भारतीय चिन्तन की परिधि में वैदिक कर्मकाण्ड की वैज्ञानिक व्याख्या के साथ वाक्यार्थ-विज्ञान के रूप प्रसिद्ध मीमांसाशास्त्र का अपना अन्यतम महत्त्व है। जिस प्रकार व्याकरणशास्त्र ने पद-विज्ञान की महत्ता को स्थापित किया है तथा न्यायशास्त्र ने प्रमाणों द्वारा अर्थ-परीक्षण की विधा प्रकाशित कर अपनी सार्वभौम योग्यता प्रकाशित की है, उसी प्रकार वैदिक वाक्यों के कर्मपरक विश्लेषण में मीमांसाशास्त्र का भी अभूतपूर्व योगदान रहा है। इसीलिए इन तीनों शास्त्रों के तलस्पर्शी विद्वान् को पदवाक्यप्रमाणज्ञ कहने की परम्परा रही है। इन तीनों शास्त्रों ने अपनी स्वतन्त्र महत्ता को तो प्रकाशित किया ही है, साथ ही प्रतिपादन के क्षेत्र में एक दूसरे की विधा में समन्वयात्मक दृष्टि भी प्रदान की है। न्यायशास्त्र में आचार्य गङ्गेश उपाध्याय के तत्त्वचिन्तामणि की रचना के पश्चात् १८वीं शताब्दी तक प्रतिपादन के क्षेत्र में सर्वत्र नव्य-न्याय की शैली का ही प्रामुख्य दृष्टिगोचर हो रहा है। सत्रहवीं शताब्दी के मध्यकाल में प्रतिष्ठित विश्वेश्वर भट्ट) द्वारा विरचित भट्टचिन्तामणि के तर्कपाद में इन तीनों शास्त्रों के वैशिष्ट्य की अलौकिक त्रिवेणी प्रवाहित हुई है।
मीमांसा की वाक्यार्थनिष्पादन प्रणाली की विशेषता तथा नव्यन्याय की परिष्कृत भाषाशैली के साथ व्याकरणशास्त्र की शाब्दबोध-प्रणाली के वैशिष्ट्य के प्रति समान रूप से विद्यमान अभिरुचि तथा आदरभाव ही इन शास्त्रों की विशेषताओं से समन्वित इस भट्टचिन्तामणि के तर्कपाद के अनुसन्धान में मेरी प्रवृत्ति की उत्पादिका प्रेरणा या प्रवर्तना है।
इस समालोचनात्मक ग्रन्थ के आधारभूत ग्रन्थ भाट्टचिन्तामणि के तर्कपाद की भाषा-सम्बन्धी दुरूहता एवं प्रमेयों की गुत्थियों को सुलझाने में मुझे काशी-हिन्दू-विश्वविद्यालय, वाराणसी के मीमांसा एवं धर्मशास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष, राष्ट्रपति-सम्मान से प्रतिष्ठित, निखिलशास्त्रवारिधि, गुरुवर्य महामहोपाध्याय डॉ० गजानन शास्त्री मुसलगाँवकर (वैद्य) महोदय की विशेष कृपा प्राप्त हुई है। आपकी कृपा के कारण ही इस ग्रन्थ की दुर्गम पङ्क्तियों के अर्थावबोधान में मुझे सफलता मिल पाई है। आज इस ग्रन्थ के प्रकाशन के अवसर पर मैं उनके प्रति सश्रद्ध अन्तःकरण से कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। इसी प्रकार जिनके कुशल निर्देशन में मैं इस ग्रन्थ के आधारभूत शोधप्रबन्ध का निर्माण कर सका, उन स्मृतिशेष, आदरणीय डॉ० कृष्णनाथ चट्टोपाध्याय, महोदय के प्रति भी मैं अपनी विनम्र श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ।
महामना मालवीय जी के पुरुषार्थ की पुण्यभूमि-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के श्रेष्ठ गुरुजनों से अध्ययन के अवसर को मैं अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ सौभाग्य मानता हूँ। न केवल मेरे शोधकार्य में अपितु आज तक जिनकी कृपादृष्टि मेरे प्रति बनी हुई है उन श्रेष्ठ गुरुजनों-डॉ० वीरेन्द्रकुमार वर्मा, डॉ० विश्वनाथ भट्टाचार्य, डॉ० श्रीनारायण मिश्र, डॉ० कमलाप्रसाद सिंह, डॉ० जयशङ्कर-लाल त्रिपाठी, डॉ० रामायणप्रसाद द्विवेदी, डॉ० सुदर्शनलाल जैन, डॉ० सुधाकर मालवीय तथा अन्य समस्त गुरुजनों का स्मरण आज भी मेरे उत्साह को द्विगुणित कर रहा है।
