शिव संबोध और गंगा प्रतीक: Shiv Sambodh aur Ganga Pratik

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Item Code: HAA180
Author: Ramakant Pandey
Publisher: Indica Books, Varanasi
Language: Sanskrit Text to Hindi Translation
Edition: 2010
ISBN: 8186569944
Pages: 168
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 180 gm
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Book Description

पुस्तक परिचय

 

शिव संबोध और गंगा प्रतीक के रचनाकार ने शिव को एक अद्भुत देवता के रूप में प्रस्तुत किया है । दूर से लगता है कोई देव पुरुष है, लेकिन निकट जाने पर लगता है कोई नहीं है । वह महत् देवता या महादेव है । शब्द संयोजन की दृष्टि से वह इस ब्रह्माण्ड का ही नहीं बल्कि ऐंटिब्रह्माण्ड का भी नियन्ता है और अर्थ गरिमा की दृष्टि से वह किसी काल परिधि में नहीं, बल्कि काल का संपूर्ण आयाम स्वयं शिव में निवास करता है । वे केवल योगेश्वर नहीं अपितु परम योगीश हैं ।

शिव किरणों के ऐसे नामीय बिन्दु है जहाँ से अनन्त रेखाएँ गुजरती हैं और हर रेखा एक नवीन चित्र का चुम्बन करती है । कहीं कुछ भी अशुभ नहीं, शिव की दृष्टि में सब कुछ मंगलमय है । शिव संन्यासी हैं, समाधिस्थ हैं, एक दम नग्न हैं, दूसरी ओर समेटे भवानी का भृकुटि भंग, ताण्डव ताल और नारी को अबाध आलिंगन में समेटे वे अर्द्धनारीश्वर है । अच्छे बुरे के द्वैत से अतीत विश्व तीसरी संभावना के प्रमाण द्रष्टा हैं । कठोर सत्य और मृदुल सौन्दर्य को सम्यक् अनुपात में बाँधने वाले शिव सचमुच अद्भुत है ।

शिव का मस्तक प्रतिष्ठित मूल्यों का अनादि स्रोत है । गंगा शिव सिरचढ़ी है । वह सहस्रार का सारा रस लेकर पृथ्वी पर आती है और तटवर्ती केन्द्रों पर विराट संस्कृति की छाप छोड़ती हुई चुपचाप बहती चली जाती है एक प्रांजल प्रतीक की तरह ।

 

भूमिका

 

शिव कोई तथ्य नहीं एक तत्त्व हैं, वे कोई वस्तुपरक सत्ता नहीं हैं, बल्कि आत्मपरक देवता हैं । संक्षेप में, वे तत् और त्वं के अभिन्न रूप हैं । वे केवल मात्र हैं । उनका वर्णन संभव नहीं है, क्योंकि, जो संस्था त्वं और तत् से एकाकार होगी वही शिवत्व को बोध करा सकती है । और, उस आत्म बोध की स्थिति में व्यक्ति केवल शिवोऽहं के अतिरिक्त कुछ भी कह नहीं सकता । शिव शब्द सापेक्ष नहीं हैं । अर्थात् वे वर्णन से परे वर्णनातीत हैं । इसीलिए, श्रुतियों ने इस सन्दर्भ में कहा है शिवं अद्वैत मन्यन्ते ।

चतुर्थ, यानि तीन से ऊपर, अर्थात्, चेतना की तीन अवस्थाओं जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति की सीमाओं में न बाँधकर अनाविल चेतना का विषय है । सच तो यह है कि जागरण अवस्था की घटनाएँ झूठ होती हैं । मसलन, सूरज डूबता है, हम स्थिर पृथ्वी पर घूमते हैं या आसमान नीला है । सच तो यह है कि सूरज न पूरब में उगता है, न पश्चिम में डूबता है, वह ज्यों का त्यों बना रहता है । पृथ्वी पर हम नहीं, स्वयं पृथ्वी भी घूमती है । आम तौर पर लोग कहते है कि आकाश नीला है । लेकिन, आकाश कितने रंग बदलता है । वस्तुतः, सारी चीजें सापेक्ष हैं । इसलिए, जागृति का कोई सत्य निरपेक्ष नहीं होता । हम जागरण की स्थिति में जो कुछ कहते हैं, निरा झूठ होता है ।

