भारतीय परिवेश में गुरु के प्रति समर्पण उन्मादी स्थिति तक रहा है।
भारतीय गुरु के सम्बन्ध में कुछ कहने से पूर्व हमें गुरु के प्रति पश्चिम की आतुरता को भुलाना होगा, जहाँ गंगा कैलिफोर्निया की मरुभूमि से प्रवाहित होती है। यहाँ गुरु की महिमा के विवेचन में हम उसकी 'फिनामिनोलाजी' (घटनाक्रम) पर ही विचार करेंगे।
वैदिक-युग हमारा बहिर्मुखी जातीय परिवेश है, जहाँ शून्य का आविष्कार यज्ञ की वेदिकाओं से होता है। यही वैदिक ऋषि जब पूर्णता की ओर बढ़ता है, तो उसे परिवर्तन के काल से होकर गुजरना पड़ता है। जातीय स्मृतियों से पृथक् उसमें दीक्षापरक प्रच्छन्नता आ जाती है, फिर भी वह समूह के साथ जुड़ा रहता है। समाज के अन्तर्गत उसकी भूमिका एक दर्शक ऋषि की होती है, जो सभी वस्तुओं में कार्य-करण संबंध खोजता है। वैदिक कर्मकाण्ड आंतरिक एकता का नाट्य-प्रदर्शन है। यहाँ ऋषि का समाज से विरक्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं उपस्थित होता। सृष्टि के साथ यह अन्तः संबंध भारतीय इतिहास से कभी ओझल नहीं हुआ है। हाँ, कर्मकाण्डीय, जनजातीय तथा उन्मुक्त समाज के विघटन के साथ ही जातिपरक समाज की स्थापना हुई, जिसमें शून्य के विचार तथा शून्य के आदर्श पर बल दिया गया। अब विरोधों की स्थिति में शून्य की आध्यात्मिक व्याख्या निर्वाण, मोक्ष, मुक्ति या समाधि आदि नामों से होने लगी, जिसे हम 'सम्पूर्ण स्वीकृति' या 'सम्पूर्ण अस्वीकृति' भी कह सकते है। मोक्ष का जातीय तथा जनजातीय स्वरूप त्रिवर्ग की कल्पना से पूर्व एक-समान था। त्रिवर्ग के सिद्धांत ने जब धर्म, अर्थ और काम को स्थापित किया, तो चौथा मोक्ष उससे अपने-आप जुड़ गया। इस प्रकार की स्थिति तक वैदिक और आरण्यक साहचर्य था। बस्तर में 'ऋषि' का विपर्यय 'सिरहा' आज भी सामुदायिक चेतना का मूल स्रोत है। ऋषि का उन्नयन गुरु के रूप में बहुत बाद में हुआ।
'गुरुमत' के आविष्कार से पूर्व 'उपनिषद्' शब्द इस तथ्य का आख्यापक है, कि किसी के सामने 'बैठकर' अपनी समस्याओं का निराकरण कर सकता था। अथर्ववेद तक गुरू अर्थ 'भारी या महान्' था। शतपथ ब्राह्मण में पहली बार "गुरुप्रसादनीय" वाक्यांश मिलता है।
गुरु की संकल्पना के साथ ही ऋषि की भूमिका में विपर्यास होता है- यह स्वीकृति है कि त्रिवर्ग की अस्वीकृति से ही मोक्ष संभव है। तब सन्यासी को त्यागी होना पड़ा। अर्थ यह हुआ कि गुरुमत अहम् (व्यक्तित्व) के अधिकार के लिए भी चुनौती बन गया; विरोधाभास यह कि उसका लक्ष्य आत्मतत्व की खोज था। इस आत्मतत्व के दर्शन मात्र समाज का दर्पण बन गया, किन्तु सामाजिक एकता का सूत्र उससे छूट गया। 'जीवन्मुक्त स्थिति तक के अपने शारीरिक बंधन से गुरु समाज का प्रतीकात्मक शीर्ष बन गया।
बालक शंकर के मन में जब सब कुछ छोड़ देने का भाव आया, तो उन्होंने ' से संसार से निर्लिप्तता की बात तो की-
प्रबलानिलवेगवेल्लितध्वजचीनांशुककोटिचंचले। अयि मूढमतिः कलेवरे कुरुते कः स्थिरबुद्धिमम्बिके। भ्रमतां भववत्र्त्मनि भ्रमान्नहि किंचित् सुखमम्ब लक्षये। तदवाप्य चतुर्थमाश्रमं प्रयतिष्ये भवबन्धमुक्तये (माधवाचार्य, शंकरदिग्विजय, सर्ग 5)
किन्तु माता से विदा लेते हुए बाल शंकर ने उनसे या समाज से दूरी बनाए रखने नहीं पाला। उन्होंने अपनी जननी को यह भी विश्वास दिलाया कि 'माँ मैं आऊँगा'-
अहमम्ब रात्रिसमये समयान्तरे वा संचितय स्ववशगादवशगाऽथवा माम्।
एष्यामि तत्र समयं सकलं विहाय विश्वासमाप्नुहि मृतावपि संस्करिष्ये।।
(व्यासाचल, शंकरदिग्विजय, 4:52)
आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में नर्मदातट पर स्थित गोविन्दपादाचार्य के आश्रम में कालडी के बालशंकर का जिस दिन प्रवेश हुआ, समूचे भारत में युगान्तर घटित हो गया। ओंकारेश्वर के पास गुरु गोविन्दपाद के द्वारा दीक्षित बाल शंकर ने अपनी प्रतिभा और पाण्डित्य के बल पर समूचे राष्ट्र को अद्वैत के सूत्र में बाँध दिया और समूचा राष्ट्र संगठित हो गया। गोविन्दपादाचार्य के शिष्य थे बाल शंकर। गोविन्दपादाचार्य की गुरु-परम्परा को माधवाचार्य (शंकरदिग्विजय, 5:105) ने इस प्रकार श्लोकबद्ध किया है-
व्यासः पराशरसुतः किल सत्यवत्यां तस्यात्मजः शुकमुनिः प्रथितानुभावः।
ताच्छिष्यतामुपगतः किल गौडपादो गोविन्दनाथमुनिरस्य च शिष्यभूतः।।
गोविन्दपाद के शिष्य आदि शंकराचार्य और उनकी शिष्य-परम्परा की एक अटूट श्रृंखला। गोविन्दपादाचार्य के शिष्य आचार्य शंकर मात्र दार्शनिक ही नहीं थे, वे तद्युगीन जड़प्राय भारत के उद्धारक भी थे। वे मध्यप्रदेश की गरिमामयी शिष्य-परम्परा के उन्नायक थे। मध्यप्रदेश की उक्त विस्मृत परम्परा को यहाँ आरेखित करने का विनम्र प्रयास है।
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