लखनऊ के अखिल भारतीय संस्कृत-परिषद् के पुस्तकालय में, वाराणसी के सरस्वती भवन पुस्तकालय और हिन्दू विश्वविद्यालय के सयाजीराव गायकवाड़ पुस्तकालय में शारदा लिपि के ग्रन्थों का नवीन संग्रह हुआ है, यह सूचना मिलने पर मैने योगतन्व विभाग के व्याख्याता श्री ब्रजबल्लभ द्विवेदी को इन संग्रहों का सावधानी से अवलोकन करने के लिये कहा था। उन्होंने मुझे संस्कृत-परिषद् के पुस्तकालय में विद्यमान शारदा लिपि के कतिपय स्तोत्र एवं तन्त्र ग्रन्थों की सूचो दो। इनमें से कुष्ठछ ग्रस्थो को चुनकर उनकी प्रतिलिपि भिजवाने के लिये मैने संस्कृत-परिषद् के मन्त्री थी गोपालचन्द्र सिंह जी को लिखा। उन्होंने उन सभी ग्रंथों की प्रतिलिपि भेजते हुये मुझे लिखा कि इनमें से छोटे ग्रन्थों का प्रकाशन संस्कृत-परिषद् की अनुसन्धान पत्रिका 'ऋतम्' में सम्भव हो सके तो हमें प्रसन्नता होगी। इस प्रस्ताव पर मैंने उनको अपनी स्वीकृति भेज दी। फलस्वरूप अवधुतसिद्ध का यह भक्तिस्तोत्र प्रथमतः विद्वानों के समक्ष उपस्थापित किया जा रहा है।
इसका सम्पादन दो मातृकाओं के आधार पर किया गया है। प्रथम मातृका अखिल भारतीय संस्कृत-परिषद्, लखनऊ की तथा दूसरी राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर की है। इस दूसरी मातृका की सूचना भी थी ब्रजबल्लभ द्विवेदी को राजस्थान-यात्रा के प्रसंग में जोधपुर जाने पर मिली। लखनऊ मातृका को टिप्पणियों में 'ल' और जोधपुर मातृका को 'जो' संकेत दिया गया है। इन दोनों मातृकाओं का परिचय इस प्रकार है।
ल०- क्रमसंख्या २३९३, शारदालिपि, आकार १७ १२.९ ई०, पत्त्रसंख्या ६, प्रतिपृष्ठ पंक्ति ११, प्रतिपंक्ति अक्षर ३६, लिपिकाल नहीं दिया गया है। देखने में मातृका प्राचीन है और इसके किनारे कटे-फटे तथा कीटदष्ट है। इस मातृका में अनुतराष्टिका प्रभूति ९ ग्रन्थ है और यह भक्तिस्तोत्र इसके १४३-१४८ पत्रों में निबद्ध है। स्तोत्र का आरम्भ "ओं स्वस्ति जो नमो भगवते वासुदेवाय" से होता है।
जो०- क्रमसंख्या १११०६, देवनागरी लिपि, आकार १७ २५ सें० मी०, पत्रसंख्या ५, प्रतिपृष्ठ पंक्ति २४, प्रतिपंक्ति अक्षर २२, लिपिकाल नहीं दिया गया है। इस मातृका में बोधविलास प्रभृति ग्रन्य हैं और यह स्तोत्र इसके २२-२६ पत्रों में निबद्ध है। स्तोत्र का आरम्भ"ओं नमो नेत्रनाथाय" से होता है।
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