सोवितरूस के विघटन की घटना वैश्विक स्तर पर बड़ा एक बड़ा परिवर्तन है, दुनियाँ की दो ध्रुवीय व्यवस्था अचानक केन्द्रीय हो जाती है। और दुनियाँ में तमाम चीजों के सम्बन्ध और अर्थ अचानक बदल जाते हैं। अवाक् और अचम्भित दुनियाँ सिर्फ देखने को विवश होती है और घटनायें स्वतः घटती जा आती है थी। अब दुनियाँ को देखने और समझने का एक नया नज़रिया इजाद किया जाने लगा था क्योंकि अब अपने बीच ही नहीं बल्कि अपने पास की तमाम चीजों के सम्बन्ध और मायने बदल चुके होते है, दरअसल विश्व का नया आर्थिक मंच और मुक्त बाजार व्यवस्था ने जीवन में जिस तरह से हस्तक्षेप किया था, वह प्रभावित होने स्तर पर ही नहीं बल्कि बदलने और यहाँ तक दम तोड़ने के स्तर तक का हस्तक्षेप है। बाज़ार हमारी संवेदनाओं, मूल्यों, सम्बन्धों और सिद्धान्तों में घुसकर उसे इतना खोखला बनाता जा रहा है कि दूसरों के पहचान के अतिरिक्त अपने स्वयं को पहचान बचाना कठिन से कठिनत्तर होता जा रहा है।
भारत और हिन्दी पट्टी के देशों में इसके अतिरिक्त कुछ और भी उतार चढ़ाव देखने को मिलते है जो हमारी समय, समाज और संवेदना में तनाव पैदा करते है और एक तरह की सोच और रचनात्मक ऊर्जा की ओर प्रेरित करते है। नब्बे के दशक में बाबरी मस्जिद विध्वंस और आरक्षण के मुद्दे अपने देश में सामाजिक स्तर पर और रचनात्मक स्तर पर भी नई बहस को जन्म देते है जिसके पक्ष और प्रतिपक्ष दोनो रूप देखने को मिलते है। दलित विमर्श, साम्प्रदायिक विमर्श आदि इन्हीं घटनाओं के प्रतिफल है जिन्हें स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त तमाम और भी विमर्शों एवं बहसों से हमारा समाज समय-समय पर जूझता रहा है। अब जब हम साहित्य के सम्बन्ध में इन तमाम चीजों को देखते है तो प्रश्न उठता है कि क्या हमारा रचनाकार अपने समय के इन घटनाओं, परिवर्तनों संगतियों, विसंगतियों पर हस्तक्षेप कर रहा है कि नहीं? अथवा इन चीजों को वह किस रूप में ले रहा है? और उसके सम्बन्ध में उसकी सोच और धारणा कैसी है? समय के प्रभाव में उसका वजूद उसके मूल्य तिरोहित हुये है अथवा विपरीत समय में उसके लेखकीय ऊर्जा के लिए और भी उर्बर ज़मीन तैयार हुई है। समय की धारा ने उसके प्रगतिशील धार को और तेज किया है या वह कुन्द होकर और भी संकुचित हो गया हैं। दरअसल यह प्रश्न इसलिए खड़े हो जाते है कि कोई भी विचार अथवा विमर्श समाज को दो ही दिशा दे सकता है या तो वह समाज को प्रगतिशील कर आगे बढ़ाएगा अथवा उसे दिग्भ्रमित करने का प्रयास करेगा। ऐसी स्थिति में हमारे रचनाकार का दायित्व बढ़ जाता है और यही देखने की बात है कि रचनाकार का अपने समय के इन गतिविधियों पर हस्तक्षेप है कि नहीं वह समाज की प्रगतिशीलता में गतिरोध पैदा करने वाले और सकारात्मक दिशा में ले जाने वाले की वह सही-सही पहचान करा पा रहा है कि नहीं। यही सच्चे अर्थो में रचनाकार का अपने समय में हस्तक्षेप है और कोई भी रचनाकार अपने समय के साथ इसी तरह का हस्तक्षेप कर सकता है। तब हम देखते है कि हमारे हिन्दी साहित्य का रचनाकार अपने समय को न केवल ठीक से पहचान रहा है बल्कि समाज के साथ गहरी संवेदना से जुड़ते हुये उसे सही दिशा में ले जाने का प्रयास कर रहा है।
Hindu (हिंदू धर्म) (13447)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (715)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2074)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1544)
Yoga (योग) (1154)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24553)
History (इतिहास) (8927)
Philosophy (दर्शन) (3592)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist