बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष: 2500 Years of Buddhism

$36
Item Code: NZD054
Author: P. V. Bapat
Publisher: Publication Division, Ministry Of Information And Broadcasting
Language: Hindi
Edition: 2010
ISBN: 8123002777
Pages: 249 (20 B/W Illustrations)
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 340 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

एक धर्म के रूप में बौद्ध धर्म की महत्ता उसके करूणा, मानवता और समता संबंधी विचारों के कारण है। वैदिक यज्ञवाद और बुद्ध-पूर्व काल से लेकरबुद्ध के काल तक प्रचलित दार्शनिक चिंतनों की पृष्ठभूमि में बौद्ध धर्म का आविर्भाव हुआ।

बौद्ध धर्म कोई नया स्वतंत्र धर्म बनकर शुरू नहीं हुआ। वह एक अधिक पुराने हिन्दू धर्म की ही शाखा था, उसक कदाचित हिन्दू धर्म से अलग हुई एक विद्रोही विचार धाराही समझना चाहिए। जिस धर्म को धरोहर के रूप में पाया, उसके आचारों का विरोध किया। बुद्ध का प्रमुख उद्ददेश्य था धार्मिक आचारों में सुधार करना और मौलिक सिद्धांतों की ओर लौटना।

प्रस्तुत पुस्तक के अध्यायों में भारत और उसके बाहर बौद्ध धर्म की कहानी की रूपरेखा उस कड़ी को दिखाने के लिए दी गई है जिसने अनगिनत शताब्दियों से भारत और पूर्व के अन्य देशों को एक-दूसरे के साथ जोड़ा है।

भूमिका

अनेक देशों में ईसा पूर्व छठी सदी आध्यात्मिक असंतोष और बौद्धिक खलबली के लिए प्रसिद्ध है। चीन में लाओ-त्से और कन्फ्यूशियस हुए, यूनान में परमेनाइडीस और एंपेडोकल्स, ईरान में जरथुस्त्र और भारत में महावीर और बुद्ध। इसी समय में कई विख्यात आचार्य हुए, जिन्होंने अपनी सांस्कृतिक धरोहर पर चिंतन किया तथा नए दृष्टिकोण विकसित किए।

वैशाख मास की पूर्णिमा बुद्ध के जीवन की तीन महत्वपूर्ण घटनाओं से संबद्ध है-जन्म, संबोधि-प्राप्ति, परिनिर्वाण। बौद्धों के वर्ष-पत्रक में यह सबसे पवित्र दिन है। थेरवाद बौद्ध मत के अनुसार बुद्ध का परिनिर्वाण? ईसापूर्व में हुआ।' यद्यपि बौद्धमत के विभिन्न निकाय विभिन्न प्रकार की काल-गणना मानते है, फिर भी गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण की ढाई हजारवीं पुण्य-तिथि उन सबने मई 1956 ईसवी की पूर्णिमा ही स्वीकार की है। इस पुस्तक मे गत ढाई हजार वर्षो में बौद्धमत की कहानी का संक्षिप्त लेखा है।

बुद्ध के जीवन के प्रमुख प्रसंग सुपरिचित है। कपिलवस्तु के एक छोटे-से राजा का वह पुत्र था, विलास और ऐश्वर्य में वह पला, यशोधरा से उसका विवाह हुआ, उसके राहुल नामक पुत्र पैदा हुआ, और जब तक संसार के दुख उससे छिपे हुए थे, उसने सुरक्षित जीवन बिताया। चार बार जब वह राजमहल से बाहर गया, अनुश्रुति यही कहती है कि, उसे एक जरा-जीर्ण आदमी मिला और उसे अनुभव हुआ कि वह भी बुढ़ापे का शिकार हो सकता है; उसे एक बीमार आदमी मिला और उसे लगा कि वह भी बीमार पड़ सकता है; उसे एक शव दिखाई दिया और उसे लगा कि मृत्यु का वह भी ग्रास बनेगा; और उसे एक संन्यासी मिला, जिसका चेहरा शांत था और जिसनेधर्म के गुह्य सत्य को पाने वालों का परंपरागत रास्ता अपनाया हुआ था। बुद्ध ने निश्चय किया कि उस संन्यासी का मार्ग अपनाकर वह भी जरा, रोग, मृत्यु से छुटकारा पाएगा। उस संन्यासी ने बुद्ध से कहा :

नरपुंगव जन्ममृत्युभीत:. श्रमण:. प्रव्रजितोरिम मोक्षहेतो: '

(हे नरश्रेष्ठ मैं श्रमण हूं एक संन्यासी हूं जिसने जन्म और मरण के डर से, मोक्ष पाने के हेतु, प्रव्रज्या ग्रहण की है।)

