बच्चों की दुनिया का हर रंग है इन बाल कहानियों में कहानियाँ बच्चों को आनंदित करती हैं। वे कहानियाँ पढ़ते हैं तो बिना पंखों के उड़ते हुए किसी और ही दुनिया में पहुँच जाते हैं, जहाँ बहुत कुछ नया-नया सा है। वहाँ उत्फुल्ल करने वाली कल्पनाएँ हैं, जो हमारी इस यथार्थ की दुनिया में ही संभावनाओं के नए-नए कपाट खोल देती हैं, और हम खुद को एक ऐसी जगह महसूस करते हैं, जहाँ उम्मीदों के दीये जल रहे हैं और लगता है, वह सब भी संभव है, जिसे हम करना तो चाहते हैं, पर वास्तव की दुनिया में हमें जिसकी गुंजाइश नहीं लगती।
मैं समझता हूँ, कहानी की सबसे बड़ी ताकत यह है कि जिन चीजों की गुंजाइश वास्तव की दुनिया में नहीं है, कहानियाँ अपनी किस्सागोई के जादू से उसकी भी तनिक गुंजाइश पैदा कर देती हैं। और हम सोचते हैं, जो आज संभव नहीं है, वह समय की धारा में बहते हुए, कभी तो संभव होगा। जरूर होगा। और कहानियाँ हमारी इस उम्मीद को बड़ा सहारा देती हैं। यों कहानियाँ हैं तो जीवन है, कहानियाँ हैं तो हमारे जीने में भी रस है, आनंद है, उत्फुल्लता है। इसीलिए कहानियाँ हजारों बरसों से मनुष्य की सहयात्री रही हैं और उनका आनंद कभी किसी युग में कम नहीं हुआ।
यह लिखते हुए याद आ रहा है कि मेरा बचपन तो कहानियों की छाँह में ही गुजरा। बचपन में माँ, नानी और अड़ोस-पड़ोस के आत्मीय जनों से सुनी कहानियाँ मैं आज भी भूल नहीं पाया। बल्कि सच तो यह है कि वे मेरी सबसे अच्छी दोस्त और हमसफर भी हैं। मेरे सुख-दुख की साथी। उन्हीं के साथ मैंने सबसे पहले बिना पंखों के उड़ना सीखा था और जाना था कि जिस दुनिया में मैं जीता हूँ, उसमें कितने रंग-रूप, कितने नए-नए गवाक्ष और कितनी अचरज भरी विविधताएँ हैं। यकीनन मैं आज लेखक न होता, अगर बचपन में मैंने माँ और नानी से इतनी सुंदर कल्पनाओं और आश्चर्यों से भरी वे कहानियाँ न सुनी होतीं।
जब मैंने कहानियाँ लिखनी शुरू कीं, तो जाहिर है, दादी-नानी की कहानियों का आकर्षण मेरे सामने था। मैंने कोशिश की कि मेरी हर कहानी उसी तरह अपनी किस्सागोई से पाठकों को बाँध ले, जैसे बचपन में माँ और नानी कहानियों का मुझ पर असर पड़ा था। पर एक हकीकत यह भी थी कि मेरा समय अब बदल गया था, मेरे आसपास का जीवन और जीवन-स्थितियाँ भी। तो क्या वे कहानियाँ हमारे वक्त में कुछ पुरानी-धुरानी और नाकाफी नहीं हो जाएँगी? क्या हम उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमते रहें और आगे न बढ़ें? निस्संदेह यह ऐसी बात है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर यह बात भी मन में रह-रहकर उठती थी कि कहानियों में अगर किस्सागोई नहीं है, तो भला वे पाठकों को कैसे बाँध पाएँगी, और बच्चे उन्हें पढ़ेंगे ही क्यों? और किस्सागोई की बात याद आते ही मुझे फिर से माँ और नानी की कहानियाँ याद आ जाती थीं। और उनका कहानियाँ सुनाने का जादू भी।
