Written by Vagabhata, a student of the brilliant Ayurveda exponent Charaka - Astanga Hridayam is the third among the foundational Vedic texts of Ayurveda. ‘Astanga Hridyam’ translates to the Heart Essence of all the Eight Branches of Ayurveda. An extensive treatise of six volumes and 7000+ verses - this book by BRAHMANAND TRIPATHI is a Hindi edition of the original Sanskrit text. A central book of Ayurveda, this is a must-read.
पुरोवचन
आयुर्वेदीय वाङ्मय का इतिहास ब्रह्मा इन्द्र आदि देवों से सम्बन्धित होने के कारण अत्यन्त प्राचीन गौरवास्पद एव विस्तृत है । भगवान् धन्वन्तरि ने इस आयुर्वेद को तदिदं शाश्वतं पुण्यं स्वर्ग्य यशस्यमायुष्यं वृत्तिकरं चेति ( सु. सू १।११) कहा है । लोकोपकार की दृष्टि से इस विस्तृत आयुर्वेद को बाद में आठ अंगों में विभक्त कर दिया गया । तब से इसेअष्टांग आयुर्वेद कहा जाता है । इन अंगों का विभाजन उस समय के आयुर्वेदज्ञ महर्षियों ने किया । कालान्तर में कालचक्र के अव्याहत आघात से तथा अन्य अनेक कारणों से ये अंग खण्डित होने के साथ प्राय: लुप्त भी हो गये । शताब्दियों के पश्चात् ऋषिकल्प आयुर्वेदविद् विद्वानों ने आयुर्वेद के उन खण्डित अंगों की पुन : रचना की । खण्डित अंशों की पूर्ति युक्त उन संहिता ग्रंथों को प्रतिसंस्कृत कहा जाने लगा जैसे कि आचार्य दृढ़बल द्वारा प्रतिसंस्कृत चरकसंहिता । इसके अतिरिक्त प्राचीन खण्डित संहिताओं में भेड(ल)संहिता तथा काश्यपसंहिता के नाम भी उल्लेखनीय हैं । तदनन्तर संग्रह की प्रवृत्ति से रचित संहिताओं में अष्टांगसंग्रह तथा अष्टांगहृदय संहिताएँ प्रमुख एव सुप्रसिद्ध हैं । परवर्ती विद्वानों ने वर्गीकरण की दृष्टि से आयुर्वेदीय संहिताओं का विभाजन बृहत्त्रयी तथा लघुत्रयी के रूप में किया । बृहत्त्रयी में- चरकसंहिता सुश्रुतसंहिता तथा अष्टांगहृदय का समावेश किया गया है क्योंकिगुणा गुणतेषु गुणा भवन्ति । यह भी तथ्य है कि वाग्भट की कृतियों में जितना प्रचार- प्रसारअष्टांगहृदय का है उतनाअष्टांगसंग्रहका नहीं है । इसी को आधार मानकर बृहत्त्रयी रत्नमाला में हृदय रूप रत्न को लेकर पारखियों ने गूँथा हो ?
चरक- सुश्रुत संहिताओं की मान्यता अपने- अपने स्थान पर प्राचीनकाल से अद्यावधि अक्षुण्ण चली आ रही है । अतएव इनका पठन- पाठन तथा कर्माभ्यास भी होता आ रहा है । यह भी सत्य है कि पुनर्वसु आत्रेय तथा भगवान् धन्वन्तरि के उपदेशों के संग्रहरूप उक्त संहिताओं में जो लिखा है वह अपने- अपने क्षेत्र के भीतर आप्त तथा आर्ष वचनों की चहारदिवारी तक सीमित होकर रह गया है तथा उक्त महर्षियों ने पराधिकार में हस्तक्षेप न करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी । यह उक्त संहिताकारों का अपना-अपना उज्ज्वल चरित्र था । महर्षि अग्निवेश प्रणीत कायचिकित्सा का नाम चरकसंहिता और भगवान धन्वन्तरि द्वारा उपदिष्ट शल्यतन्त्र का नाम सुश्रुतसंहिता है । ये दोनों ही आयुर्वेदशास्त्र की धरोहर एव अक्षयनिधि हैं । उन -उन आचार्यो द्वारा इनमें समाविष्ट विषय-विशेष आयुर्वेदशास्त्र के जीवातु हैं अतएव ये संहिताएँ समाज की परम उपकारक है ।
चरकसंहिता में स्वास्थ्यरक्षा के सिद्धान्तों रोगमुक्ति के उपायों तथा आयुर्वेदीय सद्वृत्त आदि विषयों का जो विशद विवेचन उपलव्ध होता है वह सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । अधिक क्या कहा जाय चरकोक्त सभी सिद्धान्त त्रिकालाबाधित हैं । इस प्रकार के विषयों की पुष्कल सामग्री से प्रभावित होकर आचार्य दृढबल नेयदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित् ( च.सि. १२ । ५४) यह जो डिण्डिमघोष किया है वह चिकित्सा-सिद्धान्तों पर पूर्णतया सही उतरता है । सुश्रुतसंहिता में आयुर्वेद के आठों अंगों का विभाजन शल्यकर्म को प्रधान मानकर किया गया है; फिर भी आधुनिक शल्य- शालाक्य चिकित्सा की दृष्टि से इन प्राचीन सिद्धान्तों में पग-पग पर प्रतिसंस्कारों की अपेक्षा प्रतीत होती है ।
सिंहगुप्त के पुत्र वाग्भट ने इसी प्रतिसंस्कार की उत्कट भावना से प्रेरित होकर पहले अष्टांगसंग्रह की रचना की जिसे उन्होंनेयुगानुरूपसन्दर्भ सज्ञा दी ( अ.स.सू १ । १८) । फिर उसी अष्टागसग्रह में से हृदयके समान सारभाग का स्वतन्त्र रूप से पृथक् संग्रह करकेअष्टांगहृदय की रचना कर डाली और उसका विश्व में सादर प्रचार- प्रसार हुआ । वाग्भट ने न केवल आत्रेय आदि महर्षियों के वचनों का अनुकरण मात्र किया है अपितु प्रसंगोचित अभिनव विषयों का भी इसमें स्थान-स्था न पर समावेश किया है जो चिकित्सा की दृष्टि से उपादेय हैं । इन्होंने उत्तरस्थान मे उन रोगों के निदान तथा चिकित्सा का वर्णन किया है जिनका वर्णन आरम्भ के निदान तथा चिकित्सास्थानों में नहीं हो पाया था अतएव आयुर्वेद की बृहतत्रयी में परवर्ती विद्वानों नेअष्टागसंग्रह को छोडकरअष्टागहृदय का समावेश कर डाला जो कि इस ग्रन्ध की सर्वागीण गुणवत्ता का ज्वलन्त प्रमाण है ।
वास्तव में कालिदास के अनुसार-पुराणमित्येव न साधु सर्व नवीनमित्येव न चाप्यवद्यम् । सन्त: परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढ : परप्रत्ययनेयबुद्धि:। । ( मालवि० १ । २) इसका आशय यह है कि पुरानी अथवा नयी सभी वस्तुएँ अपनी गुणवत्ता के कारण ही ग्राह्य एव तद्विपरीत होने से त्याज्य होती हैं । ऐसा कोई मापदण्ड नहीं है कि पुरानी सभी वस्तुएँ अच्छी हों और नयी सभी वस्तुएँ अनुपादेय हों । तात्पर्य यह है कि अच्छी वस्तु अपने गुणों के प्रभाव से सबका मन आकर्षित कर ही लेती हैं । नारायणभट्ट ने अपने प्रक्रियासर्वस्वग्रन्थ में इस बात की प्रामाणिक चर्चा की है कि जिस विषय को पाणिनि ने कहा है उसकी कमी को उसके परवर्ती वार्तिककार -ने पूरा किया; उसमें जो कमी रह गयी थी उसे भाष्यकार पतञ्जलि ने तथा उसमें भी जो त्रुटि रह गयी थी उसे भोज आदि विद्वानों ने सुधारा- सँवारा । अतएव व्याकरण सम्प्रदाय में यह सिद्धान्त सुप्रसिद्ध है-यथोत्तरं मुनीना प्रामाण्यमू। आयुर्वेद के क्षेत्र मे इसी प्रकार का प्रामाण्य महर्षि वाग्भट की रचना का भी है ।
भारतीय वाड्मय मेंवाग्भटका उल्लेख बहुत मिलता है । यथा-वृद्ध मध्य लघु तथा रसवाग्भट नामों से प्राय: चार वाग्भट प्रसिद्ध हैं । इनके अतिरिक्त भी अन्य साहित्यिक क्षेत्र में अनेक वाग्भट कृतिकार के रूप में पाये जाते हैं । हारीतसहिता में आयुर्वेद के ये आचार्य बहुचर्चित हैं- चरक: सुश्रुतश्चैव वाग्भटश्च तथा पर: । मुख्याश्च संहिता वाव्यास्तिस्र एव युगे युगे । । अत्रि: कृतयुगे वैद्यो द्वापरे सुश्रुतो मत : । कलौ वाग्भटनामा च गरिमात्र प्रदृश्यते। । महर्षि वाग्भट के वचनों का उल्लेख निश्चलकर ने चक्रदत्त ग्रन्थ की रत्नप्रभा व्याख्या में किया है । १३वीं शती के रसरत्नसमुच्चय के रचयिता वाग्भट को ही यहाँ रसवाग्भटके नाम से स्मरण किया गया एं क्योंकि इनके पित्त। का नाम भी सिंहगुप्त था । पिता -पुत्र के नाम की समानता को आधार मानकर कुछ ऐतिहासिक विद्वान् अष्टागहृदय तथा रसरत्नसमुच्चय के रचयिताओं को एक ही मानने का आग्रह करते हैं । इतना सब होने पर भी समय का अन्तराल दोनों को एक स्वीकार करने मे बाधक सिद्ध होता है ।
वृद्ध या प्रथम वाग्भट-ऐतिहासिकों की मान्यता के अनुसार इन्होंने पूर्ववर्ती आर्षसहिताओ को अपने ग्रन्थ की आधारशिला बनाकरअष्टांगसंग्रह संहिता की रचना की । उसके उत्तरस्थान अध्याय ५० । १३२ - ३३ में अपना संक्षिप्त परिचय भी दिया है । हमारे विचार से ये अपने जीवन के आरम्भ में वैदिक धर्मानुयायी थे औरअवलोकित नामक बौद्ध गुरु से दीक्षा लेने के बाद इनके विचारे । में परिवर्तन आया जिसका पूर्ण प्रभाव इनकी उक्त रचना में परिलक्षित होता है । जहाँ बौद्धधर्म के अतिरिक्त वचनों का समावेश हुआ है उसे आत्रेय आदि महर्षियों के वचनों का तथा इनके पूर्वाश्रम का प्रभाव समझ लेना चाहिए । चिकित्सा- क्षेत्र का विषयबहुजनहिताय बहुजनसुखायहोता है । इसमें धार्मिक प्रभाव बाधक नहीं होता । प्रस्तुत वाग्भट ने वैदिकधर्म के साथ बौद्धधर्म का समुचित समन्वय अपनी कृतियों में स्थापित किया है । ऐसा अन्यत्र भी देरवा जाता है । अवलोकितेश्वर की मूर्तियाँ गुप्तकाल में अधिकाधिक मात्रा में मिली हैं । कालक्रम में अवलोकितेश्वर की मूर्ति की भुजाओं की संरव्या में वृद्धि होती गयी । देखें-कलकत्ता सस्कृत सिरीज प्र। XII-८३७-३८ इसी के अनुसार वाग्भट ने अवलोकितेश्वर की १२ भुजाओं का उल्लेख किया है । वाग्भट के इस संग्रह तथा हृदय में मन्त्रयान का रूप तो दृष्टिगोचर होता है किन्तु वज्रयान का नहीं । बौद्ध ग्रन्थों मे ओठ प्रकार की सिद्धियों का जो वर्णन मिलता है उनका उल्लेख वाग्भट ने रसायन प्रकरण में अञ्जन पादलेप रस रसायन के रूप में किया है । कोषकार अमरसिंह बौद्ध थे । उन्होंने अपने कोष में पहले सांकेतिक रूप से बुद्ध को प्रणाम कर शास्त्रीय मर्यादा का पालन मंगलाचरण के रूप में किया है । तदनन्तर स्वर्ग गणदेवता देवयोनि तथा दैत्यों के नामों का उल्लेख कर बाद में बुद्ध के नामों का परिगणन करते हुए इन्हीं में जिनका भी समावेश किया है वे अब भिन्न रूप में देरवे जाते हैं ।
चीनी यात्री इाrत्सेग ( ६७१ ६९५ ई०) ने समस्त भारत में प्रसिद्धअष्टांगहृदय के प्रचार को उल्लेख किया है । इत्सिंग से पूर्ववर्ती वराहमिहिर ( ५०५ - ५८७ ई०) के ज्यौतिष सम्बधी सिद्धान्तों से हृदयकार प्रभावित थे । जैसा कि इन्होंने आत्रेय आदि को अपनी संहिता का जीवातु माना है परन्तु इन्होंने दृढबल का उल्लेख कहीं भी नहीं किया इससे लगता है कि इनके सामने चरकसंहिता क्त आदिम स्वरूप ही सुलभ था न कि दृढबल द्वारा प्रतिसंस्कृत स्वरूप । इससे प्रतीत होता है कि दृढबल तथा प्रथम वाग्भट प्राय: समकालीन ही रहे होंगे अथवा दृढबल कुछ पूर्व रहे हों । बाह्य एवं आभ्यन्तर साक्ष्यों की समानता होने पर भीहृदय सेसंग्रह का कलेवर विशाल है । अत. परिनिरीक्षण करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वाग्भट प्रथम का काल ५५० ई० मान लेना चाहिए । जैसा कि इतिहासकारों ने स्वीकार किया है तदनुसार यहाँ तक प्रथम अथवा वृद्धवाग्भट की चर्चा की गयी है । अब इसके आगे अष्टांगहृदयके रचयिता वाग्भट की चर्चा प्रस्तुत है ।
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