पिता
: स्व० श्री चन्द्रप्रकाश
माता
: श्रीमति दुलारी
जन्मतिथि
: पौष शुक्ल अष्टमी विक्रम संवत् 2016, रेवती नक्षत्रे उत्पन्न तदानुसार 6 जनवरी 1960, प्रातः 8 बजे
जन्म स्थान : ग्राम शहबाजपुर, डाकघर व याना-मण्डावर, जिला-बिजनौर, उ.प्र.
गोत्र चन्द्रवंशी पुरूरवा के वंशज 'पौरव' कुल के रवा राजपूतों में अहार गोत्र
कुलगुरू
: महर्षि वैशम्पायन (महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास के शिष्य)
शिक्षा
: एम.ए. (भूगोल) एवं बी. एड. (वर्धमान कॉलेज बिजनौर - रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय बरेली उ.प्र. के अन्तर्गत), द्वितीय एम.ए. (इतिहास) एवं पीएच. डी. (भूगोल), विषय 'महाभारत प्रादेशिक भूगोल का एक अध्ययन', (एम.एम.एच. कॉलेज गाजियाबाद, चौ० चरणसिंह विश्व विद्यालय, मेरठ उ.प्र. के अन्तर्गत)
अध्यावसाय
शिक्षा विभाग, दिल्ली से अवकाश प्राप्त
'अखण्ड भारत' पुस्तक लिखने का विचार एक संकल्पना के रूप में कई वर्षों से मन में मन्थन कर रहा था। प्रत्येक वर्ष 14 अगस्त को 'अखण्ड भारत दिवस' हम लोग मनाते आ रहे हैं। अनेक स्थानों पर जिन लोगों के मन में भारत के खण्डित अथवा विभाजन होने की पीडा सताती रहती है और आगे अपनी मातृभूमि फिर से खण्डित न हो. ऐसी सजगता मन में रहती है, वे देश भक्त लोग प्रतिवर्ष 14 अगस्त को अखण्ड भारत दिवस मनाते हैं और अखण्ड भारत का धरातल पर मानचित्र बनाकर दीप प्रज्वलन का कार्यक्रम रखते हैं ऐसे कार्यक्रमों में अखण्ड भारत का विचार रखने के लिए किसी न किसी वक्ता को आमन्त्रित किया जाता है। मुझे भी किसी न किसी कार्यक्रम में वक्ता के रूप में प्रायः जाना ही होता है।
प्रायःकर अगले दिन 15 अगस्त को 'स्वतन्त्रता दिवस' हम लोग मनाते ही हैं। भारतीयों के मन में सदैव यह यादगार बनी रहे कि हमारी मातृभूमि भारत (हिन्दूभूमि) के कौन-कौन से प्रदेश (भाग) कब, कैसे और क्यों अलग होते चले गये। यदि पीढ़ी दर पीढ़ी यह याद बनी रही तो कभी न कभी कोई सशक्त, दृढ़ निश्चयी और राष्ट्र भक्त पीढ़ी अपने से अलग हुए भू-भागों को पुनः अपने देश में विलय करने का प्रयत्न करेगी। यदि विलय करा भी न सकी तो कम से कम जो भू-भाग अपने पास है उसकी एक इंच भूमि खोयेगी भी नहीं। अतीत के भू-भागों और अपनी सीमाओं के अखण्ड रूप को यदि हम भूल गये तो कदाचित वर्तमान स्थिति की भी रक्षा न कर पाये। ऐतिहासिक भूलें किसी भी राष्ट्र जीवन के लिए बड़ी घातक होती है। इसलिए अखण्ड भारत का संकल्प 14 अगस्त को लिया जाता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिवर्ष लगने वाले प्रशिक्षण वर्गों में भी 'अखण्ड भारत और पुण्य भूमि भारत' विषय पर बौद्धिक एवं बैठकें रहते हैं, इन विषयों पर विचार रखने के उद्देश्य से संगठन की योजनानुसार प्रायः दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश (मेरठ प्रान्त) के वर्गों में रहना होता है। उक्त विषय पर विचार रखने के बाद समाज के लोगों में और स्वयंसेवकों में एक बड़ी जिज्ञासा रहती है कि इन विषयों पर कोई पुस्तक भी है क्या? यदि कोई पुस्तक मिल जाये तो हम लोग समय समय पर पढ़ते हुए अपनी जिज्ञासा का समाधान करते रहें क्योंकि समाज की गोष्ठियों और संघ वर्गों
