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भाषा: सितंबर-अक्तूबर 2024- Language: September-October 2024

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Specifications
Publisher: Central Hindi Directorate
Author Edited By Sunil Baburao Kulkarni
Language: Hindi
Pages: 200
Cover: PAPERBACK
10x6.5 inch
Weight 340 gm
Edition: 2024
HBU783
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Book Description
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संपादकीय

किसी देश के ज्ञानगत, भावगत और अभिव्यक्तिगत स्वरूप की समग्र पहचान सुनिश्चित करने में भाषा, संस्कृति और साहित्य की सम्मिलित भूमिका होती है। संस्कृति देश के ज्ञान-विज्ञान, जीवन-मूल्य, कला, रीति-रिवाजों आदि की समेकित सामाजिक जीवन-शैली को निर्दिष्ट करती है। साहित्य समकालीन समाज और उसकी मनोवृत्तियों को प्रतिबिंबित करता है और भाषा सामाजिक तत्त्वों से युक्त उस संपूर्ण सांस्कृतिक प्रतिकृति का निर्माण करती है जो साहित्य को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ पीढ़ियों के रीति-रिवाजों, परंपराओं और सूक्ष्म चेतनाओं को भी अपने साथ लेकर चलते हैं। भाषा में ही संस्कृति के विविध रूप अपनी संपूर्णता के साथ विकसित, पल्लवित और प्रकटित होते हैं। भाषा, साहित्य और संस्कृति के मध्य विद्यमान यह परस्पर अन्योन्याश्रित स्थिति जहाँ एक दूसरे को परिपुष्ट करती है, सहेजती है और संरक्षित करती है वहीं समाज को विकसित, परिष्कृत और सुसंस्कारित करते हुए उसे व्यापक दृष्टि भी प्रदान करती है। प्रसिद्ध समाज भाषावैज्ञानिक डेल हायेम्स जब 'भाषा में संस्कृति' का सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं तो कहीं न कहीं अपने मस्तिष्क में यही विचार लेकर चलते हैं जो बताता है कि एक के बिना दूसरे की व्याप्ति और समझ अधिकांश स्थितियों में असंभव सी ही है। चूँकि भाषा विशिष्ट सांस्कृतिक संदर्भों में अपना विकास करती है इसीलिए हर देश की भाषा के सांस्कृतिक संदर्भ वैविध्यमूलक होते हैं और स्वसंस्कृति के अनुसार ही उस समाज में भाषिक कोडों के प्रयोग भी निर्धारित किए जाते हैं जो भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में विपरीत भी हो सकते हैं।

विश्व परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत भाषा, साहित्य और संस्कृति तीनों दृष्टियों से अत्यंत समृद्ध राष्ट्र है। भारतीय संस्कृति में निहित वैश्विक कल्याणपरक दृष्टि और जीवन आदर्श जहाँ उसे विश्व गुरु बनाते हैं वहीं भारत की भाषायी विविधताएँ और उसमें निहित अपार ज्ञान स्रोत उसे विश्व की केंद्रीभूत ध्रुवदृष्टि के रूप में स्थापित करते हैं। निस्संदेह भारतीय भाषाओं में देश की दीर्घकालिक सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत निहित है जिसके महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार द्वारा अभी हाल में ही तमिल, संस्कृत, ओड़िआ, तेलुगु, कन्नड और मलयालम इन छह भाषाओं के साथ-साथ असमिया मराठी, बंगाली, पाली और प्राकृत भाषा को भी शास्त्रीय भाषाओ का दर्जा दिया गया है। शास्त्रीय भाषाओं का मानदंड सिद्ध करता है कि इन भाषाओं के पास प्राचीन ऐतिहासिक और समृद्ध साहित्यिक धरोहर है जो देश के सांस्कृतिक परिवेश को प्रभावित करने में सक्षम है। ये भाषाएँ न केवल नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने में सहायक हैं बल्कि ज्ञानाश्रित समाज की निर्मिति में भी प्रभावी हैं। शास्त्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त होने के साथ ही इन भाषाओं में अध्ययन के लिए उत्कृष्टता केंद्रों का निर्माण किए जाने का प्रस्ताव भी है जिससे शोध और अध्ययन को बढ़ावा मिलेगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा केंद्रीय विश्वविद्यालयों में इन भाषाओं के प्रतिष्ठित विद्वानों हेतु वित्तीय अनुदान देते हुए एक निश्चित संख्या में व्यावसायिक पीठ बनाए जाएँगे, जिससे भाषा और साहित्य के क्षेत्र में शोध प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। इसके अलावा शास्त्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने से इन भाषाओं के उत्कृष्ट योगदानकर्ताओं को विश्वव्यापी पुरस्कार भी मिलेंगे, जो उनके काम को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने में मददगार होंगे।

ग्यारह भाषाओं को शास्त्रीय दर्जा देने का यह निर्णय भाषाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शन मात्र नहीं है बल्कि यह वह गंभीर मुद्दा है जो भाषाओं के अस्तित्व, उनके संरक्षण और संवर्धन से भी जुड़ा हुआ है। विश्व भर की भाषाओं पर छाया संकट हमें समय रहते सचेत हो जाने के लिए आगाह कर रहा है। इस प्रकार के ईमानदार प्रयासों से प्राचीन और महत्त्वपूर्ण भाषाओं के प्रति अनुसंधानपरक और शैक्षणिक वातावरण निर्मित किए जाने में सहायता मिलेगी और उनके विकास से जुड़े संसाधनों को भी प्रोत्साहन मिलेगा। निश्चित ही ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की भाषाओं के प्रति ये कार्य सराहनीय हैं लेकिन इनके साथ ही प्राचीन भाषाओं में निहित ज्ञान-विज्ञान की सामग्री के व्यापक डिजिटलीकरण और दस्तावेजीकरण की भी गहन आवश्यकता है जिससे ज्ञान संपदा का दीर्घकालिक संरक्षण किया जा सके और उसे सीखने तथा जानने के लिए युवा पीढ़ी को जागरूक भी किया जा सके। इन सबके साथ ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है हमारा अपनी मातृभाषा और देश की अन्य भाषाओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण। यदि हम अपनी भाषाओं के प्रति गर्व और सम्मान की भावना रखते हैं, स्वयं उसका व्यवहार करते हैं और अपने बाल-बच्चों, युवा पीढी को भी उसका प्रयोग करने को प्रेरित करते हैं तो न केवल स्वयं की अद्वितीय अंतर्दृष्टियों की रक्षा कर सकते हैं बल्कि विश्व को भी भाषाओं की असमय क्षति से बचा सकते हैं। इसलिए आवश्यक है कि सामूहिक प्रयासों द्वारा भाषाओं की जीवंतता बनाए रखने हेतु निर्धारित मानदंडों का पालन करें, क्योंकि किसी भी भाषा का खोना एक बहुत बड़ी सांस्कृतिक विरासत को खोने के समान है।

अपने महान राष्ट्र की समस्त भाषाओं के प्रति गर्व और सम्मान युक्त इस निष्पक्ष भावना के साथ भाषा का यह अंक आपके समक्ष प्रस्तुत है। हमारा प्रयास रहता है कि 'धरोहर' 'स्मृति कलश' खंड में सम्मिलित साहित्य उसके मूल रूप को सुरक्षित रखते हुए प्रकाशित किया जाए, जिससे पाठक तयुगीन भाषा, शैली और वर्तनी से परिचित हो सकें। इसमें आपसे प्राप्त सराहना हमारे लिए उत्साहवर्धक है। अंक कैसा लगा, आपके सुझावों और विचारों का स्वागत है।

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