गीतांजलि: Gitanjali

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Item Code: NZA985
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Prakashan
Author: रवींद्रनाथ ठाकुर (Rabindranath Thakur)
Language: Hindi
Edition: 2013
ISBN: 9788173095788
Pages: 339
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 370 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

रवींद्रनाथ टैगोर, चॉसर के संदेशवाहक की भांति, अपने शब्दों में गीत लिखते हैं और पाठक प्रत्येक क्षण समझता है कि ये बहुत विशाल, बड़े ही स्वाभाविक, बड़े ही उन्मुक्त भावुक और बड़े ही अद्भुत हैं, क्योंकि वे एक ऐसा कार्य कर रहे हैं जो किसी प्रकार विचित्र, अस्वाभाविक या प्रतिक्रियात्मक प्रतीत नहीं होता । ये कविताएँ उन तरुणियों की मेज पर सुंदर छपी हुई छोटी पुस्तक के रूप में नहीं पड़ी रहेंगी, जो अपने अलस करों से उठाकर एक उसी निरर्थक जीवन पर आहें भर सकें, जितना मात्र की वे जीवन के विषय में जान सकी हैं, अथवा जीवन के कार्य व्यापार में अभिनव प्रविष्ट छात्र उसे विश्व- विद्यालय में एक तरफ रख देने मात्र के लिए ले जाएँ बल्कि क्रमागत पीढ़ियों में यात्री लोग राजमार्ग पर चलते हुए और नावों में आगे बढ़ते हुए गुनगुनाएँगे।एक-दूसरे की प्रतीक्षा करते हुए प्रेमी इन्हें गुनगुनाते हुए इस ईश्वर-प्रेम में एक ऐसी ऐंद्रजालिक खाड़ी पाएँगे जिसमें उनका उग्रतर प्रेमोन्माद स्नान करके अपने यौवन को नवीन कर सकेगा। इस कवि का हृदय प्रतिक्षण बिना किसी प्रकार के अद्यःपतन के अप्रतिहत रूप से उन तक जाता है, क्योंकि इसने जान लिया है कि वे समझेंगे; और इसने अपने को उनके जीवन के वातावरण से आर्च कर रखा है ।

प्रकाशकीय

कवींद्र रवींद्र की नोबेल पुरस्कार प्राप्त विश्वप्रसिद्ध कृति 'गीतांजलि' आधुनिक भारतीय साहित्य की वह अन्यतम कृति है जिस पर हम सभी भारतीयों को गर्व है। विश्वकवि ने विश्व मानव को प्रेम और मानवता का जो अद्भुत गीत दिया वह आज की भागम-भाग भरे समय में और भी प्रासंगिक हो गया है। इस महान कृति ने विश्व-साहित्य को भारत की ओर से अनुपम उपहार दिया है। स्वयं रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा किए गए 'गीतांजलि' के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में डब्ल्यू.बी. येट्स ने ठीक ही लिखा है कि ''एक प्रकार की निर्दोषता और सरलता जो किसी भी साहित्य में अन्यत्र दिखाई नहीं पड़ती और परिणामस्वरूप चिड़ियाँ और पत्तियाँ उनके लिए बच्चों के समान अनुभूति-योग्य हो जाती हैं और हमारे विचारों के सम्मुख महती घटनाओं की तरह ऋतु परिवर्तन उनके और हमारे बीच आ उपस्थित होता है।''

विश्वकवि की एक सौ पचासवीं जयंती के अवसर पर मंडल द्वारा 'गीतांजलि' का प्रकाशन हमारे लिए गौरव की बात है। लालधर त्रिपाठी 'प्रवासी' के मौलिक अनुवाद से निःसंदेह पाठकों को मूल पाठ का आस्वाद मिलेगा।

 

अनुक्रम

1

दो शब्द

19

2

आत्म-निवेदन

21

[प्रथम पंक्ति की सूची]

