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आधुनिक गुजराती एकांकी- Aadhunik Gujarati Ekanki: Play (An Old and Rare Book)

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Includes any tariffs and taxes
Specifications
Publisher: Hindi Sahitya Academy, Gujarat
Author Edited By Chinu Modi, Kishore Kabra
Language: Hindi
Pages: 297
Cover: HARDCOVER
8.5x5.5 inch
Weight 390 gm
Edition: 1997
HBX823
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Book Description

सम्पादकीय

नाटक, जीवन की सम्पूर्णता का अभिनयात्मक विश्लेषण है। साहित्य की यह एक ऐसी विधा है, जिसमें दृश्य, श्रव्य एवं पाठ्य का त्रिवेणी संगम होता है; जिसमें अतीत, वर्तमान और अनागत की प्रतिध्वनियाँ रंगमंच पर आकार लेती हैं; जिसमें व्यक्ति, समाज और राष्ट्र, कथ्य के रूप में ही नहीं, अपितु सत्य के भी रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। यही एक विधा है, जिसमें कविता, कहानी, उपन्यास, जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, रिपार्ताज आदि गल-गलकर एकत्र होते हैं। रूपक के इसी रूप-विधान को देखकर संभवतः 'काव्येषु नाटकं रम्यम्' कहा गया है।

गुजराती नाटकों की अपनी गरिमामय प्रशस्त एवं स्वस्थ परंपरा रही है। सन् १८४२ में गुजराती नाटकों के लिए मुम्बई में पहला थिएटर जगन्नाथ शंकर सेठ ने शुरू किया। वह थिएटर लन्दन के थिएटरों को मॉडल मानकर बनाया गया था । उस थिएटर में पारसी-गुजराती में अनूदित नाटकों का मंचन होता रहा। सन् १८५१ में दलपतराम ने उसी शैली को आधार बनाकर 'लक्ष्मी' शीर्षक नाटक लिखा, जो प्रकाशित हुआ। उसी दशक में शुद्ध गुजराती आंचलिक भाषा में उन्होंने 'मिथ्याभिमान' नाटक लिखा । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि गुजराती रंगमंच और गुजराती नाटक का इतिहास डेढ़ सौ वर्ष ही पुराना है, वैसे भवाई की लोकनाट्य-परंपरा तो आज से छह सौ पूर्व असाइत ठाकुर द्वारा प्रारंभ हुई थी। गुजराती नाटक और रंगमंच का इतिहास, भारतीय भाषाओं में संस्कृत को छोड़कर सबसे प्राचीन है। १२वीं सदी तक अनहिलवाड़ (पाटन) में संस्कृत नाटक लिखे जाते थे और उनका मंचन भी होता था ।

अंग्रेजों ने गुजराती भाषा को केवल साहित्यिक गद्य का मॉडल ही नहीं दिया, गद्य के अनेक स्वरूप प्रदान किए। एकांकी उनमें से एक है। प्रारंभ में व्यावसायिक रंगमंचों पर समानान्तर रूप से चलते 'फारस' में इसका मूल ढूँढ़ा जा सकता है, वैसे उत्साह में आकर हम असाइत के 'वेश' में एक अंक के नाटक के बीजों का अंकुरण देख सकते हैं। भरत के नाट्यशास्त्र में एक अंक के नाटकों का जो वर्गीकरण किया गया है, उसमें 'भाण' इत्यादि को एकांकी का मूल मानकर हम चाहें तो अंग्रेजों के ऋण से मुक्त हो सकते हैं, परन्तु सही बात यह है कि बटुभाई उमरवड़िया और यशवन्त पण्ड्या ने अंग्रेजी के 'वन एक्ट प्ले' के आधार पर ही गुजराती में एकांकी का स्वरूप निर्धारित किया है।

