आन्तरिक साधना का ही है।
प्राक्कथन
हमारा अध्यात्मवादी देश भारत, अब विकसित देशों से भौतिक- समृद्धि के लिए स्पर्धा में लगा हुआ है और वह शीघ्र ही विकसित देशों की श्रेणी में परिगणित होगा, इसमें भी सन्देह नहीं है। मैं व्यक्तिगत रूप से इसे बुरा नहीं समझता क्योंकि सब प्रकार से साधन-सम्पन्न और शस्य-श्यामला इस भारत- भूमि की सन्तानें हजारों वर्षों से भौतिक समृद्धि से वंचित रही हैं और आज भी लगभग 3० प्रतिशत लते गरीबी की रेखा से नीचे दरिद्र और अशिक्षित हैं। इसके लिए हम किसी अन्य देश या जाति को दोषी नहीं ठहरा सकते। भूल हमसे हुई । यह भूल ज्ञान या दर्शन के स्तर पर नहीं बल्कि व्यवहार के स्तर पर हुई। हमारा ज्ञान और दर्शन तो इतना गगन- स्पर्शी हो गया कि हमारे पैरों का भूमि-स्पर्श ही समाप्त हो गया। हमें हमारा अंतिम पुरुषार्थ 'मोक्ष' इतना भा गया कि धर्म, अर्थ और काम ये तीनों प्रारम्भिक पुरुषार्थ धरे के धरे रह गए ।
अब समय ने पलटा खाया है और हम अपने प्रथम पुरुषार्थ धर्म की उपेक्षा करते हुए केवल काम और अर्थ पर केन्द्रित होते जा रहे हैं। यह असंतुलन सराहनीय नहीं कहा जा सकता क्योंकि हम अतिवाद और एकांगीपन का दण्ड पहले ही बहुत भुगत चुके हैं। यदि हम दूसरों की देखा-देशी अति भौतिकवादी हो गए तो फिर एक दूसरे प्रकार की पीड़ा और यातना को भोगने के लिए हमें कमर कस कर तैयार हो जाना चाहिए। वह पीड़ा और यातना क्या होगी, इसे विकसित देशों की जीवन- पद्धति से समझा जा सकता है। फिर हमें नींद की गोलियाँ खाए बिना नींद नहीं आएगी। हममें से प्रत्येक को अपना- अपना मनोचिकित्सक खोजना होगा, अविवाहित कन्याओं के बच्चे अनाथों के रूप में बड़े होकर अपराधी बनेंगे और दाम्पत्य या पारिवारिक जीवन अभिशाप बन कर रह जाएगा। सम्भवत: हमारा देश भी विकसित होकर अन्य अविकसित देशों का शोषण करने का प्रयास करे, जैसा कि दूसरे विकसित कहलाने वाले राष्ट्र कर रहे हैं।
तो फिर क्या करें? छोड़े इस विकसित राष्ट्र बनने की आकांक्षा को? नहीं, यह सम्भव और व्यावहारिक नहीं है। हम भौतिक दृष्टि से सम्पन्न अवश्य बनें किन्तु अपनी पहचान न खोएँ । भारतीय संस्कृति के जीवन- मूल्यों में आस्था रखते हुए विकास करें। भारतीय संस्कृति त्यागपूर्वक भोग की शिक्षा देती है, 'सर्वे भवन्तु सुखिनः 'और' वसुधैव कुटुम्बकम् 'उसके सर्वोच्च आदर्श हैं। हम केवल अर्थ और काम को अपना आदर्श न बनाएँ क्योंकि हमारे नीतिकार केवल अर्थ और काम को हेय मानते हैं-
''अर्थातुराणां न सुहृन्न बन्धु: कामातुराणां न भयं न लज्जा'' अर्थ- लोलुपों के न कोई मित्र होते हैं न कम् कामातुरों को किसी भी कार्य में न भय लगता है और न लज्जा आती है । किन्तु हमें क्षुधा की चिन्ताओं से भी मुक्त रहना है-
''चिन्तातुराणां न सुखं न निद्रा क्षुधातुराणां न बलं न तेज:। ''चिन्तातुरों को नींद और सुख कहाँ? दरिद्रों में बल और तेज कहाँ?
