अमरकान्त बीसवीं शताब्दी के स्वर्णिम और इक्कीसवीं शताब्दी के रजत समय के अप्रतिम रचनाकार हैं। एक ऐसे समय में जब लेखक क्रिकेटर की तरह तेज़ी से आते और आउट होते हैं, अमरकान्त का आधी शताब्दी का रचनात्मक सफ़र लिखित शब्द के प्रति आश्वस्ति जगाता है।
अमरकान्त का रचनाकाल 1954 से लेकर आज तक है, उनकी क़लम न रुकी, न झुकी। उनके साथ के कई रचनाकार थक चुक कर बैठ गये, कुछ निजी पत्रकारिता में चले गये तो कुछ मौन हो गये, किन्तु अमरकान्त ने अपनी निजी परेशानियों को कभी लेखन पर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने हर हाल में लिखा, उन्होंने लेखन को जिजीविषा दी अथवा लेखन ने उन्हें, यह विचारणीय प्रश्न है। इस प्रसंग में अमरकान्त की रचनात्मकता की सहज सराहना करने का मन होता है कि उन्होंने समय-समाज को संहारक या विदारक बनने की बजाय विचारक बनाया। विख्यात आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में 'प्रेमचन्द की परम्परा को आगे बढ़ाने का अर्थ है कि प्रेमचन्द के बाद के भारत के यथार्थ का चित्रण। स्वातन्त्र्योत्तर भारत का यथार्थ जो प्रेमचन्द के बाद का है।'
अमरकान्त इस क़दर यथार्थवादी हैं कि अपनी सराहना अथवा प्रेमचन्द की परम्परा में सम्मिलित किये जाने से गर्वोन्मत्त नहीं होते वरन् वे साफ़ शब्दों में कहते हैं, 'प्रेमचन्द की परम्परा का मतलब शोषण और ग़रीबी जैसी चीज़ों का विरोध करना है, उसको जीवन के केन्द्र में करना है और उसके आगे बढ़ने के लिए सोच पैदा करना है। प्रेमचन्द ने साहित्य को आम आदमी से जोड़ा। यदि ऐसा दूसरे लोग भी कर रहे हैं तो परम्परा आगे बढ़ ही रही है लेकिन ऐसा नहीं है कि एक परम्परा में जो चीजें घटित हुईं, वही आगे भी हो। प्रेमचन्द ने अपने जमाने के हिसाब से लिखा, आज कोई लिखेगा तो अपने जमाने के हिसाब से लिखेगा, जैसे प्रेमचन्द के जमाने के दलित और आज के ज़माने के दलित में बहुत फ़र्क़ आ गया है। जब आज़ादी मिली तो दलित बहुत पिछड़ा था, कोई भी पढ़ने की स्थिति में नहीं था. सब गरीबी की हालत में रहते थे, लेकिन आज देखिए शिक्षा का बहुत प्रचार-प्रसार हुआ है, तो बहुत-सी चीजें बदल गयी हैं। प्रेमचन्द ने गाँव पर लिखा, दलितों पर लिखा लेकिन यदि आज प्रेमचन्द की परम्परा का कोई लेखक लिखेगा तो-गाँव में क्या हो रहा है, कौन-सी शक्तियाँ हैं, कौन-से संघर्ष हैं, उसमें प्रादेशिक, राजनीतिक शक्तियाँ कौन-सी हैं, इसके विषय में लिखेगा। वह उस जीवन को, सारी चीजों को, हटकर देखेगा कि आज किस तरह और क्या हो रहा है, न कि वह प्रेमचन्द के हिसाब से देखेगा। आप उस परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन चीजों को अपने हिसाब से भी देखते हैं। ये सोचने का गलत तरीका है कि फलाने प्रेमचन्द की परम्परा के लेखक हैं, बस एक वाक्य में कह दिया और आपकी जिम्मेदारी पूरी हो गयी। आलोचक का फर्ज है-लेखक विशेष की एक विशेष तरीके से आलोचना करना कि स्वयं उसने क्या लिखा है। ये नहीं कि एक वाक्य में कह दिया कि प्रेमचन्द की परम्परा का है- बात भी प्रसारित हो