कुल मिलाकर ये दो सीमाएँ थीं, जिनके बीच से मुझे रास्ता निकालना था। और मैंने अपने तईं यह रास्ता निकाला कि जो भी मैं कहानी लिखूँगा, वह आज के समय और आज की जीवन स्थितियों की कहानी होगी, पर उसे मैं उसी किस्सागोई में ढालकर कहूँगा, जिसे मैंने अपनी माँ और नानी से सीखा। केवल मेरी माँ और नानी ही नहीं, हमारे वक्त की हजारों-लाखों दादी-नानियाँ इस कला में उस्ताद थीं। लिहाजा खुद-ब-खुद मेरी कहानियों का रास्ता मेरे दौर के दूसरे कहानीकारों से कुछ अलग होता चला गया। और मैं कहूँगा, अपनी ही राह चलकर मैंने कहानियों का यह रास्ता खोजा है, जिसमें कल्पना और फंतासी भी है, मेरे समय के अक्स और जीवन यथार्थ भी। साथ ही, आज का बचपन और उसकी बहुतेरी मुश्किलें भी। कैसे वह मेरी कहानियों में एकरूप होता है, यह तो ठीक-ठीक मैं भी नहीं जानता।
अलबत्ता मेरी बाल कहानियों की कोई पचहत्तर पुस्तकें हैं, और उन पर बीच-बीच में बाल पाठकों की इतनी मीठी, रसपूर्ण चिट्ठियाँ और फोन पर संवाद होता रहता है कि लगता है, मैं और लिखूँ। बहुत कुछ लिखूँ, और नन्हे-नन्हे पाठकों के साथ खुद भी अपना बचपन जीते हुए, एक बार फिर उसी तरह आनंदविभोर हो जाऊँ, जैसे नानी और माँ की कहानियाँ सुनते हुए आनंदित होता था।
यह ठीक है कि आज स्थितियाँ बदल गई हैं। नए जमाने के साथ बहुत कुछ नया-नया सा आ गया है। बहुत कुछ पुराना था, जो छूट रहा है। पर जो पुराना था, वह सब कुछ बेमानी था और जो नया है, वह अच्छा ही अच्छा है, ऐसा मैं नहीं मान पाता। पुराने समय में दादी-नानी की कहानियों की जो परंपरा थी, वह मुझे अनमोल लगती है। और पुराने वक्तों की दादी-नानियाँ सिर्फ कहानियाँ ही नहीं सुनाती थीं, वे बच्चों की सच्ची दोस्त बनकर उनका हर सुख-दुख बाँटतीं और साथ ही कोई मीठी सलाह भी दे देती थीं। वे बातें रोशनी के टिमटिमाते दीयों की तरह आज भी हमारे साथ हैं।
और दादी-नानी की कहानियाँ! भले ही उनमें कल्पना कुछ अधिक हो, लेकिन एक ही दुनिया के भीतर कितनी दुनियाएँ हो सकती हैं, यह मैंने पहली बार माँ और नानी से कहानी सुनते हुए ही जाना था। तभी जाना कि एक राजा और एक हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले लकड़हारे की दुनिया एक नहीं है। राजा की दुनिया ताकत, वैभव और अभिमान की दुनिया है, तो लकड़हारे की दुनिया एक मेहनतकश आदमी की दिन-रात रोटी के लिए तरसती दुनिया है। सारे दिन हाड़-तोड़ काम करने के बाद भी भूख हर क्षण उसे अपने सामने बैठी नजर आती है। तो भी उसके भीतर का स्वाभिमान हार नहीं मानता, और किसी बड़े से बड़े सिंहासन के आगे झुकना नहीं जानता।
फिर कहानी की दुनिया में बहुत कुछ उलट-पलट भी होता है। यहाँ तक कि एक झोंपड़ी में रहने वाली बुढ़िया भी अगर अपनी पर आ जाए तो वह राजा को लताड़ सकती थी। याद पड़ता है कि बचपन में यह कहानी सुनते हुए मैंने कैसा रोमांच महसूस किया था। असल दुनिया में यह सब था या नहीं, कितना था, कितना नहीं- मैं नहीं जानता। पर कहानी में था, यह बड़ी बात है। और फिर इसी कहानी में हम राजा को उस बुढ़िया माई के आगे हाथ जोड़े, विनम्रता से माफी माँगते हुए देखते हैं, "ठीक है, माई, तेरी झोंपड़ी को अब कोई हाथ भी नहीं लगाएगा। मेरा नया महल कहीं और बन जाएगा, और न भी बनेगा तो कोई बात नहीं। पर तेरी झोंपड़ी को कोई अपनी जगह से हिलाएगा नहीं...!"
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