शरीर से स्वस्थ, मन से प्रसन्न, जीवन के ऐहिक सुखों से विहीन, पवित्र पुरुष के दर्शन से बुद्ध का विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि मनुष्य के लिए उचित आदर्श धर्म-पालन ही है। बुद्ध ने संसार तजने का और धार्मिक जीवन में अपने आप को लगा देने का निश्चय किया। उसने घर छोड़ा, पुत्र और पत्नी को छोड़ा, एक भिक्षु के वल और दिनचर्या अपनाई, और वह मनुष्य के दुख पर विचार करने के लिए जंगल के एकांत में गया। वह इस दुख का कारण और दुख को दूर करने के उपाय जानना चाहता था। उसने छह वर्ष धर्म के कठिन सिद्धांतों के अध्ययन में बिताए, कठिनतम तपस्या की, उसने शरीर को उपवास से सुखाया, इस आशा से कि शरीर को पीड़ित करके वह सत्य का शान प्राप्त कर लेगा। परंतु उसकी अवस्था मरणासन्न हो गई और उसे जिस ज्ञान की खोज थी वह उसे न मिल सका। उसने संन्यास-मार्ग छोड़ दिया, पुन: साधारण जीवन धारण किया, निरंजना नदी के जल में स्नान किया, सुजाता द्वारा दी हुई खीर ग्रहण की : नायम् आत्मा बलहीनेन लभ्य: ' शरीर का स्वास्थ्य और मानसिक शक्ति प्राप्त करने पर उसने बोधिवृक्ष के नीचे सात सप्ताह बिताए, गहन और प्रगाढ़ एकाग्रता की अवस्था में। एक रात को, अरुणोदय से पहले उसकी बोध-दृष्टि जागृत हुई और उसे पूर्ण प्रकाश की प्राप्ति हुई । इस संबोधि-प्राप्ति के बाद बुद्ध अपना उल्लेख प्रथम पुरुष सर्वनाम 'तथागत' से करने लगे। तथागत का अर्थ है वह जो सत्य तक पहुंचा है। इस प्रकार से प्राप्त संबोधि का वह प्रचार करना चाहता था और उसने कहा - ''मैं वाराणसी जाऊंगा। वहां वह प्रदीप ज्योतित करूंगा जो सारे संसार को ज्योति देगा। मैं वाराणसी जाकर वह दुंदुभी बजाऊंगा कि जिससे मानव-जाति जागृत होगी। मैं वाराणसी जाऊंगा और वहां सद्धर्म का प्रचार करूंगा।'' ''सुनो, भिक्खुओ! मैंने अब अमरत्व पा लिया है। अब मैं उसे तुम्हें दूंगा। मैं धर्म का प्रचार करूंगा। '' वह, इस प्रकार से, स्थान-स्थान पर घूमा। उसने सैकड़ों के जीवन को छुआ, चाहे वे छोटे हो या बडे, राजा हो या रंक। वे सब उसके महान व्यक्तित्व के जादू से प्रभावित हुए। उसने पैंतालीस वर्षो तक दान की महिमा सिखाई, त्याग का आनंद सिखाया, सरलता और समानता की आवश्यकता सिखाई।

अस्सी वर्ष की आयु में वह कुशीनगर जा रहा था, जहां उसका परिनिर्वाण हुआ। अपने प्रिय शिष्य आनंद के साथ वैशाली के सुंदर नगर से विदा लेते हुए, वह पास की एक छोटी पहाड़ी पर गया और उसने बहुत से चैत्य-मंदिरों और विहारों वाले दृश्य को देखकर आनंद से कहा- चित्रं जम्बुद्वीपं मनोरम जीवित मनुष्याणाम् (भारत चित्रमय और समृद्ध है, यहां मनुष्य का जीवन मनोरम और काम्य है) । हिरण्यवती नदी के किनारे एक शालवृक्षों का कुंज है, जहां दो वृक्षों के बीच में बुद्ध ने अपने लिए एक शैया बनाई। उसका शिष्य आनंद बहुत अधिक शोक करने लगा। उसे सांत्वना देते हुए बुद्ध ने कहा - ''आनंद, रोओ मत, शोक मत करो । मनुष्य की जो भी प्रिय वस्तुएं हैं, उनसे विदा होना ही पड़ता है। यह कैसे हो सकता है कि जिसका जन्म हुआ है, जो अस्थिरता का विषय है, समाप्त न हो । यह हो सकता है कि तुम सोच रहे होगे - 'अब हमारा कोई गुरु न रहा। ' ऐसा न सोचो, ओ आनंद, जो सद्धर्म के उपदेश मैंने तुम्हें दिए हैं, वे ही तुम्हारे गुरु है । '' उसने दुबारा कहा -

हंद दानी भिक्खवे आमंतयामि वो

वयधम्मा संखारा अप्पमोदन संपादे'ति।

(इसलिए, मैं तुम्हें कहता हूं ओ भिक्खुओ! सब वस्तुएं नाशधर्मी है, इसलिए अप्रमादयुक्त होकर अपना निर्वाण स्वयं प्राप्त करो।)

बुद्ध के ये अंतिम शब्द थे। उसकी आत्मा रहस्मयी निमग्नता की गहराई में डूब गई और जब वह उस अवस्था तक पहुंच गया जहां सब विचार, सब अनुबोध विलीन हो जाता है, जब व्यक्ति की चेतना समाप्त हो जाती है, तब उसे परिनिर्वाण प्राप्त हुआ।

