साहित्य के ९ रसों में हास्यरस का महत्त्व हम अन्य रसों की अपेक्षा अधिक मानते हैं क्योंकि परमात्मा की इस अजीबोगरीब सृष्टि में मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो हँस सकता है। इसका एक कारण है। पशु अथवा अन्य क्षुद्र प्राणियों को भगवान की लीला (खेल) से उत्पन्न विश्व की विचित्रता दिखाई नहीं पड़ती, शायद उन्हें सब कुछ सपाट दिखाई देता है और संभवतः इसीलिए साहित्य-संगीत-कला-विहीनों को कोई रसबोध नहीं होता, हास्यरस का बोघ तो बिल्कुल नहीं होता । परन्तु श्री अन्नपूर्णानन्द तो उन विभूतियों में थे जिन्हें विश्व-वैचित्र्य का महान मर्मज्ञ कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
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