नाट्यशास्त्र भरतमुनि द्वारा रचित संस्कृत साहित्य का अद्वितीय कला कोश है। इसकी रचना का समय ईसा पूर्व पाँचवी शताब्दी से लेकर ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी तक की अवधि के मध्य में माना जाता है। किंतु प्रत्येक दशा में भरत कालिदास से पूर्व साहित्य व नाट्य के क्षेत्र में विधिवत् प्रतिष्ठित हो चुके थे। यह कालिदास के 'विक्रमोर्वशीयम्' में प्राप्त उद्धरण से स्पष्ट होता है-
मुनिना भरतेन यः प्रयोगो भवतीष्वष्टरसाश्रयः प्रयुक्तः ।
ललिताभिनयं तमद्य भर्ता मरुतां द्रष्टुमनाः सलोकपालः ।।'
यदि कालिदास को अब तक हुए अनेक शोधों के आधार पर ईसा पूर्व प्रथम शती के आस-पास का माना जाय तो भरत निश्चित ही कालिदास से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं।
अनेक विद्वानों ने भरत नाम से अनेक ऐतिहासिक व पौराणिक व्यक्तियों का उल्लेख करते हुए नाट्यशास्त्र के वास्तविक रचयिता भरत मुनि को अनेक भरतों के रूप में प्रस्तुत करने का यत्न किया है। नाट्यशास्त्र के कालक्रम की ही भांति भरत का वास्तविक समय निर्धारित कर पाना कठिन कार्य है। भरत नाम सर्वप्रथम दशरथ पुत्र भरत का परिचय देता है किंतु रामायण आदि ग्रन्थों में कहीं भी उस भरत की नाट्यशास्त्र से कोई संगति नहीं बैठती। दूसरे दुष्यंत पुत्र भरत का परिचय महाभारत व पुराणों आदि में मिलता है। मान्धाता के प्रपौत्र भी भरत नाम के राजा हुए किंतु ये सभी राजा या राजकुमार के रूप में ही इतिहास में वर्णित हैं न कि नाट्यशास्त्र विशारद भरतमुनि के रूप में।
इन क्षत्रिय भरतों के अतिरिक्त संस्कृत साहित्य में आदिभरत, जड़भरत एवं वृद्धभरत नाम से तीन अन्य भरतों का भी उल्लेख मिलता है। इनके विषय में नाट्यशास्त्र का कर्ता होने की आशंका की जा सकती है। इसी प्रसंग पर विचार करते हुए डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल कहते हैं "आर्ष वाङ्मय की यह सारी सामग्री इतना ही संकेत दे पाती है कि इस देश में भरतों की एक परम्परा थी। संभवतः इन भरतों या भरत जनों में से किसी एक विशिष्ट व्यक्ति या पूरे वंश का संबंध नट सूत्रों से रहा हो जिन्हें परम्परागत पवित्र वैदिक चरणों में स्थान मिला हो। आर्ष परम्परा में वर्तमान ये नटसूत्र ही क्या भरत के नाट्यशास्त्र के बीज रूप सिद्ध नहीं हुए?"
शारदातनय ने भावप्रकाशन नामक अपने ग्रन्थ में नाट्यशास्त्र के दो संस्करणों का उल्लेख किया जिनमें से पहला संस्करण आदिभरत या जड्भरत की रचना है जिसमें बारह हजार श्लोक थे। दूसरा संक्षिप्त संस्करण भरतमुनि की रचना है जिसमें कुल छह हजार श्लोक थे। इन षट्साहस्री व द्वादशसाहस्री संहिताओं का उल्लेख बहुरूप मिश्र ने अपनी दशरूपक की टीका में भी किया है। नाट्यशास्त्र के संपादक रामकृष्ण कवि ने लगभग चालीस प्रतियों का परीक्षण किया है। प्रकारान्तर से शारदातनय द्वारा निर्धारित नाट्यशास्त्र के दोनों रूपों को ही अधिकांश विद्वान प्रामाणिक मानने के पक्ष में हैं-
एवं द्वादश-सहसैः श्लोकैरेकं तदर्धतः ।
षड्भिः श्लोकसहसैर्यो नाट्य वेदस्य संग्रहः ।।'
भावप्रकाशन का अध्ययन करने से भरत और नाट्यशास्त्र विषयक यह समस्या और जटिल हो जाती है क्योंकि शारदातनय के अनुसार भरत कोई नाम नहीं है, वरन् भरत एक जाति है जो नाना प्रकार के वर्ण, वेश, विन्यास, भाषा, वय, कर्म और चेष्टा को धारण करती है इसीलिए इस जाति के लोग भरत कहलाए-
भाषावर्णोपकरणैः नानाप्रकृतिसंभवम् ।
वेषं वयः कर्म चेष्टा विभ्रद भरत उच्यते।।"
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