जागरण और नींद के बीच की स्थिति स्वप्न है । स्वप्न में सत्य की प्रतीति जागते ही शुद्ध भ्रम सी लगती है । सच कहा जाय तो स्वप्न दोहरे झूठ का पर्याय है । जब तक हम सपना देखते है तब तक स्वप्न सत्य लगता है, लेकिन जागने पर वह निठाह झूठ में बदल जाता है । नींद की कथा अजीब है । नींद का अधिकांश तो स्वप्न ही होता है जो हमें याद नहीं रहता । हाँ, उसका स्वल्पांश एक दो मिनट का होता है जिसे सुषुप्ति की संज्ञा दी जाती है । सुषुप्ति का अर्थ है स्वं आप्नोति । अर्थात्, जहाँ व्यक्ति की आत्मा अपनी अवस्था में होती है । विडंबना है, इस अवस्था का हमें बोध नहीं होता । अत, कठिन है यह कहना कि नींद में क्या होता है? ये तीन अवस्थायें होती हैं जिनमें सत्य का कोई अनुभव नहीं होता ।

इन तीन अवस्थाओं से पृथक् चौथी अवस्था होती है, जो तीनों में व्यास रहने के बावजूद उनसे अलग होती है और चतुर्थ कहलाती है । इस चेतना की अवस्था को भावातीत या तुरीय कहा जाता है । एक ओर यह तीनों अवस्थाओं से जुड़ी रहती है और कहा भी जाता है तुरीयां त्रिषु संततम् । दूसरी ओर, यह हमें ब्राह्मी अवस्था से मिलाती है । सत्य की अनुभूति हमें इसी अवस्था में होती है । इसीलिए, कहा जाता है शिवं अद्वैत चतुर्थ मन्यन्ते ।

यह विचित्र अवस्था है । इसमें अवस्थित स्वप्नावस्था में भी जाग्रत होता है । गहरी नींद में भी जागरण जैसा सारी सत्ता को यथावत् देखता है । वह जानता है कि नींद में मन कहाँ लीन होता है? वह प्राण को शरीर से पृथक् करके देखता है । कब व्यक्ति चिड़िया बन कर उड़ने लगता है, कैसे कोई बाघ बन कर सामने दहाड़ने लगता है, या कैसे साँप बनकर फुत्कारने लगता है? इस सन्दर्भ में एक उदाहरण लिया जा सकता है । स्वामी रामतीर्थ अमेरिका में भाषण देने गए थे । एक दिन वे शिष्यों को छोड्कर अकेले टहलने निकल पड़े । रास्ते में लौटते समय कुछ धर्मान्ध क्रिस्चिीयन युवकों ने ढेले से उन्हें मारा । वे आहत अवस्था में शिष्यों के बीच लौट आए और घावों से निर्लिप्त रहकर बोले देखो न, वह जो रामतीर्थ आ रहा था, उसे कुछ लोग ढेला मार रहे थे । यह एक स्थिति है, जब व्यक्ति शरीर को आत्मा से पृथक् मान लेता है । वैसे, चोट रामतीर्थ को ही लगी थी, लेकिन वे चेतना को शरीर से अलग मान बैठे थे । प्रत्येक व्यक्ति के लिए ऐसी मान्यता दूर की कौडी है । वैसे, यह किसी साधारण पुरुष की बात नहीं है । किसी योगी की भी बात नहीं है । यह किसी उत्तर योगी के लिए ही संभव है । यही कारण है कि शंकर को योगीश्वर कहा जाता है । यह योगेश्वर से वृहत्तर स्थिति है । गीता ने श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहा है, लेकिन भगवद्गीता में कृष्ण ने शंकर को अपनी आत्मा माना है । वेद का मानना है कि राम चन्द्र में से यदि चन्द्र को हटा दिया जाय तो सारे चन्द्रमा के गुण (विशेषत शीतलता) लुप्त हो जाते हैं और राम अग्नि या रुद्र के प्रतीक हो जाते हैं । शंकर का एक नाम भी रुद्र है । रुद्र, वस्तुत, एकवर्णी ज्योति का पर्याय है ।

