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भैरव प्रसाद गुप्त के नारी प्रधान उपन्यासों में नारी पात्र एक अध्ययन- Bhairav Prasad Gupta Ke Nari Pradhan Upanyason Me Nari Patra Ek Adhyayan

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Specifications
Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur
Author Kanubhai G. Chandana
Language: Hindi
Pages: 200
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 370 gm
Edition: 2016
ISBN: 9789385804038
HBL508
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Book Description

प्राक्कथन

साहित्य की विधाओं में उपन्यास अत्यंत सशक्त विधा है। उपन्यास का स्वरूप सबसे शक्तिशाली है। उसमें साहित्य की सारी विधाओं की छवियों को समाहित कर लेने की शक्ति है। उपन्यास में कथात्मकता के साथ-साथ काव्य-सी भावुकता और संवेदना तथा निबंध-सी चिंतनमूलकता भी होती है। उत्तम कथा, विशिष्ट चरित्र, कल्पना की अपार शक्ति, वर्णनात्मकता के साथ विचार में गहनता, महान उद्देश्य द्वारा समग्र मानव जीवन का विवेचन-इत्यादि विशेषताओं के कारण उपन्यास अन्य विधाओं की तुलना में श्रेष्ठ है।

आधुनिक (अर्वाचीन) हिन्दी उपन्यास का श्रीगणेश उन्नीसवीं शताब्दी से हुआ।

हिन्दी साहित्य के उपन्यास का काल-विभाजन, भारतीय जन-जीवन को यथार्थ चित्र देने वाले उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द को आधार मानकर किया गया है। उपन्यास की अद्भुत शक्ति को सबसे पहले प्रेमचन्दजी ने पहचाना। प्रेमचन्द एक युग प्रवर्तक कथाकार हैं। डॉ. जगन्नाथ पंडित के शब्दों में "प्रेमचन्द के पाठकों और समर्थकों का पक्ष इतना भारी रहा है, इसका मुख्य कारण उनके द्वारा सामाजिक समस्याओं का सविस्तार और विविधमुखी चित्रण है, जिन्हें पाठकों ने अपने दैनिक जीवन में घटते देखा था। यदि वे घटनाएँ अजनबी होतीं तो प्रेमचंद शायद अपनी अलग ऐतिहासिक पहचान नहीं बना पाते" (कथाकार नागार्जुन, पृ. 03)।

स्वतंत्रता के बाद का जनमानस वैचारिक रूप में प्रबुद्ध एवं सजग था। व्यक्तिवाद, मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद तथा मनोविश्लेषणवाद के सिद्धान्तों का व्यक्तिमन पर गहरा प्रभाव पड़ा था। प्रेमचन्दोत्तर युग के उपन्यासों ने नवीन संभावनाओं, नवीन मूल्यों एवं नवीन मानसिकता को जन्म दिया। इस युग के उपन्यास के स्वरूप एवं मूल्यों में बदलाव आया और कथ्य में नये-नये प्रयोग हुए। स्वातंत्र्योत्तर युग के उपन्यासकारों ने प्रेमचंद युगीन समस्याओं का तो निरूपण किया ही था, साथ में मनोवैज्ञानिक धरातल पर मानव मन के अन्तर्जगत को उजागर करने की कोशिश भी की थी। सर्वप्रथम उपन्यासकारों का ध्यान स्वच्छंद प्रेम तथा यौन सम्बन्धी समस्याओं की ओर गया। उन्होंने नारी जीवन को भी चित्रित करने की कोशिश की है, चाहे स्त्री उच्च वर्ग की हो या निम्न-मध्य वर्ग की। जमींदार, दारोगा, साहूकार, राजनीति के साथ जुड़े लोगों के द्वारा निम्नवर्ग की स्त्रियों के शोषण का भी उपन्यासकारों ने चित्रण किया है। नारी स्वतंत्र होने के लिए छटपटाती है। आधुनिक समय में समाज के बदलते परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति की अपनी विचारधारा तथा विचारों और कार्यों की प्राचीन परंपरा को अलग रहने की प्रवृत्ति, वैयक्तिक चेतना को प्रश्रय देती है। नारी के स्वत्व की पहचान को साहित्य के माध्यम से, विशेषतः कहानियों, उपन्यासों में बड़ी मात्रा में अभिव्यक्त किया गया है। साहित्यिक अभिव्यक्ति नारी के संघर्षों के इतिहास का दस्तावेज बन पाई है या नहीं, अथवा साहित्यिक यथार्थ समाज के किन कोणों से चुना जाता है, साहित्य में नारी अस्मिता की अनेक पर्ती का स्पर्श किया जा रहा है, परंतु अभी भी समाज में नारी का स्थान प्रश्नांकित है या नहीं- ये केन्द्रीय विचार भैरव प्रसाद गुप्त के उपन्यासों के आधार-विन्दु हैं। नारी अस्मिता का प्रश्न अनेक आयामी है। प्राचीन काल में स्त्री और पुरुष की समान भूमिका थी। मध्यकाल में समाज स्त्री को हीन दृष्टि से देखा जाने लगा, जबकि अर्वाचीन काल में स्त्री संघर्ष करती हुई अपना स्थान पक्का कर रही है। एक लम्बी, पुरानी स्थापित व्यवस्था को तोड़कर जनसंघर्ष के साथ जुड़ना और कदम-कदम पर यथार्थ से मुठभेड़ करना-अस्तित्व की पहचान का तकाजा है। नारी शरीर ही नहीं, मस्तिष्क भी है। स्त्री व्यक्तित्व की एक अलग पहचान के लिए आवश्यक है कि स्त्री की नैसर्गिक क्षमता का स्वाभाविक विकास हो।