3

अपनी चरण- धूलि के तल में

25

4

अमित वासना प्राण से चाहता पर

27

5

जिनको न जानता था तुमने बता दिया है

29

6

दुख से मुझे बचा लो

30

7

अंतर मेरा विकसित कर दे

32

8

प्रेम, प्राण, गान, गंध, ज्योति, पुलक में अमंद

33

9

नितू नूतन बन कर प्राणों में तुम आओ

34

10

खेल धान के खेत बीच

35

11

सखे, आज आनंद-सिंधु से

36

12

दुख के अश्रु-धार से साजूँगा सोने की थाल

37

13

काश गुच्छ को बाँध,

38

14

मंद मधुर पवन लगे शुभ्र पाल में

40

15

मेरा हृदय-हरण धन आया

41

16

जननी, तब अरुण करुण चरण

43

17

भर रहीं आनंद की तानें दिगंत

44

18

उमड़ घुमड़ घन पर घन छाते

45

19

कहाँ प्रकाश, प्रकाश न कण भर

47

20

श्रावण-घन के गहन तिमिर में

49

21

यह असाढ़ की घनी साँझ

51

22

प्राणाधार, करूँगी तुम पर आज प्रेम-अभिसार!

53

23

जानता हूँ भली- भांति किस आदि काल ही से

54

24

हे कलावान् तुम किस प्रकार करते हो मादक गान

56

25

इस प्रकार छिपकर जाने से

57

26

इस जीवन में मिल न सको यदि

59

27

लोक-लोक में देख रहा हूँ

61

28

अब चलें घाट से, सखी, कलश भर लावें!

62

29

मेघ की जल धारा झर-झर

63

30

तेरी सजग प्रतीक्षा भी है,

65

31

घन, जन में हैं लीन,

67

32

यह तो तेरा, प्रेम सलोने हे मेरे चित चोर!

68

33

मौन खड़ा हूँ देव, आज गाने को तेरा गान

69

34

भय को मेरे दूर करो हे, देखो मेरी ओर!

70

35

घिर रहा यह हृदय फिर से,

71

36

कब से चले आ रहे मुझ से

73

37

आओ, आओ मेघ,

74

38

छंद-रचना मैं नहीं क्या

75

39

छूटा रे वह स्वप्न निशा का,

77

40

आनंद-गान गा रे

78

41

यहाँ जो गीत गाने को चलीं

80

42

खो जाती जो वस्तु उसे

82

43

अहंकार का मलिन वसन व्यसन भरा

83

44

आज हमारे अंग-अंग में पुलकावलि छाई

84

45

तुम को पिन्हाने के लिए

85

46

जगती के आनंद-यज्ञ में

86

47

करके प्रकाश को प्रकाशवान् चौगुना

87

48

आसन-तलकी धूलि उसी में मैं मिल जाऊँगी

88

49

अरुप रतन की आशा में

89

50

गगन-तल में खिला सहसा

90

51

हृदय बिछा कर बैठे वे

92

52

शांत प्राण के देव

95

53

किस प्रकाश से आशा-दीप

96

54

तुम्हीं हमारे स्वजन, तुम्हीं हो पास हमारे

97

55

अवनत कर दो देव, मुझे तुम

98

56

गंध-विधुर समीर में मैं

100

57

आज वसंत द्वार पर आया!

101

58

अपने सिंहासन से पल में

102

59

अपनाओ इस बार मुझे हे,

104

60

जीवन जिस क्षण सूख चले

105

61

नीरव कर दो, हे!