बुद्ध के जीवन में दो पक्ष हैं : वैयक्तिक और सामाजिक। जो सुपरिचित बुद्ध-प्रतिमा है वह एक तपस्यारत, एकाग्र और अंतर्मुख साधु की, योगी की प्रतिमा है, जो कि आंतरिक समाधि के आनंद में लीन है। यही परंपरा थेरवाद बौद्ध धर्म और अशोक के धर्म-प्रचारकों से संबद्ध है। उनके लिए बुद्ध एक मनुष्य है, देवता नहीं, एक गुरु है, उद्धारकर्ता नहीं। बुद्ध के जीवन का दूसरा पहलू भी है, जहां कि वह मनुष्य मात्र के दुख से पीड़ित जीवन में प्रवेश करना, उनके कष्टों का निदान करना और'बहुजनहिताय' अपना संदेश प्रसृत करना चाहता है। मानव मात्र के प्रति करुणा पर आश्रित एक दूसरी परंपरा उत्तर भारत में कुषाणों (70 से 480 ईसवी) और गुप्त-वंश (320-650 ईसवी) के काल में फूली-फली। उसने मुक्ति का आदर्श, श्रद्धा का अनुशासन और विश्व-सेवा का मार्ग सबके लिए विकसित किया। पहली परंपरा श्रीलंका, बर्मा और थाईदेश में प्रचलित हुई और दूसरी नेपाल, तिब्बत, कोरिया, चीन और जापान मे।

बौद्ध धर्म के सब रूप इस बात पर सहमत हैं कि बुद्ध ही संस्थापक था, उसने विचार-संघर्ष किया और जब वह बोधिवृक्ष के नीचे बैठा था तब उसे संबोधि प्राप्ति हुई, और उसने इस दुखमय जगत से परे का अमर मार्ग दिखाया। जो इस मुक्ति-मार्ग का अनुसरण करते है, वे ही उस परम-संबोधि को प्राप्त कर सकते है। यह सारी बात का मूल है, यही बौद्ध मत के दृष्टिकोण और अभिव्यंजना की अनेक विभिन्नताओं में अंतर्निहित मौलिक एकता है। बौद्ध धर्म भारत से बाहर दुनिया के और हिस्सों में जैसे-जैसे फैला, ये विभिन्नताएं बढ़ती गई।

सभी धर्मों का सार है मानव-स्वभाव में परिवर्तन। हिंदू और बौद्ध धर्मों का मुख्य सिद्धांत है 'द्वितीय जन्म'। मनुष्य इकाई नहीं है, परंतु अनेकता का पुंज है। वह अज है, वह स्वयंचालित है। वह भीतर से असंतुलित है। उसे जागना चाहिए, एक होना चाहिए, अपने आप से संश्लिष्ट और मुक्त होना चाहिए। यूनानी रहस्यवादियों ने हमारे स्वभाव में इस परिवर्तन को ध्वनित किया था। मनुष्य की कल्पना एक बीज से की जाती है जो कि बीज के नाते मर जाएगा, परंतु बीज से भिन्न पौधे के रूप में जो पुनर्जीवित होगा। गेहूं की दो ही संभावनाएं हैं : या तो वह पिसकर आटा बन जाए और रोटी का रूप ले ले या उसे फिर से बो दिया जाए कि जिससे अंकुरित होकर वह फिर पौध बन जाए, और एक के सौ दाने पैदा हो । सेट पॉल ने 'ईसा के पुनरुत्थान' के वर्णन में इस कल्पना का प्रयोग किया है, ''ओ मूर्ख, जो तुम बोते हो, वह मरे बिना फिर से नही अंकुराता। '' ''जो एक प्राकृतिक वस्तु के रूप में बोया या गाड़ा जाता है, वह एक आध्यात्मिक वस्तु के रूप में जाग उठता है। '' जो परिवर्तन है, वह केवल वस्तुगत रूपांतर है। मनुष्य संपूर्ण अंतिम सत्ता नही है। वह ऐसी सत्ता है जो अपने आप को बदल सकती है, जो पुन: जन्म ले सकती है। यह परिवर्तन घटित करना, पुन: जन्म लेने के लिए, जागृत होने के लिए यत्न करना बौद्ध धर्म की भांति सभी धर्मों का ध्येय है।

 

विषय-सूची

भूमिका

i-xi

1

बौद्ध धर्म का आरंभ तथा बुद्ध-चरित

1-8

2

चार बौद्ध परिषदें

9-18

3

अशोक और बौद्ध-धर्म का विस्तार

19-49

4

बौद्ध धर्म की प्रधान शाखाएं और संप्रदाय

50-79

5

बौद्ध साहित्य

80-111

6

बौद्ध शिक्षण

112-124

7

अशोक के उत्तरकालीन कुछ बौद्ध महापुरुष

125-164

8

चीनी यात्री

165-177

9

बौद्ध कला का संक्षिप्त पर्यवेक्षण

178-185

10

बौद्ध महत्व के स्थान

186-196

11

बौद्ध धर्म में उत्तरकालीन परिवर्तन

197-216

12

बौद्ध धर्म और आधुनिक संसार

217-233

13

सिंहावलोकन

234-238

परिशिष्ट

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