एक योगेश्वर है जो निरभ्र आकाश में विचरण करता है और दूसरी ओर योगीश्वर है जो व्योमहीन अम्बर में संचरण करता है । योगेश्वर काल के सभी आयामों में गत्वर रहता है जबकि योगीश्वर कालहीन समय में व्यास रहता है । योगेश्वर सारी सृष्टि के अमृत का पान करता है और योगीश्वर परमेष्टिमंडल के अमृत से संतृप्त बैठा रहता है । एक ओर योगेश्वर श्री कृष्ण जो संसार वृक्ष के किसी भी फल को त्याज्य नहीं मानते । युद्ध के समय भी वे वेदान्त की निर्मल धारा में स्नान करते हैं और निकुंज में गोपियों के परिरंभण का भी रस लेते हैं । दूसरी ओर, योगीश्वर शिव हैं जो निरन्तर परम सिद्धि के सानिध्य में समाधिस्थ रहते हैं । कृष्ण वेद के उस पंछी की तरह हैं वृक्ष के प्रत्येक फल को पूरी तन्मयता से खाता हैं कच्चा पक्का मीठा तिक्त या कडवा करैला जो भी हो । और, बाद में रुक कर सोचता है क्या कुछ पता नहीं? लेकिन, योगीश्वर उस दूसरे पंछी की तरह है जो क् बैठा सब कुछ देखता रहता है । न किसी मोह से ग्रस्त होता है, न कारण सोच करता है । नित्य आनन्द में निरन्तर निमग्न रहता है । रमण महर्षि ने प्रकारान्तर से इसी बात को इस रूप में व्यक्त किया है, In the ourt of Chidambram, Shiva, motionless by nature, dances in rapture for Shakti and She withdraws there into His unmoving self. अब, निष्कर्ष निकलता है कि सत्य अवाच्य है । वाणी से परे, कल्पना से अचुम्बित और कारण से अतीत है । वह गतिहीन है, साथ ही गतिशील भी है । शब्द से बँधने लायक नहीं है । सत्य सर्व सकारात्मक है और साथ ही नकारात्मक, निर्विशेष भी है । एक प्यास की अनुभूति है, लेकिन किसी व्यंजना की पकड़ से बाहर रह जाती है । इसे चाहें तो गूँगे का गुड़ कहें या वैज्ञानिक सन्दर्भ में इसे नृत्य और नर्तक की एकरूपता कहें । सत्य का वास्तविक रूप स्वयं उसकी अपनी इयत्ता है । वह किसी के लिए किसी का नहीं होता । वह उत्तर योगी की मूक अवस्थिति का द्योतक है । जो कुछ है वह सत्य है और जहाँ होना शुरु होता है, वहीं से झूठ का प्रपंच आरंभ होता है । इसी सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई,

जानत तुमहिं, तुमहिं होइ जाई ।

सत्य का प्रश्न इतना दुरूह है कि उत्तर के लिए सिद्ध पुरुष शंकराचार्य की ओर देखना पड़ेगा । मैं कौन हूँ इसके उत्तर में उनका कहना है कि मैं न मनुष्य, न देव, यक्ष, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी कोई नहीं हूँ । मै जाति विवाद से पृथक् हूँ । ये सब देह के धर्म हैं । मैं देह धर्म से ऊपर ज्ञानरूप या आत्मबोध स्वरूप हूँ । अपने अस्तित्व के संबन्ध में उनका कथन है मैं ज्ञानेन्द्रियों या कर्मेन्द्रियों से अतीत हूँ । मैं तो केवल नित्य और शिव स्वरूप, आत्मा हूँ । सत्य पर आवरण से झूठ उत्पन्न होता है जो श्रमसाध्य है । सत्य तो निरन्तर खुला और स्वयं साध्य है । वह शिव स्वरूप है । अहं आत्मा का निकृष्टतम शत्रु है । एक निरहं निराकार आकृति ही सत्य का स्वरूप है । शिव समस्त ऊर्जा के सामंजस्य हैं । ऐसा रूप केवल चेतना के आधार पर ही प्रतिफलित होता है । इसलिए इसे सुन्दर कहा जाता है । वस्तुत व्यक्ति के अन्तर्मन में जिस परम रस का छलकाव होता है उसे प्रचलित शब्दावली में सौन्दर्य कहा जाता है । इसका सत्य से सीधा संपर्क होता है । दैहिक तल पर अंगों का सुभग सन्तुलन सौन्दर्य की सृष्टि करता है । यह एक क्षणिक सुख भी देता है और अन्त में विद्रूप वैभव के दारुण दुख का दैन्य भी देता है । यही संतुलन जब मानसिक हो जाय तो सुख और आनन्द का मिला जुला अनुभव हो जाता है । लेकिन, जब यह परामानसिक अवस्था में पहुँच जाय तो क्षण क्षण नवीन और सतत रमणीय हो जाता है । यह शुद्ध आनन्द का जनक होता है ।

