अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक इच्छाओ तथा आकांक्षाओं को फलीभूत देखने और भाग्य आजमाने दिल्ली पहुँचे दो युवको नीलांबर और देवेन के बहाने लेकिन दरवाजा मात्र महत्वाकांक्षाओं और उनकी सफलता-असफलता की ही कहानी नहीं है बल्कि कला और साहित्य के मूल सरोकारों और संकटो से साक्षात्कार की गाथा है जो अपनी पठनीयता और रोचकता के साथ-साथ समकालीन साहित्यिक और सांस्कृतिक जगत का एक हद तक दस्तावेज भी कहा जा सकता है |
अगर नीलांबर अपने सामर्थ्य, योग्यता और एक व्यक्ति के रूप में अपनी सीमाओ को पहचानने की असमर्थता में महानगर की चुनौती को स्वीकार करता विला जाता है तो देवेन अपने सारी सरलता और ईमानदारी के बावजूद साहित्य और संस्कृति की उस दुनिया को समझने में असमर्थ रहता है जिसको वह इतनी निकटता से देख-सुन रहा होता है | उपन्यास का तीसरा महत्वपूर्ण चरित्र सुमन अपने अदम्य सौंदर्य और आकर्षण के चलते सत्ता, सम्पन्नता और सफलता की इस महानगरी का एक मायने में जीता-जागता प्रतिरूप है | इन पात्रो के अंतर्संबंधों और अंतर्जगत को तलाशते पंकज बिष्ट आठवे दशक के कला, साहित्य, मीडिया, और अखबारों के उस संसार की पड़ताल भी करते है जब साहित्य-संस्कृति के सरोकार उस हद तक व्यावसायिक नहीं हुए थे जैसे की आज नजर आते है | इस मामले में लेकिन दरवाजा को आनेवाले उस संसार की चेतावनी के रूप में भी देखा जा सकता है जो कलाओ पर व्यावसायिकता के दबावों को लगभग डेढ़ दशक पहले पहचान सका था |
लेकिन दरवाजा रचनाकार होने की असामान्यता नहीं, सामान्यता और सहजता की तलाश करनेवाला उपन्यास है |
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