भारत' विषय पर बौद्धिक एवं बैठकें रहते हैं, इन विषयों पर विचार रखने के उद्देश्य से संगठन की योजनानुसार प्रायः दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश (मेरठ प्रान्त) के वर्गों में रहना होता है। उक्त विषय पर विचार रखने के बाद समाज के लोगों में और स्वयंसेवकों में एक बड़ी जिज्ञासा रहती है कि इन विषयों पर कोई पुस्तक भी है क्या? यदि कोई पुस्तक मिल जाये तो हम लोग समय समय पर पढ़ते हुए अपनी जिज्ञासा का समाधान करते रहें क्योंकि समाज की गोष्ठियों और संघ वर्गों
में या सेमिनारों में रखे गये विषय कुछ समय के बाद प्रायः भूल जाते हैं। 'पुण्य भूमि भारत' पर पहले से ही सुरूचि प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक है और एक छोटी पुस्तिका 'अखण्ड भारत' नाम से नागपुर से भी प्रकाशित है किन्तु उसमें विषय का विस्तृत उल्लेख न होकर बहुत संक्षिप्त है।
प्रत्येक वर्ष 'अखण्ड भारत' पर होने वाली गोष्ठियों, सेमिनारों, बैठकों और वर्गों में रखे गये विषय के बाद निरन्तर पुस्तक की मांग रहती है और पुस्तक लिखकर प्रकाशित करने का आग्रह समाज के देशभक्त सज्जनों और संघ के स्वयंसेवकों को बराबर रहता है। पाठकगणों की बढ़ती संख्या और उनके मनोभावों को ध्यान में रखते हुए पहले "अखण्ड महाभारत" नाम से पुस्तक लिखने का विचार आया किन्तु कई पुराने प्रचारकों और कार्यकर्ताओं के सुझाव पर और उनकी प्रेरणा से "अखण्ड भारत" नाम से ही पुस्तक लिखने का निश्चय किया गया। इस पुस्तक को "अखण्ड हिन्दू भूमि" या "अखण्ड हिन्दुस्थान" नाम से भी जाना जा सकता है।
"अखण्ड भारत" पुस्तक में मुख्यतः पाँच शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन किया गया है। पहला शीर्षक 'अखण्ड भारत का वृहत स्वरूप' ही है जिसके अन्तर्गत् - पुस्तक की प्रस्तावना का सार है। दूसरा शीर्षक 'दक्षिण एशियाई अखण्ड भारत के देश' हैं जिसमें देशों के नाम के आधार पर उनका वर्णन किया गया है। तीसरा शीर्षक 'दक्षिण-पूर्वी एशियाई अखण्ड भारत के देश' हैं जिसके अन्तर्गत् बर्मा (म्यांमार) देश से लेकर पूर्व में प्रशान्त महासागर तक के देश और समुद्री द्वीपों का वर्णन है जो किसी काल खण्ड में भारत के अंग थे। चौथा शीर्षक जम्बू द्वीपीय अखण्ड महाभारत है जिसमें सम्पूर्ण एशिया महाद्वीप की भूमि आती है और उसमें चक्रवर्ती भारत में 240 गणराज्यों का मानचित्र सहित उल्लेख है। पांचवां शीर्षक "सप्तद्वीपीय अखण्ड महाभारत" है जिसके अन्तर्गत् अफ्रीका महाद्वीप, यूरोप महाद्वीप और एशिया महाद्वीपों की भूमि को सप्तद्वीपों में बांटकर भारत से अनुशासन किया गया और उनका मानचित्रण करते हुए विस्तृत वर्णन किया गया
है। अपने हिन्दूपूर्वजों की चक्रवर्ती सम्राट रूप में अनुशासन व्यवस्था का उल्लेख चौथे और पांचवें शीर्षकों के अन्तर्गत् रखा गया है। यह प्रागैतिहासिक वर्णन है। इतिहास का वास्तविक अर्थ "ऐसा ही हुआ था" है, अतः इस पुस्तक में हिन्दुओं और उनके पूर्वजों द्वारा 'अखण्ड भारत' पर किये गये सुशासन व्यवस्था का यथार्थ वर्णन है।
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