शरीर माद्यं खलुं धर्म साधनम्।
अर्थात् धर्माचरण हेतु स्वस्थ शरीर प्रथम अपरिहार्य नियमन है। स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन। त्रिगुणमयी प्रकृति में ऋषि-तुल्य सात्विक दिनचर्या ही व्याधि रहित शरीर का उपयुक्त साधन है। रहस्यमय सृष्टि रचयिता से आत्मसाक्षात्कार हेतु भगवान द्वारा वेदों में, देववाणी में, उल्लिखित अनुकरणीय आचार संहिता प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जिससे इन्द्रियों, मन आदि पर नियंत्रण संभव है। जप, तप, यज्ञ, ध्यान, उपवास, योग आदि-आदि द्वारा शारीरिक प्रक्रियाओं के निर्विकार स्वरूप में संचलन के लिए प्राकृतिक संसाधन है स्वस्थ शरीर दीर्घायु वाला होता है।
पंचमहाभूत-जल, तेज, वायु, पृथ्वी, आकाश-सृष्टि निर्माण के मूल आधार हैं
और शरीर निर्माण के लिए भी। इन भूतों के समन्वय से शरीर निरोग रहता है और अन्यथा स्थिति में व्याधि का घर बन जाता है। इस अस्वस्थ दशा में शरीर को जीवनदायनी शक्ति प्रदान करने के लिए आयुर्विज्ञान चिकित्सा शास्त्र उतना ही अनादि है जितना कि वैदिक साहित्य। इसके मूल सिद्धान्तों का उल्लेख ऋग्वेद की प्राचीन ऋचाओं में विद्यमान है। अथर्ववेद में आचार संहिता सहित नैसर्गिक चिकित्सा का प्रावधान है। ऋग्वेद के उपांग आयुर्वेद अर्थात आयुर्विज्ञान में पंचमहाभूतों से लेकर रस आहार एवं मनोभावों के साथ कर्म अकर्म तक का विश्लेषण है ताकि उसमें निहित जीवनीय तत्व प्राप्त किए जा सके।
भगवान धन्वन्तरी, आत्रेय, भयंकर रोग से ग्रसित व्यक्ति को मृत्यु के शिकंजे से बचाने की क्षमता रखते थे। सुश्रुत में शल्य क्रिया का भी प्रावधान है। अंग-भंग होने पर उसे पुनः प्रत्यारोपण करने की उच्चकोटि की व्यवस्था थी। इस प्रकार आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति अपनी उत्कृष्टता की चरम सीमा पर थी। स्वस्थ शरीर के लिए आहार की महत्वपूर्ण भूमिका है। आयुर्विज्ञान मात्र औषधि सम्बन्धी ही नहीं है अपितु आचारसंहिता के सिद्धान्तों के अनुसार मानव प्राणी के लिए श्रेष्ठ जीवन का मार्ग भी प्रशस्त करता सम्पूर्ण औषधियाँ प्रकृति में उपलब्ध जड़ी-बूटी धातु आदि के शोधन द्वारा ही तैयार होती है। आदरणीय श्री लक्ष्मीनारायण 'वसु' जी द्वारा अपने शोध को 'अथायुर्विज्ञानम् - प्राकृत- कल्प रसायनम्' की संज्ञा से प्रतिष्ठित करना अति समीचीन है।
विगत् काल में परकीय आक्रांताओं की दासता के कारण यह विज्ञान जीर्ण-शीर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ। 30 वर्ष के सतत् परिश्रम एवं प्रयास के परिणामस्वरूप उपलब्ध इस शोध का प्रकाशन आयुर्वेदिक ऐतिहासिक साहित्य की एक सर्वथा नवीन और अत्युपयोगी सेवा ही होगी। अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति दृष्टि के अन्तर्गत निश्चित ही आयुर्वेदिक प्राणाचार्यों को अपने इस विलुप्त ज्ञान के भंडार का प्रामाणिकता के साथ अन्वेषण करने की प्रेरणा मिलेगी। शोधकर्ता का उद्देश्य सफल होगा, इससे मुझे संदेह नहीं है। मैं इस कृति का स्वागत करता हूँ।
विद्वान शोधकर्ता को आयुर्वेद की इस सेवा के लिए धन्यवाद देता हूँ। यह भी आशा करता हूँ कि वैद्य समाज ग्रन्थ और ग्रन्थकर्ता का उचित रूप से आभार प्रदर्शित करने में पीछे नहीं रहकर अपने कर्तव्य का पालन करेगा।
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