तो ऐसा कोई मार्ग है जो हमें शरीर से दृढ़ और बलवान बनाए बुद्धि से प्रखर और पुरुषार्थी बनाए भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति करते हुए हमें आत्मवान बनाए और फिर अन्त में हमें अपने अंतिम 'पुरुषार्थ' मोक्ष की ओर प्रेरित करे । जी हाँ! निश्चित् रूप से ऐसा मार्ग है । इसे भारत के एक ऋषि पातंजलि ने योगदर्शन (योगसूत्र) का नाम दिया है।
यह योग-दर्शन क्या है, यदि इसे एक वाक्य में कहना चाहें तो ''यह एक मानवतावादी सार्वभौम, संपूर्ण जीवन-दर्शन है और भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र है।''
मैं योग पर लिखने के लिए बहुत दिनों से उत्सुक था किन्तु साहस नहीं जुटा पा रहा था क्योंकि योग दर्शन पर जो व्याख्याएँ मुझे देखने को मिलीं उनसे मैं आश्वस्त नहीं था या मैं उन्हें समझ नहीं पाया और नये ढंग से इस प्राचीन विद्या की व्याख्या करना निरापद नहीं था । किन्तु जब मैं ''शाश्वत जीवन की व्याख्या-गीत'' लिखने बैठा तो 'योग' मेरे पीछे पड़ गया । लिखूँ गीता पर और ध्यान चला जाए योग पर । योगेश्वर कृष्ण की गीता पर कोई लिखे और योग पर ध्यान न जाएं-यह कैसे सम्भव हो सकता है? गीता भी तो योगशास्त्र ही है । यह भी ब्रह्मविद्या का योगशास्त्र है-'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे।' गीता के दूसरे अध्याय से प्रारम्भ हो गया
''बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु योगस्थ कुरु कर्मणि'' और फिर यह चलता ही रहा, योग: कर्मसु कौशलम् योगो भवति दुःखहा आदि आदि । गीता में 'योग' और 'युक्त' शब्द प्रत्येक प्रकरण में सैकड़ों बार आने पर तंग आ गया तो उस 'योगेश्वर' से ही मन ही मन प्रार्थना करनी पड़ी कि प्रभो! आपके गीता के गीत को समाप्त करने दो, फिर आपके योग की बात को भूलूँगा नहीं । उस प्रतिज्ञा को निभाना मेरी विवशता हो गयी।
योग पर लिखते हुए मुझे आदि से अन्त तक आनन्द का अनुभव होता चला गया। किन्तु 'साधनपाद' में जाकर 'पंच-क्लेशों' में फँस गया । इन पंच क्लेशों पर जब शल्य क्रिया का प्रयोग किया तो पता चला कि ये सारे क्लेश तो हमारी दो प्रमुख मूल प्रवृतियों (आत्मविस्तार और आत्म- सरंक्षण) से सम्बन्ध रखते हैं। यदि इस पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया जाए (जो कि असंभव है) तो जीवन- धारा ही समाप्त हो जाएगी और यदि इन्हें स्वतंत्रता दे दी जाए तो जीवन में क्लेश के अतिरिक्त रह ही क्या जाता है? इनका शोधन और उदात्तीकरण ही तो धर्म और मानव-संस्कृति का मूल आधार है। हजारों वर्ष पूर्व एक ऋषि ने करुणापूर्वक यदि क्लेशों के मूल कारण का दिग्दर्शन करा दिया तो आने वाली पीढ़ियों को उनके उद्देश्य को समझ कर उन क्लेशों की व्याख्या करनी चाहिए थी। यदि इस युग में ऐसे महान् दर्शन की उपयुक्त व्याख्या न की तो योग साधना करेगा कौन? इस भौतिक जगत् को 'अविद्या' कह कर इससे भागने से काम चलने वाला नहीं है। इस 'अविद्या' और इसकी सन्तानों को भली प्रकार समझना होगा, तभी हम योगविद्या के आदर्श पात्र बन पाएँगे।
मैंने योग-सूत्र के सभी सूत्रों की व्याख्या नहीं की है। प्रत्येक पाद के कुछ प्रमुख सूत्रों की व्याख्या इस प्रकार की है कि सम्बन्धित पाद के अन्य सूत्र भी स्पष्ट हो जाएँ क्योंकि अन्य सूत्र प्रमुख सूत्रों का केवल समर्थन ही तो करते हैं। प्रमुख सूत्रों की व्याख्याएँ इस ढंग से प्रस्तुत की हैं कि योगसूत्र का मुख्य उद्देश्य पाठकों के समक्ष पूरी तरह स्पष्ट हो जाए। वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से सम्बन्धित चारों पुरुषार्थो को सिद्ध करने का क्रमश: अभ्यास करे। इसके लिए उसे कहीं गिरि-कन्दराओं में भागने की आवश्यकता नहीं है। वह गृहस्थ- धर्म और सामाजिक दायित्वों का भली प्रकार निर्वाह करते हुए अपने जीवन की सार्थकता सिद्ध करे। अन्त में मैं पुन: दोहराना चाहूँगा कि इस भौतिकवादी, क्लेशमय जीवन में योग की सबसे अधिक आवश्यकता है। थोड़ा-सा नियमित आसन और प्राणायाम उसे नीरोग और स्वस्थ बनाए रखेगा । यम-नियमों के पालन से उसके चरित्र में अकल्पनीय परिवर्तन घटित होगा। धारणा और ध्यान के अभ्यास से वह न केवल तनावरहित होगा बल्कि उसकी कार्य- कुशलता में भी वृद्धि होगी, वह अपनी समृद्धि से स्वयं को और अपने समाज को हर प्रकार की प्रगति की ओर अग्रसर करने में सफल होगा =।
'योग-दर्शन' एक सार्वभौमिक और सार्वकालिक जीवन-दर्शन है । इसके महत्त्व को सभी देश और जाति के लोग बिना भेद- भाव के स्वीकार करने लगे हैं; किन्तु इस पुस्तक का अध्ययन कर यदि हमारी युवा पीढ़ी योग-साधना में रुचिशील बनी तो लेखक अपने श्रम को सार्थक मानेगा। मैं श्री पुरुषोत्तमदासजी मोदी का आभारी हूँ जिन्होंने सहर्ष इस पुस्तक के प्रकाशन का गुरुतर दायित्व स्वीकार किया । मेरे अभिन्न मित्र डॉ० बद्रीप्रसाद पंचोलीजी को धन्यवाद देना स्वयं को धन्यवाद देना जैसा लगता है किन्तु परम्परा-पालन के लिए उन्हें भी धन्यवाद, जिन्होंने सीडी बनने के पूर्व अन्तिम संशोधन का दायित्व सहर्ष निभाया।