पुस्तक परिचय
ज़िंदगी को अनुभव और कल्पना के चिमटे से पकड़ने की कोशिश जिंदगी इस अर्थ में छलिया है कि लेखक जब उसे अनुभव और कल्पना के चिमटे से पकड़ने की कोशिश में कामयाब होने लगता है, इस बीच वह बदलकर कुछ और हो चुकी होती है। इस लुका-छिपी से पस्त होकर शाश्वत की ओर जाया जाता है, लेकिन वह भी युगों तक अँधेरे में सोया रहता है। यह शाश्वत सत्य ज़िंदगी के मंच पर विराट, जर्जर पर्दे की तरह टैगा रहता है, जिसे लगातार देखने की आदत ही उसे अदृश्य बना देती है। इस देखे-अदेखे के महासागर में भाषा और स्वयं को जाल की तरह फेंकने से जो हाथ आया, वे ये कहानियाँ हैं। इस संग्रह में शामिल कहानियाँ, हमारी दुनिया में नई शक्ति से फैलते अन्याय और असमानता के अँधेरे के साथ ही उपभोक्तावादी समाज की प्रदर्शनप्रियता, झूठी रंगीनियों और इनसे पैदा हताशा-टूटन को उजागर करती हैं। यहाँ राजनीति-कॉरपोरेट-धर्म-पर्यावरण के संकट मानवीय और अमानवीय संबंधों के साथ एक नए शिल्प और चकित करने वाली भाषा में प्रकट होते हैं। कथाकारों की नई पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर अनिल यादव की ये कहानियाँ अपने ही अनजाने और मुश्किल रास्तों पर चलते हुए तलघर, भग्न गलियों, मलिन बस्तियों, जंगल, क़ब्रिस्तान और श्मशान, बहुमंज़िली इमारतों और मधुमक्खी के छत्तों तक एक जैसी सहजता से जाती हैं। इनमे से अधिकांश उस पुरानी बात की याद दिलाती हैं कि संपूर्ण और प्राणवान रचना केवल अनुभवों, विवरणों, भाषा और आकर्षक शिल्प से नहीं बनती, वह बनती है इन सबकी एकता से। इन सबको जो चीज़ अंततः आधुनिक कहानी बनाती है, वह है जीवन की मार्मिक आलोचना। यहाँ अनुभव जगत जितना विस्तृत है, उतना ही गहरा भी। इनसे गुज़रना एक रोमांचक और आत्मिक रूप से समृद्ध करने वाला अनुभव है |
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