वैसे जगत के काफी लोग हैं जो मानते हैं सत्य कटु होता है । हम उच्च विचार के तल से चाहें तो इसे अल्पज्ञता का प्रलाप कह सकते हैं । वस्तुत सत्य सदा मधुर होता है । जो सत्य है वह कटु नहीं हो सकता और जो कटु है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि कटु और सत्य दोनों शब्द परस्पर विरोधी हैं । इसीलिए, कहा गया है यत् सत्यं तत् शिवम्, यत् शिवम् तत् सुन्दरं । जो शिव है, वही सत्य हे और सत्य और सुन्दर दोनों पारमार्थिक दृष्टि से समानार्थी शब्द हैं ।

सौन्दर्य पर थोड़ी गहराई से विचार करें तो पाएँगे कि आम दृष्टि से हम मात्र भौतिक अवयवों पर ठहर जाते हैं । शरीर के विभिन्न अंगों के सामंजस्य की सुष्ठुता को ही हम सुन्दरता समझ बैठते हैं । लेकिन, सही अर्थ में हमारी दृष्टि का दोष हमारे निर्णय पर हावी हो जाता है । वैसे भी, तन मन की युगल प्रक्रिया में तन ही जीत जाता है । लेकिन, यह प्रक्रिया क्षण भर में ही छू मन्तर हो जाती है । कालान्तर में, जब शरीर की दुर्गन्ध सामने आती है, तब मन शरीर को पटकनी देने लगता है और लगता है कि मन की सुन्दरता ही सुन्दरतर है । मन के ऊपर भी एक उत्तरमन है और सौन्दर्य वहाँ स्थायी भाव ग्रहण करता है ।

शिव शब्द स्वयं इतना भाव भरा है कि बिना बाह्य अवलंबन के सब कुछ बता देता है । प्राचीन ऋषियों के कुछ शब्दों को उलट कर नवीन भाव सृष्टि की है । जैसे, पश्यक का उलटा कश्यप, आत्मा का माता, हिस का सिंह, वेद का देव, खन का नख आदि अनेक शब्द एक अर्थान्तर प्रस्तुत करते हैं जो चेतना के विभिन्न स्तरों पर इन शब्दों की व्याख्या करते हैं । इसी तरह, शिव शब्द का उल्टा विश्व बन जाता है, तात्पर्य यह कि शिव की बात करने में हम केवल विश्व कथा कह सकते हैं । लेकिन, वस्तुत शिव की चर्चा के लिए किसी परात्पर लोक की या ऐंटिब्रह्माण्ड की शरण में जाना पड़ सकता है । शिव केवल कण कण में ही नहीं प्रत्येक प्रतिकण या ऐंटिकण में भी रमण करते हैं । शिव की एक विशेषता यह भी है कि वे वहाँ भी उसी रूप में व्यास हैं, जहाँ हम समझते हैं कि कुछ भी नहीं है । वे मात्र ब्रह्माण्ड के ही नहीं, ऐंटि ब्रह्माण्ड के भी आराध्य है । सृष्टि के सभी अस्तित्व रूपों में उनकी व्याप्ति सहज संभव है, लेकिन, अनस्तित्व में भी उतने ही निर्बाध रूप में शामिल रहना शिवत्व पहली पहचान है । और, यही पहचान उन्हें देवाधिदेव के रूप में स्थापित करती है ।

इन्हीं संधारणों के आलाक में वैदिक ऋषियों ने स्पष्ट शब्द में पूछा था वह कौन अद्भुत देवता है जो पास पहुँचते ही अंतर्धान हो जाता है कस्तद् देव यतद्भुतम् उताधीतम विनश्यति । वह देवता सचमुच विचित्र है, जो दूर से दिखाई तो देता है, लेकिन समीप जाते ही वह ओझल हो जाता है । भारतीय मनीषा उन्हें महज एक देवता ही नहीं, अपितु, महत् देवता की संज्ञा देती है । शिव सचमुच गोतीत है, वे वाणी की वहन शक्ति से परे हैं । संक्षेप में कहें, तो देवाधिदेव हैं ।

