मनुष्य जाति आदिम काल से लेकर वर्तमान समय तक अनेक आतंरिक बाह्य समस्याओं से जूझती आ रही है, चाहे वह आत्म-व्यथा हो या समाजजनित पीड़ा या पारिवारिक, आर्थिक अथवा धार्मिक द्वंद्व । इन सभी मसलों से दिन-प्रतिदिन जूझता प्रभावित होता उसका संघर्षशील अंतर्मन निज से परोन्मुख होता हुआ सर्वमानव कल्याण हेतु निरंतर विचार-मनन का मार्ग भी ग्रहण करता है। भारतीय समाज ने भी जब-जब राजनीतिक धार्मिक सांस्कृतिक संकटों का सामना किया है तो हमारे संत-साहित्यकारों ने मूलतः मानवमात्र के उत्थान और मानसिक शांति के प्रेरक बनने के साथ समाज में व्याप्त अशांति और धर्म-जातिगत विद्रूपता पर कठोर-मधुर वाणी-प्रहार करके स्वस्थ समाज की पुनर्रचना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
कोई भी साहित्यकार किसी प्रभाव के अभाव में रचना नहीं कर सकता। वह अपने परिवेश, अपने समय-चक्र से निरंतर प्रभावित होता हुआ समाज से ग्रहण किए हुए तत्वों को सुसंस्कारित परिमार्जित-कांतासम्मत रूप में समाज को ही लौटाता है। मूलतः संत का मूल धर्म मानव धर्म है और वह निरंतर मानव-धर्म का चिंतन करता हुआ समाज में समरसता की स्थापना का प्रयास करता है। लोकोपकारी संत का मानदंड उसकी लोकहितकारी वाणी ही है और उसके लिए उसका शास्त्रज्ञ और सुशिक्षित होना जरूरी नहीं है। हमारे अधिकतर संत-साहित्यकार अशिक्षित अथवा अल्पशिक्षित ही होने के कारण इनकी भाषा प्रायः अनगढ़ अवश्य है किंतु सच्ची और खरी अनुभूतियों की सहज और सुबोध्य अभिव्यक्ति के कारण इन संतों की अधिकतम रचनाएँ न केवल उत्तम कोटि के साहित्य में परिगणित होती हैं अपितु अद्यसामयिक प्रश्नों-प्रसंगों में भी आधुनिक मनीषियों द्वारा उद्धृत की जाती हैं।
पंद्रहवीं शती विक्रमी के उत्तरार्ध से उद्भूत संत-परंपरा में रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य और मध्वाचार्य से निःसृत भक्ति की वेगमयी धारा उत्तरोत्तर विकसित होती हुई उत्कल में संत जयदेव, महाराष्ट्र में संत नामदेव और संत ज्ञानदेव, पश्चिम में संत सधना और बेनी, असम में शंकरदेव और माधवकंदली तथा कश्मीर में संत ललद्यद में विस्तार पाती हुई मानवमात्र का कल्याण करती रही। इन संतों के चिंतन का आधार मानवकल्याण है और इनकी दृष्टि में मानव मानव में कोई भी भेद नहीं है। इनका मानना है कि कोई भी व्यक्ति किसी विशेष कुल में जन्म लेकर विशेष नहीं हो जाता। इन संतों ने मनुष्यों में भेद करने वाली जाति-व्यवस्था का कठोरता से विरोध किया और सबको एक समान मानकर प्रेमभाव से देखने पर बल दिया है। कबीर ने मनुष्यों के बीच भेदभाव और ऊँच-नीच की भावना को विकास में बाधक माना है और स्पष्ट संदेश दिया है 'जौ तूं बामन बामनी जाया, तौ आन बाट हवे क्यों नहीं आया। जौ तू तुरुक तुरकानी जाया, ती भीतर खतना क्यों न कराया।"" गोस्वामी तुलसीदास ने भी राम द्वारा शबरी के जूठे बेर ग्रहण करने और निषादराज तथा भालू-बंदरों के मित्रता करने के अद्भुत प्रसंगों द्वारा मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र के माध्यम से समाज को प्रत्येक मानव ही नहीं, सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखने का संदेश दिया है। संत रामानंद यदि सामाजिक बदलाव के लिए सभी के साझे प्रयासों का आह्वान करते हैं तो संत नामदेव सर्वधर्म समानता का संदेश अपने अभंगों के माध्यम से देते हैं।
इस परंपरा में जितने भी संत-भक्त कवि हुए, उन सबने मानवता को ही सर्वोपरि मानते हुए उसे दूषित करने वाले विचारों-कृत्यों की जमकर भर्त्सना की, अपनी कविताओं और संदेशों द्वारा समाज में फैले अज्ञान, पाखण्ड और मानव-विरोधी भावनाओं पर प्रहार करते हुए परस्पर प्रेम-भाव का संदेश दिया। संत-साहित्य ने भारतीय समाज और संस्कृति को आध्यात्मिकता के साथ न केवल उच्चतर मानवीय मूल्य प्रदान किए हैं, अपितु आचरण में नैतिकता और संयमशीलता बरतने का आग्रह भी किया है।
भाषा पत्रिका का प्रस्तुत संयुक्तांक अपने मिश्रित कलेवर के साथ आप सुधी पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। इस अंक में स्मृति कलश कालम के अंतर्गत हिंदी साहित्य की महान विभूतियों श्रद्धेय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, बालकृष्ण भट्ट, डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी को उनके जन्मदिवस पर भावमय श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनके द्वारा रचित एक-एक निबंध को संचयित किया गया है। प्रस्तुत अंक में संकलित आलेखों में संत-साहित्य के विभिन्न पक्षों को छूते आलेख समाहित हैं तो निकट अतीत में प्रणीत रचनाओं का भिन्नपक्षीय आकलन भी। श्रवण बाधित विद्यार्थियों की समस्याओं जैसे सामाजिक चिंतन के अछूते साहित्येतर विषयों तथा ब्रिटिश उपनिवेशवाद और प्रेस नियंत्रण कानून एवं विज्ञानकथा से संबंधित तथ्यपरक आलेखों को पत्रिका में शामिल करने का प्रयास किया गया है। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित तथा हिंदी साहित्य की साठोत्तरी पीढ़ी के सुप्रसिद्ध लेखक काशीनाथ सिंह जी के साक्षात्कार ने इस संयुक्तांक की गरिमा में और अभिवृद्धि की है।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस अंक की सामग्री हमेशा की तरह पाठकों के लिए हृदयग्राही और उपयोगी सिद्ध होगी। आपकी सहृदय प्रतिक्रियाओं और आशीर्वचनों की प्रतीक्षा रहेगी।
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