आमुख
उन्नीसवीं सदी में भारतीय सामाजिक जीवन दुर्गति की चक्की में पिसता जा रहा था। सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से मानवीय विपन्नावस्था के गर्त में पहुंच चुक था। वह रूढ़ परंपराओं की श्रृंखलाओं से आबद्ध था । इस विपन्नावस्था का अपने स्वार्थ के लिए लाभ उठाकर भट्ट भिक्षुक धर्म का हवाला देकर दीन-हीन रूढ़िबद्ध समाज का शोषण करने में निमग्न थे। फलस्वरूप पूरा समाज ही शोषण, अन्याय और अत्याचार के बोझ से दबकर निष्क्रिय हो गया था। अन्याय एवं अत्याचार सहने का आदी समाज अपने अधिकारों को ही भूल चुका था, सिर्फ सहते रहना और भाग्य को कोसते रहना ही वह जानता था । अत: मनुष्य अपना मनुष्यत्व ही खो चुका था।
कीचड़ से जिस प्रकार कमल विकसित होता है उसी प्रकार इस सामाजिक पार्श्वभूमि पर सत्य, समता और मानवता के दर्शन की जलती मशाल के साथ महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिबा फुले का उदय हुआ। सामाजिक दुर्गति ने ही उन्हें समाज सेवा की ओर आकृष्ट किया। निद्रित समाज में नई हुंकार भरकर मानव को मानव बनकर जीने का अधिकार दिलाने के लिए ही महात्मा फुले ने पुणे में अछूतों एवं लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोलकर क्रांति की घोषणा की। उन्होंने बालहत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की, सती-प्रथा, बाल-विवाह का समर्थन किया। उस काल में महात्मा ज्योतिबा फुले का कार्य सभी लोगों को एक चमत्कार सा लगा।
अनेक समस्याओं, विरोधों और यहां तक कि हत्या की धमकी कीपरवाह न करते हुए महात्मा फुले अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहे । अथक परिश्रम एवं लगन के कारण सफलता उनके कदम चूमने लगी । उनके इस ऐतिहासिक कार्य में उनकी पत्नी सावित्रीबाई का महत्त्वपूर्ण योगदान है । लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि इस युग-नारी के बारे में नई पीढ़ी को इससे अधिक जानकारी नहीं है कि वह ज्योतिबा फुले की पत्नी थीं और उन्होंने अध्यापन कार्य किया।
जब मैंने एक शोधकर्त्ता की हैसियत से इस यथार्थ की ओर देखा और सावित्रीबाई के संदर्भ में सही जानकारी प्राप्त करने हेतु लगातार दो साल तक पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण किया तथा अनेक बुजुर्ग लोगों से साक्षात्कार हुए, तब पता चला कि सावित्रीबाई केवल ज्योतिबा की धर्मपत्नी एवं एक शिक्षिका ही नहीं थीं, बल्कि उनका व्यक्तित्व एवं कार्य भी मौलिक रूप से महात्मा ज्योतिबा फुले की तरह की हिमालय सदृश ऊंचा था। इस शोध ने मुझे प्रोत्साहित किया और 10 मार्च) 1980 को ग्रंथ रूप में सावित्रीबाई फुले का जीवन-कार्य मराठी पाठकों के सम्मुख रखकर उन्हें एक ममतामयी, त्यागमयी, आदर्श नारी रत्न से परिचित कराने का प्रयास किया, जिसमें मुझे सफलता मिली। सावित्रीबाई के संदर्भ में अपने पास जो भी जानकारी पत्र-पत्रिकाएं एवं साहित्य था, वह मेरे हवाले करते हुए सावित्रीबाई के प्रति असीम श्रद्धा तथा मुझ जैसे एक शोधकर्ता के प्रति उदारता का प्रदर्शन करने वाले माननीय दादासाहेब झोडगे तथा उनकी हर्ग्मपत्नी श्रीमती फुलवंताबाई झोडगे का मैं हृदय में आभारी हूं। सावित्रीबाई फुले था जीवन के कार्य को अनजान कुहासे ये बहार निकालकर मैंने पाठकों के सम्मुख रखा। महाराष्ट्र शासन की ओर से उसे पुरस्कृत भी किया गया और साथ ही साथ अन्य भाषा-भाषी राज्यों से भी सावित्रीबाई फुले के चरित्र-ग्रंथ की मांग बढ़ गई । जब मैंने भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय से संपर्क स्थापित किया तो सावित्रीबाई फुले के महान क्रांतिकार्य से सुपरिचित भूतपूर्व सूचना और प्रसारण मंत्री मानवीय, वसंत साठे जी ने उदारता साथ हिंदी मेंसावित्रीबाई फुले का चरित्र प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित करने की अनुमति दी । माननीय साठे जी का आभार व्यक्त करने के लिए मेरे शब्द नहीं है, बस मैं इतना ही कहूंगा कि मैं उनका ऋणी हूं ।
भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय एवं प्रकाशन विभाग के अधिकारियों ने इस ग्रंथ के प्रकाशन कार्य में जो योगदान दिया है, उन सबका मैं हृदय से आभारी हूं।
अंतत: उन दो व्यक्तियों के प्रति मैं अपना विनम्र आभार प्रकट करना चाहता हूं जिन्होंने सावित्रीबाई के चरित्र को हिंदी में शब्दांकित करके हिंदी पाठकों के सम्मुख रखने की योजना को साकार बनाने में सहायता दी । वे हैं- सावित्रीबाई फुले के जीवनकार्य से अवगत मेरे मित्र तथा उदयोम्मुख हिंदी लेखक प्रो. डॉ आनंद वास्कर और उनकी पत्नी डॉ. पुष्पा वास्कर।
इस ग्रंथ प्रकाशन के लिए सहायक ज्ञात-अज्ञात सभी लोगों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए प्रस्तुत ग्रंथ हिंदी पाठकों के सम्मुख रखकर मैं खुशी अनुभव कर रहा हूं।
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