The Pre-Determined History and Geography of this Creation is Repeated Exactly After Every Kalpa (5000 Years)
(Original text in English - "The Eternal World Drama Part-2" translated into Hindi language
किसी ने ठीक ही कहा है कि 'सभ्यता अधिकांशतः विचारों, आदर्शों, निष्ठाओं और ध्येयों का एक पुंज है।' यदि किसी समाज में प्रचलित विचार, संकल्पनायें तथा धारणायें सही और व्यावहारिक न हों तो उसके व्यक्तियों की जीवन-शैली अच्छी नहीं हो सकती और जीवन की परिस्थितियों के प्रति उनका दृष्टिकोण सही नहीं होता तथा उनका पारस्परिक सम्बन्ध उचित नहीं होता और परिणाम स्वरूप वे वास्तविक प्रगति नहीं कर सकतेत था सतत भी सुख प्राप्त नहीं कर सकते ।
पुनश्च, यदि किसी समाज के सामने अच्छे लक्ष्य और आदर्श न हों तो उस समाज में स्त्री-पुरुष कम अच्छे लक्ष्यों को अपनाते हैं और इसलिए सभ्यता का ह्रास होता जाता है। यदि व्यक्तियों में उचित निष्ठायें नहीं होतीं तो समाज में सामञ्जस्य शक्ति का अभाव हो जाता है और वह परस्पर विरोधी समूहों में खण्डित होता जाता है।
हमारा वर्तमान समाज टूट रहा है और स्त्री-पुरुष जीवन के ऐसे मार्गों को अपना रहे हैं जिनसे स्थाई सुख नहीं मिल सकता। इससे यह प्रकट होता है कि हमारी संकल्पनाओं, हमारे विश्वासों, हमारी निष्ठाओं और हमारे लक्ष्यों में कोई कमी है और हमें इन पर विचार करना होगा।
आशा है कि इस पुस्तक को पढ़ने पर पाठक को स्पष्टतः ऐसे नये विचारों तथा ऐसी नयी संकल्पनाओं की प्राप्ति होगी जिनसे उसे अच्छे लक्ष्य और प्रेरक आदर्श मिलेंगे। उनमें एक नई सभ्यता के बीज हैं और एक नये युग- उच्चतर और चिरन्तन सुख के युग की संभावनायें हैं, जिसे मानव जाति का 'स्वर्णयुग' कहा जा सकता है।
जीवन, इतिहास और सृष्टि का अर्थ
अब तक डार्विन के विकास सिद्धान्त तथा बिग-बैंग (Big-Bang) के सृष्टि कारणवाद के कारण जीवन बौर ब्रह्माण्ड को ऐसा माना जा रहा है और उनका निर्वचन इस प्रकार किया जा रहा है कि मनुष्य अपने जीवन के अर्थ और मूल्य का बोध खोता जा रहा है। इन सिद्धान्तों' ने अनेक लोगों को यह मानने के लिए प्रेरित किया है कि वे परमाणुओं के सांयोगिक संग्रहण के परिणाम हैं और एक निरर्थक सृष्टि में प्रकृति के खिलौने हैं। वे यह समझाते हैं कि मनुष्य के पूर्वज शैवाल और वानर थे। इन विचारों और संकल्पनाओं के कारण मनुष्य ने अपनी प्रतिष्ठा और विश्व में अपने स्थान का बोध खो दिया है। इनसे मनुष्य के नैतिक मापदण्ड ध्वस्त हो गये हैं। इन विचारों में मनुष्य की पाशविक प्रकृति (man's animal nature) पर बल दिया गया है और उसकी आत्म-नियन्त्रण की शक्ति कम हो गई है। इससे मनुष्य का नैतिक पतन हुआ है और सुख की हानि हुई है। जीवन, इतिहास और सृष्टि में बिना कोई अर्थ देखे मनुष्य ने दिशा-बोध खो दिया है और जिस प्रकार बीच समुद्र में दिशाहीन जहाज भटकता है उसी प्रकार मनुष्य निरुद्देश्य होकर भटक रहा है।
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