106

62

विश्व जब हुआ प्रसुप्त,

107

63

वह आकर बैठा पास यहाँ

108

64

सुनती नहीं पद-ध्वनि उसकी

109

65

मान गया मैं हार

110

66

एक-एक कर खोलो गायक,

111

67

कब मैं गान तुम्हारा गाता

112

68

प्रेम तुम्हारा वहन कर सकूँ

114

69

आए तुम थे मनोज्ञ, आज प्रात में

116

70

हम तुम खेला करते थे जब

117

71

प्राण, दी तुमने नौका खोल

118

72

खो गया हृदय अधीर जलद-जाल में

119

73

हे मूक, यदि नहिं बोलोगे

120

74

जितनी बार जलाना चाहूँ

121

75

छिपा कर दुनिया से मैं नाथ,

122

76

वज्र-सी उठे बाँसुरी तान

123

77

दया करके मेरा जीवन

124

78

होगी जब सभा समाप्त,

125

79

चिरजन्म की हे वेदना

126

80

जब तुम आज्ञा देते मुझको गाने की

127

81

जाती जैसे मेरी सारी अभिलाषा

128

82

दिन में वे आए थे

129

83

लेकर तेरा नाम लिया कर

130

84

आज चाँदनी रजनी में

131

85

बात थी, एक नाव से, देव,

132

86

अपने एकाकी घर की,

133

87

मैं अकेला घूम सकता हूँ नहीं

135

88

यदि जगा दिया मुझे, अनाथ जान कर

137

89

चुन लो, हे, अविलंब सुमन को

138

90

तुम्हें चाहता, प्राण,

139

91

प्रेम हृदय का नहीं भीरु है

140

92

कठिन स्वरों में झंकृत कर दो

141

93

यह अच्छा करते हो, निष्ठुर,

142

94

देव समझ कर दूर रहूँ मैं

143

95

जो तुम करते कार्य,

144

96

विश्व संग मिल कर करते विहार हो वहीं

145

97

लो पुकार हे, पुकार के बुला मुझे

146

98

रे, जहाँ हो रही लूट भुवन में तेरी

147

99

विकसित करते फूल-सदृश तुम गान हमारा

148

100

किए रहूँगी ओंखें तेरी ओर

149

101

फिर से आता आषाढ़ गगन में छाकर

150

102

देख रहा, मानव वर्षा का

151

103

भर प्राणों में कौन सुधा हे देव, करोगे पान!