शिव साक्षात् करुणा की मूर्ति है । इसका जीवन्त प्रमाण है गंगा का उनके मस्तक से निर्बाध धरती की ओर बहना । वे जलास भेषज भी हैं । ढेर सारे रोगों का निदान जल द्वारा ही संभव है । इस कार्य में गंगा उनकी सहायक है । यदि माँ का दूध न मिले तो गंगा जल से काम लिया जा सकता है । जन्म से लेकर, मृत्यु तक में गंगा जल जीवन को एक स्वस्थ आयाम देता है । लेकिन, अब गंगा स्वयं रुग्ण है और लगता है सारी मानवता दुधमुँहे बच्चे की तरह अपनी सूखे स्तन वाली माँ की ओर उसके वृद्ध मांस से दुग्ध प्रवाह की लालसा में लटकी हैं । कुछ लोग धनोपार्जन के लिए गंगा शुद्धीकरण के लिये कोई न कोई मुहिम चलाते रहेंगे । लेकिन, सब कुछ व्यर्थ हैं । अब, गंगा बँधी है, सैकड़ों बाँध है, हजारों नालियाँ बहती है, अनेक धोबी घाट हैं और सर्वोपरि बात है कि हर आदमी गन्दा है ।

पुराणों की मान्यता के अनुसार कलियुग के पाँच हजार साल बाद गंगा सूख जाएँगी । ब्रह्मन्वैवर्त पुराण का कहना है

कली पंच सहस्रं च वर्षं स्थित्वा च भारते,

जग्मुस्ताश्च सरिद्रूपं विहाय श्रीहरे पदम्।

सरस्वती का गंगा को यहीं शाप था । गंगा ने विपन्न भाव से कहा था अभी मैं भारतवर्ष में जा रही हूँ । लेकिन, जब पापी लोग मुझे पाप से लाद देंगे तब मैं बोझिल होकर स्वयं शिथिल पड़ जाउँगी । अब कलियुग के 5110 वर्ष बीत गये हैं । वैसे, ग्लैशियर का तेजी से पिघलना और गोमुख का गंगोत्री से खिसकना यह संकेत कर रहा है कि गंगा अपने दिव्य नदी रूप से सूख चली हैं ।

प्रश्न उठता है, अगर शिव के मस्तक से गंगा अलग हो जाय या सूख कर बालू की रेत बन जाय तो शिव की करुणा का क्या होगा? एक गंगा धरती पर बहती है, दूसरी आकाश में तारों का समूह समेट कर आकाश गंगा के रूप में प्रवाहित होती है और तीसरी गंगा जिसे पाताल गंगा कहा जाता है, प्रत्येक प्राणी के अन्तर में झिलमिलाती है । पहले पृथ्वी की गंगा सूखेगी । फिर, आकाश गंगा भी किसी तारकीय तूफान में या कृष्ण विवर के आवर्त्त में विलीन होगी । लेकिन, जब तक एक भी प्राणी जीवित रहेगा गंगा ओंकार के रूप में जीवित रहेगी । वस्तुत, शिव के विकराल स्वरूप नर्त्तन होगा जिसे शिव की तीसरी आँख का भ्रू विक्षेप कहा जाता है और, तब एक विराट शून्य और परम शान्त वातावरण का अवतरण होगा जिसे हम महाप्रलय कहते हैं ।

विषय सूची

आभार

8

भूमिका

13

1

ज्योतिर्लिंग का दर्शन

20

2

बर बौराह बसहँ असवारा

29

3

शिव का विष पान

42

4

कालकूट फल दीन्ह अमी को

51

5

त्रिनयन शिव तीसरी संभावना का सन्दर्भ

64

6

अर्द्धनारीश्वर शिव प्रतीक और पल्लवन

86

7

शिव सत्य और सौन्दर्य के सेतु

100

8

गंगा चिन्मय आलोक की नदी

118

9

गंगा विराट संस्कृति की नदी गाथा

133

10

उत्तर मानस की नदी गंगा

146

11

अंतर्लोक की गंगा

158

 

 

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