भाषा, संस्कृति और संस्कारों की संवाहक होती है। देश और समाज में ज्ञान का प्रकाश भी अपनी भाषा में सरलता व आसानी से व्याप्त होता है। देश की प्रगति में भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है। विश्व में लगभग सभी विकसित राष्ट्रों में उन्नति, उनकी अपनी मातृभाषा में शिक्षा से हुई, वहाँ के शासन-प्रशासन, उच्च शिक्षा, शोध कार्य आदि सभी का माध्यम उनकी अपनी भाषा में ही है। माँ, मातृभूमि और मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं होता है।
देश की शिक्षा नीति उस देश की प्रकृति, संस्कृति और प्रगति के अनुरूप होना चाहिये यह आनन्द और प्रसन्नता का विषय है कि 34 वर्षों के उपरांत देश में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 सामने आई है। यह भारत केन्द्रित व समग्रता के साथ भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता व अनेक विशेषताओं के साथ हमारे सम्मुख आई है। छोटे बच्चे अपने परिवार की भाषा, मातृभाषा में जल्दी किसी बात को ग्रहण कर लेते हैं, इसलिए बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा (भारतीय भाषा) में हो, इस पर ध्यान दिया गया है। विद्यालयीन शिक्षा के साथ उच्च शिक्षा में भी अनेक महत्वपूर्ण कदम भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिये उल्लेखित है।
भारत की भाषाएँ विश्व में सबसे समृद्ध, वैज्ञानिक और सबसे सुन्दर भाषाओं में से है, जिनमें प्राचीन और आधुनिक साहित्य के विशाल भण्डार हैं। भारतीय भाषाओं में लिखा गया साहित्य, भारत की राष्ट्रीय पहचान और धरोहर है। भाषा, संस्कृति और कला से अटूट रूप से जुड़ी हुई है। परिवार की भाषा अपनेपन का अहसास कराती है और भावनाओं की अभिव्यक्ति भी करती है। संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार के लिये हमें अपने देश की भाषाओं का संरक्षण व संवर्धन करना होगा। यह तब ही संभव होगा, जब उन्हें नियमित रूप से तथा शिक्षण अधिगम के लिये उपयोग किया जाये।
महात्मा गांधी जी, आचार्य विनोबा भावे जी, पं. मदनमोहन मालवीय जी, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी आदि महापुरूषों और शिक्षाविदों ने भी इसी प्रकार के सुझाव दिये हैं कि शिक्षा, मातृभाषा में ही होना चाहिये। भाषा से सम्बन्धित कई अध्ययन हुए हैं, उन सबका निष्कर्ष भी यही है।
विश्व में भारत ऐसा देश है, जहाँ मौसम, खान-पान, वेषभूषा और भाषा में इतनी विविधता है, यह विविधताएँ हमारी ताकत है और भाषा यह एकता और एकात्मता का सशक्त माध्यम होती है। भारतीय भाषाओं में जो साम्यता है, वह दूसरे देश की भाषाओं के साथ देखने को नहीं मिलती है। इनके मध्य अनेक प्रकार की सन्निकटता है। इन भाषाओं के स्वरूप में एक अन्र्तनिहित वैज्ञानिकता भी है, संभव है इन भाषाओं का देववाणी संस्कृत से गहराई से संबंध होने के कारण भी ऐसा हो यह वस्तुतः उच्चारण व व्याकरण दोनों ही दृष्टि से एक पूर्ण और वैज्ञानिक भाषा है।
भाषा संस्कृति, वैचारिक, भावनात्मक समरसता की सेतु भी है. जब कोई दो भाषा-भाषी नितान्त अजनबी लोग मिलते हैं. क्या वे आपसी भाषा के लिये कोई तीसरी भाषा का उपयोग करते हैं, अपवाद हो सकता है। भाषाई सेतु के माध्यम से अजनबीपन समाप्त हो जाता है और अपनापन आ जाता है, जो एक दूसरे के विचारों के प्रति उत्सुक व ग्रहणशील बनाता है। यह विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है, जिससे गुजरकर दोनों, भाषा की दृष्टि से समृद्ध होते है।
देश में भाषाओं को लेकर विशेष रूप से हिन्दी के क्षेत्र में उसके सृजन की दृष्टि से अनेक प्रयास हो रहे हैं। उन प्रयासों में मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी भी सन् 1969 से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यपुस्तकें व संदर्भ ग्रंथ पुस्तकें उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका भावी पीढ़ी के निर्माण में निभा रही है, क्योंकि पीढ़ी को गढ़ने के कार्य में भाषा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
हिन्दी भाषा में लेखन का कार्य करने वाले विद्वानजन साधुवाद के पात्र हैं। लेखन यह वैचारिक प्रवाह को बल प्रदान करता है। पठन-पाठन का मजबूत आधार मातृभाषा में प्रदान करने में योगदान देने वाले सभी विद्वतजनों का मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी की ओर से हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ और आगे भी आपके स्नेह, सहयोग और अपनत्व की अपेक्षा है।
विद्वतजन सुधी पाठकगण से विनम्र निवेदन है कि अपने अमूल्य सुझावों से लेखन व प्रकाशन को समृद्ध बनाने में सहयोग प्रदान करें।
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