एकांकी, अनेकांकी नाटकों में से लिया गया एक अंक नहीं है। यह एक स्वतंत्र विधा है। लाघव इसका प्राण है और कहानी की सभी शर्तें एकांकी की शर्तों के रूप में मान्य हैं। इस लाघवयुक्त नाट्य-स्वरूप में पौराणिक, ऐतिहासिक एवं रूढ़ कथाकारों से लेकर 'एब्सर्ड' तक को गुजराती एकांकियों ने आत्मसात् किया है। गाँव या नगर तो ठीक, काल्पनिक स्वर्ग एवं नरक तक का परिवेश गुजराती एकांकियों में प्रयुक्त हुआ है । आंचलिक शब्दावली से लेकर तत्सम शब्दों से युक्त शिष्ट एवं परिमार्जित गुजराती भाषा के साथ एकांकियों ने आत्मीयता स्थापित की है। शृंगार, हास्य, करुण और अद्भुत रस का परिपाक गुजराती एकांकियों में पूरी तरह से हुआ है। इस तरह, बीसवीं सदी के पहले दशक के बाद प्रारंभ होने वाले एकांकियों ने अपने स्वरूप का ऐसा कलात्मक ढाँचा तैयार किया है कि कविता और कहानी के बाद इस विधा में ही गुजराती साहित्यकारों का सबसे अधिक उत्स प्रकट हुआ है। कविता, कहानी और उपन्यास लेखन में सिद्धहस्तता प्राप्त करनेवाले प्रतिभा सम्पन्न सर्जकों को एकांकी ने आकर्षित किया। नाटक के साथ विशेषरूप से जुड़े रहनेवाले एकांकीकारों का भी यहाँ एक वर्ग है। जिस तरह सुन्दरम् और उमाशंकर से लेकर लाभशंकर तक के कवियों ने एकांकी लिखे हैं, उसी तरह के. एम. मुंशी, पन्नालाल पटेल, मड़िया आदि से लेकर मधुर राय जैसे 'फ़िक्शन' लिखनेवाले सर्जकों ने भी एकांकी लिखे हैं। चन्द्रवदन, बटुभाई, यशवन्त पण्ड्या और जयन्ती दलाल जैसे विशिष्ट नाटककार भी एकांकी के साथ सहजभाव से जुड़े हैं। इस तरह, अधिक-से-अधिक सर्जकों को एकांकी ने अपनी ओर आकर्षित करके गुजराती भाषा को धन्य किया है।

बटुभाई उमरवाड़िया और यशवन्त पण्ड्या ने इस शताब्दी के दूसरे दशक में एकांकी की जमीन को तोड़ने का सफल प्रयत्न किया है। 'हंसा' और 'शरतना घोड़ा' जैसे सार्वकालिक रसप्रद एकांकी इन नाटककारों से प्राप्त हुए हैं। लघुनाटक और एकांकी के बीच की सीमा को बारंबार मिटानेवाले ये नाटककार उपर्युक्त दो कृतियों से गुजराती में एकांकी के स्वरूप की समझ पैदा करते हैं और इस विधा की विलक्षणताओं को पूरी सामर्थ्य के साथ प्रकट करते हैं। 'हंसा' और 'शरतना घोड़ा' जैसी एकांकियों को प्रारम्भिक इतिहास के दो सुनहरे पृष्ठ माना जा सकता है । नाटककार के लिए अपेक्षित संघर्षात्मक कथानक, पात्रोचित क्रियाप्रेरक संवाद और संश्लिष्ट संकलन बटुभाई और यशवन्त पण्ड्या को सफल और सार्थक एकांकीकार सिद्ध करते हैं। ये एकांकी केवल प्रिण्ट मीडिया के लिए ही नहीं, रंगमंच के लिए भी समृद्ध और उपयुक्त सिद्ध हुए हैं। चन्द्रवदन मेहता, साहित्य के साथ ही रंगमंच और अभिनय-निर्देशन से जुड़े एकांकीकार हैं, परन्तु उनके एकांकियों में उन्हीं के बहुअंकी नाटकों की तरह ही संवेदना के स्थान पर भावुकता अधिक है। तालमेल का अभाव उनकी कृतियों को नाटक होने से रोकता है। सुव्यवस्थित संकलन के अभाव में चन्द्रवदन के एकांकियों की भी एक मर्यादा बन गई है; फिर भी, गुजरात में एकांकियों का माहौल खड़ा करने में चन्द्रवदन मेहता का योगदान बहुत अधिक है। इस रंगकर्मी सर्जक ने गुजरातियों के चित्त में नाटक के विषय में गंभीरता से विचार करने योग्य वातावरण निर्मित करने में सफलता प्राप्त की है।

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