गयी और प्रेमचन्द का जीवन भी हो गया लेकिन आपने लेखक के बारे में- उसने क्या लिखा है, कैसे लिखा, उसमें क्या बदलाव हुआ-ये कुछ भी नहीं, बस एक लाइन में कह दिया कि प्रेमचन्द की परम्परा का है। प्रेमचन्द बहुत बड़े लेखक हैं और उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना अच्छा है, लेकिन लेखक का विशेष अध्ययन भी होना चाहिए कि उसने प्रेमचन्द में क्या विकास किया, उसकी भाषा कैसे बदली, शिल्प कैसे बदला ? ऐसा नहीं है कि शिल्प और भाषा के मामले में कहानी प्रेमचन्द के बहुत आगे बढ़ गयी है, लेकिन जीवन बहुत बदल गया है, बहुत आगे बढ़ गया है तो इन सारी चीजों को समझना चाहिए।'
अमरकान्त के लिए लेखन एक सामाजिक दायित्व है। वे मानते हैं कि लेखन समय और धैर्य की माँग करता है। उनकी शीर्ष कहानी पढ़ने पर प्रमाणित होता है कि आरम्भ से ही इस रचनाकार ने अप्रतिम सहजता के साथ-साथ सजगता से भी इन कहानियों की रचना की। 'डिप्टी कलक्टरी', 'दोपहर का भोजन', 'ज़िन्दगी और जोंक', 'हत्यारे', 'मौत का नगर', 'मूस', 'असमर्थ हिलता हाथ' बड़ी स्वाभाविक और जीवनोन्मुख कहानियाँ हैं। सहज सरल कलेवर में लिपटी ये कहानियाँ जीवन की घनघोर जटिलताएँ व्यक्त कर डालती हैं। अपने समग्र प्रभाव व प्रेषण में ये रचनाएँ हमें देर तक सोचने के लिए विवश कर देती हैं। इन कहानियों में समय का कोई चालू फैशन या फतवेबाज़ी नहीं है। जीवन के सामान्य पहलू उठाकर, सपाट संवाद अथवा वर्णन की अन्विति जहाँ उनकी कहानी को बोधगम्य बनाती है, वहीं मन्तव्य की जटिलता, अन्त तक आते-आते अर्थगम्य बन जाती है। यद्यपि अमरकान्त का रचनाकाल नयी कहानी के दिनों से आरम्भ होता है, उनकी अभिव्यक्ति में नयी कहानी के फिसलन वाले बिन्दु सिरे से गायब हैं। वे अभिव्यक्ति में धुँधलेपन, धुन्ध और धाँधली के ख़िलाफ़ जैसे मोर्चा खोलकर खड़े हैं। वे न अपने आपको महिमामंडित करते हैं, न अपने पात्रों को। जीवन के मारक प्रसंगों को वे तटस्थ भाव से लिख जाते हैं, उनमें टप टप भावुकता नहीं डालते। युवा आलोचक वैभव सिंह के अनुसार, 'निम्नमध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय चरित्रों की सृष्टि करना, उनकी महान जिजीविषा का वर्णन करना और जीवन के प्रति मोहभंग जैसी रुग्ण दृष्टि को नदी के द्वीपों की तरह बहाकर स्वस्थ संघर्ष भाव का संचार करना उनके लेखन के रेशे रेशे में मौजूद है। वे साहित्य जगत के ऐसे खिलाड़ी हैं जो जिन्दगी की कठिन परिस्थितियों से लड़ रहे लोगों को जिताने के लिए खेलते हैं। उनके पात्र भी अपनी चेतना पर 'व्यक्तित्व' का बोझ लेकर नहीं घूमते हैं, बल्कि चेहरे पर विकट आशावाद की चमक लिये जिन्दगी के बोझ को हल्का करने की कोशिश में लगे रहते हैं। नायकों के पास भी ज़िन्दगी की बारीक मनोगत समस्याओं से उलझने और दार्शनिक चिन्तन करने का वक्त नहीं, बल्कि रोजमर्रा की ठेठ चुनौतियों का समाधान तलाश कर जीवन को बेहतर नहीं तो कम-से-कम उसे बने बनाये रूप में बचाये रखने की चिन्ता ज्यादा गहरी है।'
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