| Specifications |
| Publisher: Bharat Book Centre, Lucknow | |
| Author Ram Chandra Upadhyay | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 224 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9.00x6.00 inch | |
| Weight 430 gm | |
| Edition: 2024 | |
| ISBN: 9789394992849 | |
| HBP921 |
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सनातन धर्म की अजस शाश्वत धारा अज्ञात, अनादि काल से प्रवहमान है। प्रवहन की इस दीर्घ काल-यात्रा में इसे इतिहास के अनेक ऊबड़-खाबड़ भू-प्रदेशों से होकर गुजरना पड़ा, समाज की आवश्यकतानुसार अपने को परिवर्तित, परिवर्धित, समायोजित व पुनरीक्षित करना पड़ा, पहले विशुद्ध 'मानव धर्म', फिर 'वैदिक धर्म, तत्पश्चात् 'सनातन धर्म' और 'हिन्दू-धर्म' नाम इसने धारण किये। पर धर्म का स्वाभाविक मूल तत्त्व 'सर्व स्वीकार्य सदाचरण और मानव कल्याणकारी प्रकृति' इसके अन्तः में सदैव विद्यमान रहे।
विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद की भाषा, भाव विचार, ज्ञान और संदेश अत्यंत ही गरिमामय, गहन और परिपक्व हैं। इससे ज्ञात होता है कि उस समय की संस्कृति और सभ्यता काफी उन्नत थी। यह एक दो वर्षों में सम्भव न था इसमें सहस्त्रों वर्ष लगे होंगे और सनातन धर्म की नींव जो मानव जीवन के स्वाभाविक कल्याणकारी मूल्यों (यथा-सत्य, आस्तेय, क्षमा, दम, शौर्य आदि) पर आधारित है तभी (वेदों के प्राकट्य के काफी पूर्व) पड़ चुकी थी, 'सनातन धर्म' वेदों से भी पुराना है। वेदों में उसे स्पष्ट और विश्लेषित किया गया। उस समय 'धर्म' शब्द प्रचलन में नहीं आया था। ऋग्वेद में इसके स्थान पर ऋत' शब्द प्रयुक्त हुआ है। बाद में धर्म 'धारण योग्य आचरण का पर्याय बन गया।
सनातन धर्म किसी ईश्वरीय सन्देश वाहक, धर्मगुरु या राजाज्ञा द्वारा प्रतिपादित व्यक्तिगत सिद्धान्तों पर आधारित मत, मजहब या रेलिजन नहीं है। यह 'धर्म' है जो मानव समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये सहस्रों वर्षों के सामूहिक अनुभव व पाण्डित्य के आधार पर समाज द्वारा स्वयं मान्य किया गया है। इसे स्वयंभू धर्म भी कहा जाता है। यह एक स्वाभाविक या प्राकृतिक धर्म है। यह धार्मिक ग्रंथों व धर्मशास्त्र (स्मृतियों या संहिताओ) द्वारा प्रतिपादित नहीं है बल्कि धर्मग्रंथ उसकी व्याख्या और विश्लेषण करते हैं।
धर्म मानव समाज का नियामक, संयोजक व अनुशासक है। यह कर्त्तव्य व अकर्त्तव्य की मर्यादा बाँधकर समाज को उच्छृंखल होने से बचाता है तथा मानव को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ बनाता है। धर्म स्वयं में स्थापित मर्यादा है। कर्त्तव्य-तत्त्व इसका एक महत्त्वपूर्ण घटक है। धर्म की सीमा सार्वभौम है। इसमें कट्टरवाद का कोई स्थान नहीं है। धर्म मनुष्य की अन्तः चेतना एवं नैसर्गिक प्रवृत्ति और आचरण मूलक है। विशुद्ध धर्म मजहब, पंथ या मत से भिन्न है। यह संप्रदायिकता धर्मान्धता से दूर है।
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