ग्रन्थ-प्रकाशन की इस वेला में मैं भगवान् आशुतोष महाकाल की नगरी उज्जयिनी में स्थित विक्रम विश्वविद्यालय की संस्कृत अध्ययनशाला के तत्कालीन आचार्य एवं अध्यक्ष, पद्मश्री आचार्य वेङ्कटाचलम् महोदय, राष्ट्रपतिसम्मान-विभूषित आचार्य कृष्णशास्त्री कानिटकर, राष्ट्रपतिसम्मान-विभूषित आचार्य श्रीनिवास रथ, हिन्दी अध्ययनशाला के पूर्व आचार्य, राष्ट्रीय शिक्षक, डॉ० रामूर्ति त्रिपाठी जी तथा राष्ट्रपति सम्मान से विभूषित कालिदास अकादमी के आचार्यकुल के आचार्य, प्रण्डितप्रवर डॉ बच्चूलाल अवस्थी जी का भी कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करता हूँ। इन महानुभावों का मुझे सतत मार्गदर्शन तथा प्रोत्साहन मिलता रहा है। कालिदास अकादमी के वर्तमान निदेशक तथा रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के संस्कृत विभाग के पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ० कृष्णकान्त चतुर्वेदी जी तथा डॉ० हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ० राधावल्लभ त्रिपाठी जी का भी कृतज्ञतापूर्वक मैं नामोल्लेख करना चाहता हूँ। मेरे कार्यस्थल से अत्यन्त दूर रहते हुए भी सन् १९८२ से ही आप दोनों शिक्षा के क्षेत्र में मेरा उत्साहवर्धन करते रहे हैं। मेरे कार्यस्थल उज्जयिनी के विक्रम विश्वविद्यालय की संस्कृत अध्ययनशाला में मेरे सहयेगी तथा अभिन्न मित्र उपाचार्य डॉ० विन्ध्येश्वरीप्रसाद मिश्र तथा प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग मे उपाचार्य डॉ० श्री सीताराम दुबे जी के प्रयासों से ही यह ग्रन्थ प्रकाशोन्मुख हो सका है। इनके साथ अपने अनुजकल्प मित्र वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ० मुरलीमनोहर पाठक का नाम भी उल्लेखनीय समझता हूँ। इन महानुभावों के साथ संस्कृत अध्ययनशाला के अन्य सभी आदरणीय शिक्षक-मित्रों का मुझे उत्साहवर्द्धक सहयोग मिलता रहा है। इस ग्रन्थ के आधारभूत ग्रन्थ भाट्टचिन्तामणि-तर्कपाद का अनुसन्धान मैं अपने आदरणीय अग्रजों-श्री मधुकर नेने, श्री शङ्कर नेने तथा स्मृतिशेष श्री प्रभाकर नेने के साथ मेरी दीदी श्रीमती अचला कान्हेरे (व्याकरणाचार्य) के उत्साहवर्धक सहयोग से ही कर सका हूँ। इसी प्रकार मेरे जीजाजी, भारतीय तथा पाश्चात्य उभयविध-विज्ञान-शास्त्र-विशारद डॉ० नारायण गोपाल डोंगरे जी का परामर्श भी मिलता रहा है। प्रकाश्य ग्रन्थ के प्रकाशन में आवश्यक अनेक कार्यों में सहधर्मिणी श्रीमती श्रद्धा नेने तथा आत्मज चि० सुबोध नेने का भी सहयोग मिला है। अपने पारिवारिक सम्बन्धियों सहित जिनका भी मुझे इस ग्रन्थ के अनुसन्धान से लेकर प्रकाशन कार्य तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहाय्य प्राप्त हुआ है उन सभी के अभ्युदय तथा निःश्रेयस् के लिए भगवान् महाकाल के चरणों में प्रार्थना करता हूँ। इस ग्रन्थ की प्रकाशन-वेला में जिनके नाम एवं यश ने मुझे निरन्तर उत्साहवर्धक प्रेरणा प्रदान की है, उन निखिल-शास्त्र-रत्नाकर, पण्डित गोपाल शास्त्री नेने इस नाम से विख्यात, पुण्यशेष, प्रातः स्मरणीय पितृचरणों के साथ ही स्वर्गीया स्नेहमयी माता श्रीमती मनोरमा नेने का मैं श्रद्धापूर्वक स्मरण करता हूँ।
किसी भी ग्रन्थ के प्रकाशन में अपरिहार्य कारणों में प्रकाशक का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हुआ करता है। यह ग्रन्थ भी भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित प्रतिभा प्रकाशन के प्रतिभाशाली सञ्चालक डॉ० राधेश्याम शुक्ल जी की तत्परता से ही प्रकाशित हो रहा है। इसके प्रकाशन में श्री शुक्लजी ने जो कष्ट उठाएँ हैं, इसके लिए मैं इन्हें साधुवाद देता हूँ तथा इनके अभ्युदय की कामना करता हूँ।
पारिवारिक जनों, मित्रों तथा सभी महानुभावों के माध्यम से जिनकी अहेतुकी कृपा ही समस्त प्राणियों के अभ्युदय का एकमात्र कारण है, उन करुणावरुणालय, भूतभावन, महेश्वर के श्रीचरणों की वन्दना के साथ इस आत्मनिवेदन को पूर्ण मानता हूँ।
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