किसी भी साहित्य में वही लेखक सर्वाधिक ग्राह्य अथवा पठनीय माना जाता है जिसकी रचनाओं में सतत सार्वभौमिक दृष्टि समाहित हो, जिसने अपने लेखन को पहले जिया हो फिर कलमबद्ध किया, जिसकी रचनाएँ मात्र क्लिष्ट वाग्जाल न होकर उसके मानस के भीतर से निर्झर की भांति निःसृत होती हों, जिनमें मात्र लेखक के अपने भाव-विचार ही नहीं, अपितु उसके समय का पूरा इतिहास ही रूपाकार ग्रहण कर जाए। ऐसे विरल रचनाकारों में गिनती होती है हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार और शलाकापुरुष डॉ. रामदरश मिश्र की। कविता-लेखन से शुरू हुई उनकी सहज-संवेदी सृजनात्मकता ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं और खास तौर से कविता की कई शैलियों का गहराई से स्पर्श किया है। उनकी इस दीर्घ साहित्य-यात्रा में अपने समय और समाज के भोगे हुए अनुभवों की अभिव्यक्ति है और विभिन्न विधाओं में लेखन की चुनौती की स्वीकृति के साथ सृजन की शाश्वत लोक-धर्मी प्रतिबद्धता।
मूलतः कवि के रूप में स्थापित मिश्र जी ने अपनी सर्जना के विविध रंगों को कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृतांत, निबंध, संस्मरण और डायरी जैसी विभिन्न विधाओं में सहजता और स्थिरता से पिरोया है। उनकी रचना-प्रक्रिया में समाहित धीरे-धीरे का भाव उनके लेखक के असीम धैर्य और अविचलित संतुलन का द्योतक है जिसकी दृढ़ता उन्हें अपने दीर्घ रचनाकाल में किसी भी समय किसी भी वाद या विचारधारा से ग्रस्त नहीं होने देती। मिश्र जी का मानना है कि किसी भी वाद या विचारधारा या दल से जुड़कर लेखक की वाक्-स्वतंत्रता बाधित होती है। सृजन में आत्मीयता तभी होगी जब आप किसी वाद से नहीं, मनुष्य की पीड़ा से जुड़ेंगे, उसके साथ खड़े होंगे।
मिश्र जी मूलतः ग्राम संवेदना और बोध के रचनाकार हैं जो गाँव तक ही सीमित न रहकर महानगर के जनजीवन तक विस्तारित होता है। ग्राम्यता का यह बोध, गाँव की मिटटी का भीनापन उनकी सृजनात्मकता का अभिन्न हिस्सा है जो शहरी पृष्ठभूमि की रचनाओं में स्वयं ही उपस्थित रहता है। उनकी रचनाओं का परिवेश और भाषा आंचलिकता से महकते हैं। अपनी सांस्कृतिक जड़ों से निरंतर कटते और योरोपीय परिवेश के ब्लैक होल में ढलने को आतुर वर्तमान भारतीय समाज के लिए मिश्र जी का जीवन और उनका साहित्य न केवल प्रेरणादायी बल्कि अनुकरणीय है।
यह वर्तमान हिंदी-प्रेमी पाठक, साहित्यकार एवं शोधार्थी पीढ़ी का सौभाग्य है कि रामदरश मिश्र जी जैसे शती-साहित्यकार एवं बहुआयामी व्यक्तित्व का सान्निध्य हमको प्राप्त हुआ है और हम उनके शताब्दी वर्ष के हर्षोल्लास को उन्हीं के साथ मना रहे हैं। भाषा का यह अंक रामदरश मिश्र जन्मशती विशेषांक के रूप में प्रस्तुत करते हुए भाषा परिवार अपार प्रसन्नता अनुभव कर रहा है। इस अंक में संगृहीत आलेखों में उनकी रचना-यात्रा के विविध सोपानों को विभिन्न विधाओं और रचना-शैलियों में उनके लेखकीय योगदान के विवेचन द्वारा रेखांकित किया गया है और साथ ही उनके जीवन से जुड़े ऐसे कई विशिष्ट प्रसंगों को भी लेखकों ने भावुकता के साथ उकेरा है जिससे मिश्र जी के सहज-सरल निजी व्यक्तित्व का भी सहज भान हो जाता है। मिश्र जी के कृतित्व की एक छोटी सी-झाँकी प्रस्तुत करने का प्रयास करते हुए उनकी आठ मौलिक लघु रचनाओं को भी धरोहर कालम के अंतर्गत रखा गया है।
शताब्दी पुरुष रामदरश जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के समग्र पक्षों को इस पत्रिका के सीमित कलेवर में समेटना तो संभव नहीं है, इसके बाबजूद हमें यह आशा है कि यह विशेषांक उनके योगदान को रेखांकित करने में महत्वपूर्ण सिद्ध होगा।
मिश्र जी का वरदहस्त वर्तमान और भावी साहित्य-प्रेमियों पर आगे भी दीर्घकाल तक बना रहे इसी सुहृद कामना के साथ,
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