पुस्तक के विषय में
जीवनानंद दास (1890-1954) की कविता ने रवींद्रनाथ के बाद बांङ्लाभाषी समाज की कई पीढ़ियों को चमत्कृत किया है, और उनकी कविता बनलेता सेन तो मानों अनिवार्य रूप से कंठस्थ की जाती रही है ।
आधुनिक बाङ्ला कविता को उनका योगदान अप्रतिम है। प्रकृति से उनके गहरे तादात्म्य ने बाङ्ला कविता को कई अनूठे बिंब दिये है । जीवनानंद दास समर्थ गद्यकार भी थे । उनकी मृत्यु के बाद उनके लिखे कई उपन्यास भी प्रकाश में आये हैं । कहानियाँ भी उन्होंने लिखी हैं ।
यही स्मरण कर सकते हैं कि जब 1955 में अकादेमी ने स्वीकृत भारतीय भाषाओं में से प्रत्येक की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक कृति पर पुरस्कारों की स्थापना की तो बाङ्ला में पुरस्कार के लिए चुनी जाने वाली पुस्तक जीवनानंद दास की श्रेष्ठ कविता ही थी । अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद में प्रस्तुत इस विनिबंध का यहतीसरा संस्करण है, और इसमें दी गई कविताएँ अंग्रेजी अनुवादों से न होकर मूल बांङला से ही प्रयाग शुक्ल द्वारा अनुदित की गई हैं । इसका तीसरा संशोधित- परिवर्द्धित संस्करण इस बात का भी प्रमाण है कि इसे हिन्दी-जगत में पसंद किया गया है ।
फिल्म पारखी और साहित्य-कला प्रेमी चिदानंद दासगुप्त (जन्म: 1921, शिलड्) का कामकाज बहुविध रहा है । उन्होंने फिल्म-निर्देशन की दुनिया से लेकर बाङ्ला से अंग्रेजी अनुवाद और अंग्रेजी पत्रकारिता समेत कई क्षेत्रों में बहुमूल्य योगदान किया है । फिल्म-संबधी उनके लेखन ने सुधी पाठकों को हमेशा आकृष्ट किया है । 1947 में उन्होंने सत्यजित राय और हरिसाधन गुप्ता के साथ मिलकर कोलकाता फिल्म सोसायटी की स्थापना की थी, जिसके कारण बंगाल के फिल्मकार और बुद्धिजीवी तथा अनेक फिल्म प्रेमी विश्व सिनेमा से रूबरू हो सकें । जीवनानंद दास के साथ उनकी घनिष्टता रही थी ।
प्रस्तुत विनिबंध के अनुवादक तथा कवि, कथाकार, निबंधकार और कला आलोचक प्रयाग शुक्ल (जन्म: 1940, कोलकाता) के नौ कविता-संग्रह, पाँच कहानी-संग्रह और तीन उपन्यास प्रकाशित हैं । आज की कला पुस्तक समेत अंग्रेजी-हिन्दी में कला पर आपका प्रचुर लेखन उपलब्द है । आपने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि का बांड्ला से हिन्दी अनुवाद किया हे तथा बंकिम बाबू के निबंधों के हिन्दी अनुवाद के लिए आपको साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है ।
अनुवादक की टिप्पणी
मैंने ये अनुवाद मूल बाङ्ला से किये है, उन्हीं 29 कविताओं के जो चिदानंद दासगुप्त ने अपने अंग्रेज़ी में लिखित विनिबंध के लिए चुनीं और अनुदित की थी । इस विनिबंध का हिंदी अनुवाद में, प्रथम संस्करण 1977 में प्रकाशित हुआ था, दूसरा 1982 में निकला और अब तीसरा 2009 का है। इस तीसरे संस्करण में मैने बाड्ला मूल से किये गए अपने अनुवादों में मामूली सा ही फेरबदल किया है। ये अनुवाद हिंदी पाठक समाज में