153

104

यह जीवन की साघ हमारी

154

105

एकाकी निकली मैं घर से

155

106

देख रहा हूँ तुम लोगों की ओर

156

107

अपने सिर पर अपने को

157

108

जागो, हे मेरे मन

158

109

हैं जहाँ सब से अधम रे,

162

110

भाग्य हीन हे देश

164

111

छोड़ना नहीं जकड़े रहना

167

112

हृदय पूर्ण है मेरा अब

169

113

इसी से नाम मैं लेता नहीं तेरा हृदय-वासी

170

114

अरे, यह कौन कहता है

171

115

संध्या में यम आ पहुँचेगा

173

116

दया करके स्वयं लघु बन

175

117

चरम पूर्णता मेरे जीवन की

176

118

राही हूँ,

178

119

उड़ती ध्वजा है अरी, अभ्रभेदी रथ पर

180

120

भजन, ध्यान, साधन, जप फेंक रे कहीं

182

121

सीमा में तुम असीम भरते निज स्वर

184

122

इसी से तो तेरा आनंद

185

123

सखे, यह मान का आसन

186

124

प्रभु-गृह से आया जब वीरों का दल

187

125

सोचा था कि कार्य पूर्ण हो गया, सखे अशेष

188

126

अलंकार सब छोड़ रहा है

189

127

निंदा, दुख, अपमानों से

190

128

नृप का वेश बना कर माँ

191

129

पतले, मोटे दो तारों में

193

130

देने के योग्य न दान

195

131

इसी लिए मैं जग में आया

197

132

जीवन में ये दु:स्वप्न विष्य बन

198

133

मैं सदा खोजता रहा तुम्हें

199

134

जीवन की इति तक भी

200

135

मिलने दो सब आनंद रागिनी होकर

201

136

आगे पीछे जब मुझे बाँध देते हो

202

137

जब तक तू है शिशु-सा निर्बल

203

138

यह चित्त कब हमारा रे नित्य सत्य होगा

204

139

तुमको अपना स्वामी समझूँ

205

140

इतना दे दिया मुझे

206

141

सुनता ओ नाविक,

207

142

मन का औ काया का

208

143

निज नाम से ढकते जिसे

210

144

हमारा नाम जब मिट जाएगा

211

145

जड़ा हुआ जिन बाधाओं से

212

146

तेरी दया नहीं भी यदि

213

147

आराधना हमारी सब पूर्ण हो न पाई

215

148

एक नमस्कार प्रभो

216

149

जीवन में जिस का आभास नित मिले

218

150

नित्य विरोध नहीं सह सकती हूँ

220

151

करूँ प्रेम को आत्म-समर्पण

221

152

जो मुझे प्रेम करते जग में

222

153

कब प्रेम दूत को भेजोगे

223

154

गान गवाए तुम ने मुझ से

224

155

सोचा, हुआ समाप्त किंतु यह

225

156

ले लेने पर पूर्ण

226

157

दिवस यदि हुआ समाप्त

227

158

नदी पार का यह जो आषाढ़ी प्रभात

228

159

जाते जाते मेरे मुख से

229

160

मेरा अंतिम यही निवेदन

231

161

तुमने मुझे अनंत बनाया

233

162

होऊँगा मैं खड़ा प्रति दिवस

235

163

मृत्यु-दूत को मेरे घर के द्वार

236

164

वैराग्य साधन में मिले जो मुक्ति

238

165

राजेंद्र, तुम्हारे हाथ काल है

240

166

दान तुम्हारा मर्त्यवासियों की

242

167

चित्त जहाँ भयशून्य, उच्च मस्तक नित रहता

243

168

मेरे अंग-अंग में तेरा स्पर्श

244

169

एक साथ ही तुम्हीं नीड़ हो

245

170

दीर्घ काल से अनावृष्टि

246

171

क्षणभर सुख के लिए

247

172

दो-चार दिवस का प्रश्न नहीं

248

173

उस दिन जब खिला कमल

250

174

छोडूँ नाव आज मझधारे

252

175

आज निशा की अलस पलक में

253

176

''बंदी, बोलो किसने तुमको-

254

177

रहने दो इतना शेष कि मैं

255

178

छाया में छिप सब से पीछे

256

179

एक दिन था, जब तेरे लिए

260

180

मुझे तब मिलता हर्ष अपार!

262

181

ढल चली राह देखते रात व्यर्थ ही आशा में उनके

264

182

प्रात के शांति-सिंधु में उठीं

266

183

गया था भीख माँगने आज भींगी

269

184

निशा; काम दिन भर के

271

185

सोचा माँग मैं गुलाब का हार

275

186

कितना सुंदर केश तुम्हारा मोहन,

278

187

कुछ तुम से पूछा नहीं, नहीं

279

188

अंतर में है आलस्य अभी आँखों में नींद तुम्हारे है!

281

189

एरे प्रकाश मेरे प्रकाश,

282

190

मेरी नस नस में दौड़ रही

284

191

शिशुगण अनंत लोक-सिंधु तीर आ मिले

286

192

नींद जो कि बच्चों की आँखों पर

288

193

जब रंगीन खिलौने लाता

290

194

उससे विजन सरि-तीर

292

195

जो मेरी आत्मा के अंतस्तल में

295

196

मेरी पृथ्वी पर रवि की

297

197

अपने लिए करूँ मैं सब कुछ,

299

198

निज गंभीर गुप्तस्पर्शों से

301

199

जब थी सुष्टि नवीन हुए ज्योतित नव तारे,

303

200

शरत् काल के मेव खंड-सा नभ

304

201

खोए हुए समय पर कितनी काटीं आँखों में रातें

305

202

खोजता प्रबल आस में किंतु

306

203

भग्न मंदिर के विस्मृत देव,

307

204

न कोलाहलमय ऊँचे शब्द

309

205

जानता, आवेगा वह दिन

311

206

अवकाश पा चुका हूँ!

303

207

इस बिदा के समय सखी, करो

315

208

रहा अनजान किया कब पार प्रथम मैंने जीवन का द्वार!

317

209

पराजय के अनेक उपहार हार से तुम्हें सजाऊँगा!

318

210

छोड़ देता हूँ जब पतवार

320

211

कह दिया सभी से गर्व सहित

321

212

तुम निज सृष्टि-पथ रखती हो घेर कर

323

परिशिष्ट

213

रवींद्र का जीवन

325

214

प्रस्तावना

331

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