महाकवि भास संस्कृत नाट्यजगत् के वह देदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिनकी प्रखर कीर्ति रश्मियों काल की अबाध बाधाओं को बाधित करते हुए अद्यावधि संस्कृत जगत् को अपने आलोक से उज्ज्वल बनाये हुये हैं। महाभारत, रामायण, पुराण तथा लौकिक इतिवृत्त पर आधारित इनके रूपक अभिनेयता की दृष्टि से अद्वितीय हैं। विषयवस्तु विन्यास की सटीकता, सरस-सहज प्रवाहपूर्ण भाषा, सुरम्य प्रकृति-चित्रण, गुणालङ्काररसादि का समुचित प्रयोग महाकवि भास की विशेषताएँ हैं। महाकवि भास ने एकाङ्की से लेकर दस अङ्क तक के रूपकों का प्रणयन किया है। इनके रूपकों की प्रवाहमयता पाठक को संसिक्त करने में समर्थ है। ऐतिहासिक पौराणिक रूपकों में यत्किञ्चित् परिवर्तन किया गया है, किन्तु वह नाट्यशास्त्रीय मर्यादाओं के अनुकूल तथा प्रकरण की दृष्टि से आवश्यक प्रतीत होता है।
महाकवि के रूपक नाट्यशास्त्रीय परम्पराओं के भी पूर्णतः अनुकूल हैं। औचित्य का अनुपालन इनकी अद्वितीय विशेषता है। आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य को सौन्दर्यावह एवं अनौचित्य को अपकर्षक मानते हुए औचित्य को काव्य का प्राणभूत तत्त्व स्वीकार किया। यद्यपि अनेक पूर्ववती विद्वानों ने भी औचित्य का महत्त्व स्वीकार किया है तथापि इसे काव्यात्मा के पद पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य क्षेमेन्द्र को ही है। इन्होंने औचित्य के अभाव में गुण, अलङ्कार, रस सभी को निरर्थक माना है। औचित्य की व्यापकता एवं महत्ता को स्थापित करने के लिए इन्होंने औचित्य को सत्ताईस भेदों में वर्गीकृत कर उसके प्रत्येक भेद को उदाहरण-प्रत्युदाहरण से सुस्पष्ट किया है।
गुण, अलङ्कार, रस, ध्वनि आदि के आधार पर भास के रूपकों का बहुधा विवेचन किया गया है। पुस्तक लेखन का विचार आते ही मेरे मस्तिष्क में अनेक विषय आलोडित होने लगें। नवीन विषय के अन्वेषणार्थ मेरी दृष्टि औचित्य सिद्धान्त की ओर उन्मुख हुई। औचित्य सिद्धान्त का निर्वाह रूपकों में कहाँ तक किया गया है, तदर्थ मैंने महाकवि भास कृत रूपकों का अध्ययन किया। परिणामतः प्रस्तुत पुस्तक का प्रणयन हुआ। इसमें मैंने महाकवि भास के समस्त तेरह रूपकों का अध्ययन आचार्य क्षेमेन्द्र निर्दिष्ट औचित्य के सत्ताईस भेदों के परिप्रेक्ष्य में किया है।
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