पसंद किये गये है, और पाठकों का भी यह आग्रह रहा है कि विनिबध का एक नया संस्करण प्रकाशित हो इस बात का कुछ संतोष मुझे है जीवनानंद दास को कविता में मेरी दिलचस्पी युवा दिनों से ही रही है, और जब मैं बीस बरस का था, तब कोलकाता में रहने हुए मैंने उनकी चर्चित कविता बनलेता सेन का अनुवाद किया था, जो कृति मासिक मे प्रकाशित हुआ था उसके बाद से भी उनकी कविता के अनुवाद तो करता रहा हूँ पर, इस विनिबध के लिए अनुवाद करते वक उनकी कविता में पैठने का एक सुअवसर मुझे मिला उनके बिबों से विस्मित कर देने वाली मौलिकता और प्रकृति उपकरणों से जीवनग्राही शक्ति समेट लेने की क्षमता है उनका शब्द व्यवहार अद्वितीय है जो एक गहरी ऐंद्रिकता से परिपूर्ण है । जीवनानंद दास की कविता में जीवन के बहुविध प्रसगों, और स्थितियो में बड़े ही सूक्ष्म ढंग से प्रवेश करने की एक आकुलता-सी है। और उनकी कविता को पढते हुए जहाँ एक मनोहारी, अदृश्य ओझल सा लोक प्रकट होता है, वही वह पारलौकिक तत्वों के साथ, इस लोक से भी उतनी ही बंधी है। इतिहास और मिथक भी उनकी कविता में सहज ढंग से विचरण करते हैं मानवीय साँसे इनमें पिरोयी हुई हैं तो पशुपक्षी और वनस्पति जगत की अनेक सूक्ष्म तरंगे और ध्वनियाँ भी वह सौदर्य के रचयिता भी हैं, और उसके आविष्कारक भी । इस विनिबंध में उनकी कविता से सबधित सामग्री है और मूल बाड्ला से किय हुए उनकी 29 कविताओं के हिंदी अनुवाद प्रस्तुत हैं लेकिन, यह भी एक ध्यान देने लायक तथ्य है कि उनके निधन के उपरात प्रकाश में आया, उनका कथा साहिल भी कम उल्लेखनीय नहीं है, जिसकी खोजखबर उनकी कविता के पाठक भी पिछले वर्षों में रखने आये हैं। उनका लेखन विपुल है और उनका कथा साहित्य भारतीय भाषाओ में अभी पूरी तरह आया नहीं है ।
यह विनिबध उनके कवि रूप से ही एक सम्यक परिचय कराता है मैंने प्रत्येक अनुवाद के कम से कम तीन—चार प्रारूप तो बनाए ही, उन्हे माँजता भी रहा लेकिन कही न कहीं तो विराम देना ही था कविता का अनुवाद, कभी पूरी तरह आश्वस्त करता नहीं है, पर पाठकों से इन अनुवादों को जो प्रेम मिला है, उसने मुझे इतना भरोसा तो दिलाया ही है कि मेरा श्रम और श्रम से प्राप्त आनंद सार्थक हुआ है यह इच्छा भी हुई कि तीसरे संस्करण के समय इसमें कुछ अनुवाद और जोड़े जाएँ फिर लगा कि चिदानंद दासगुप्त की मूल परिकल्पना के अनुसार ही, अनुवादों की सख्या भी वही रहनी चाहिए जो पहले संस्करण में थी ।
इस बात की प्रसन्नता स्वाभाविक रूप से है कि इस हिंदी अनुवाद का यह तीसरा संस्करण है कविता-पुस्तक का हर नया संस्करण, प्रसन्न करने वाला ही होता है, फिर यह तो काव्य अनुवाद का, एक और संस्करण है, इसलिए प्रसन्नता दुगुनी है ।
सुधी पाठकों और काव्य मर्मज्ञों के प्रति भी आभार प्रकट करने का यह एक सुअवसर है ।
अनुक्रम
1
समय
11
2
व्यक्तित्व
17
3
कवि
19
4
अनुवाद
31
संदर्भ सूची
65
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