हमारे समाज के विकास में नारी की भूमिका किसी दुराग्रह या प्रतिकार पर नहीं, अपितु एक व्यवस्थित विवेक और दायित्वबोध पर टिकी होनी चाहिए। आदर्श समाज के लिए प्रत्येक नर-नारी एक-दूसरे से स्वतंत्र रहने पर भी एक-दूसरे के पूरक हों। आध्यात्मिक दृष्टि से भी स्त्री और पुरुष के शारीरिक भेद हैं, आत्मा तो दोनों की समान है और आत्मा की कोई जाति नहीं होती। जब तक स्त्री स्वयं अपनी दृष्टि में अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रदान नहीं करती अथवा पुरुषों से सुलभ अधिकार, महत्त्व और मूल्यों की चाह नहीं करती, तब तक वह पराश्रित चेतना से मुक्त नहीं हो सकती। नारी-चेतना की यह विचारधारा, नारी मुक्ति की यह चेतना, कोई एकेश्वरवादी लड़ाई नहीं है, यह विभिन्न संदर्भों में, विविध देशों में, विभिन्न समय में, विभिन्न रूपों में स्त्री को समझने की कोशिश करती है। नारी स्वतंत्रता अर्थात् नारी के पारिवारिक, आर्थिक, राजकीय, सरकारी और वैचारिक स्तर पर मत प्रकट करने की स्वतंत्रता ही है।

नारी प्रकृति का सुंदर उपहार है। नारी सृष्टि का आधार होने के कारण उसे विधाता की अद्वितीय रचना कहा जाता है। नारी समाज, संस्कृति और साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग है। मानवीय गुणों की दृष्टि से विचार किया जाए तो नारी अधिक मानवीय है। जहाँ कहीं नारी का शोषण और अन्याय होता है, वहाँ उसका प्रतिरोध भी होता है। नारी व्यक्तिगत रूप में अपनी प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्न भी करने लगती है। पुरुष प्रधान समाज-व्यवस्था में नारी को सदैव भोग की वस्तु माना गया है। मानव संस्कृति के भीतर दो उप संस्कृतियाँ हैं- पुरुष उप-संस्कृति और नारी उप-संस्कृति दोनों के सम्मिलित रूप से ही मानव संस्कृति बनती है। स्त्री की अपनी विशिष्ट पहचान होती है जिसे मान्यता मिलना आवश्यक है। आधुनिक शिक्षा एवं आर्थिक दवाब के फलस्वरूप महिलाओं के परिवार-केन्द्रित कार्यों को छोड़कर विविध पारिवारिक अधिकार, जीवन साथी चुनने का अधिकार, सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में समानता के अधिकारों के फलस्वरूप भारतीय महिलाओं की जीवन-स्थिति में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है। स्त्रियों के बारे में स्वामी विवेकानन्द ने 'धर्म और समाज' नामक पुस्तक में लिखा है-

"पश्चिम की नारी पहले पत्नी है, फिर माँ है, जबकि भारत की नारी पहले माँ है, बाद में पत्नी। यह एक बुनियादी अन्तर है। उन्होंने यह भी लिखा है कि आज भी हमारे घरों में पत्नी, बहन, माता इन सब शब्दों के ऊपर लक्ष्मी और देवी शब्दों को अधिक श्रद्धा से व्यक्त किया जाता है। इससे सिद्ध है कि पुराकाल में महिलाएँ उच्च शिक्षा की अधिकारिणी थीं।" स्त्री पर हो रहे अत्याचार को नज़र अंदाज करते हुए डॉ.

प्रभावती जड़िया ने लिखा है-

"मैं संयुक्त परिवार से घृणा करती हूँ, इसमें स्त्री अपना व्यक्तित्व बिलकुल खो देती है। पुत्रवधुओं की कोई बात सुनी नहीं जाती, अपने बच्चों को पालने में भी उनका कोई बस नहीं चलता। अनेक अवस्थाओं में वे यंत्रवत् कार्य करने वाली परिवार की दासियाँ मात्र हैं।"

नारी कुटुम्ब को आनंद देने वाली है, वह प्रेम, दया, करुणा, धर्म, परिश्रम और स्वार्थ-त्याग की प्रतिमा है तथा पुरुष वर्ग इससे शक्ति, उत्साह एवं हर कार्य में सहायता प्राप्त करता है। जननी के रूप में वह स्वर्ग से भी अधिक महिमाशाली है। संक्षेप में हम कहना चाहें तो कह सकते हैं कि स्त्री स्वयं एक आत्मा है।

प्रेमचन्द युगीन कथा साहित्य में भैरव प्रसाद गुप्तजी समाजवादी एवं जनवादी लेखक रहे हैं। उनकी दृष्टि मार्क्सवादी है। उपन्यास एवं कहानी के मात्र मनोरंजकता प्रदान करने वाले स्तर से ऊपर उठकर प्रेमचंदजी की यथार्थवादी परंपरा को आगे बढ़ाने का महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्य भैरव प्रसाद जी ने किया है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी भैरवजी की कृतियों में साम्राज्यवाद एवं पूँजीवाद के विरोध में संघर्ष करने की प्रवृत्ति तथा शोषण के विरोध में शोषकों के संगठन का सन्देश दिखाई देता है।

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