भारतीय संस्कृति की सम्यक् जानकारी के लिए इस देश की कला का ज्ञान आवश्यक है। इस युग के प्रसिद्ध कला-मर्मज्ञ डॉ. आनन्द कुमारस्वामी ने भार-तीय साहित्य, वास्तु, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत और नाट्य का अन्योन्याश्रित संबंध उजागर किया। उन्होंने इस देश की परंपरा के मूलभूत तत्वों को बताया और कला के अध्ययन में दर्शन तथा साहित्य के ज्ञान की अनिवार्यता पर बल दिया । उनकी इस विचारधारा को रवीन्द्रनाथ ठाकुर, हैवेल, रायकुष्णदास, स्टेला क्रमरिश, मोतीचन्द्र, वासुदेवशरण अग्रवाल आदि विद्वानों ने आगे बढ़ाया ।
कुमारस्वामी के पहले कला के मूर्त रूपों के विवरण देना ही कला को अध्ययन माना जाता था। फर्गुसन, पर्सी ब्राउन, कनिंघम आदि पूर्ववर्ती लेखकों ने अपने अध्ययनों में वर्णनात्मक शैली को ही प्रमुखता दी ।
भारतीय कला के विविध रूपों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि उसमें दो मुख्य तत्वों का समन्वय है, एक नैतिक और दूसरा सौंदर्यपरक । महाकवि कालिदास ने कला की परिभाषा करते समय इन्हीं दोनों पक्षों पर बल दिया है। अपने ग्र'थ कुमार संभव (सर्ग ५,३६) में शिव-पार्वती संवाद में उन्होंने शिव के मुख से कहलाया है कि रूप या कला पाप-वृत्ति को उकसाने के लिए नहीं है, बल्कि वह चित्त घोर हृदय की वृत्तियों की शुद्धि और उदात्तीकरण का साधन है:
यदुच्यते पार्वति, पापवृत्तये न रूपमित्यव्यभिचारि तद्वचः ।
तथा हिते शीलमुदा रदर्शने, तपस्विनामप्युपदेशतां गतम् ।।
कालिदास ने यहाँ शील या चरित्र पर विशेष बल दिया है, जो कला का प्राण है। प्राचीन भारतीय चितकों और कलाकारों ने उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए ललित कलाओं के विधान और स्वरूप निर्धारित किये ।
गुप्त-युग भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल था। उस समय कला के जो मानदंड निर्धारित हुए उनमें प्रतिमा लक्षणों के साथ शील और चारूत्व तत्त्व के समन्वय को महत्व प्रदान किया गया। कला के जो मुख्य सिद्धांत गुप्त-युग में प्रतिष्ठापित हुए उन्हें पार्वती युगों में निरंतर विकसित किया गया ।
दक्षिण कोसल का क्षेत्र भारतीय राजनीति और सांस्कृतिक इतिहास में विशेष स्थान रखता है। यहीं होकर आर्य संस्कृति की प्रमुख धारा दक्षिण-पश्चिम की ओर गयी। धीरे-धीरे आंध्रप्रदेश से लेकर केरल तक के भू-भाग भारतीय संस्कृति से श्राप्लावित हो गये। दक्षिण कोसल में भारतीय ललित कलाओं के विविध रूप शताब्दियों तक साथ-साथ संबंधित हुए। बिलासपुर जिला के मल्हार नामक स्थाम में वासुदेव-कृष्ण की अभिलिखित चतुर्भुजी प्रतिमा मिली है, जो देश में अब तक प्राप्त इस देव की प्रतिमाओं में प्राचीनतम है। उसी के आधार पर हिन्द-यूनानी शासक अगाधोक्लीज ने अपनी कुछ मुद्राओं पर चतुर्भुजी कृष्ण का अंकन किया । हाल में कुषाण-शासक वासुदेव-प्रथम की एक स्वर्णमूद्रा मिली है, जिस पर चतुर्भुजी वासुदेव कृष्ण का अत्यन्त कलापूर्ण अंकन है। दक्षिण कोसल में वैष्णव धर्म के साथ-साथ शेव-शाक्त धर्म का प्रसार ईसवी छठी से चौदहवीं शती तक हुथा। वास्तुकला तथा मूर्तिकला के जो अवशेष इस क्षेत्र के विभिन्न भागों में मिले हैं, उनसे इस बात की पुष्टि होती है। अनेक मंदिरों और मूति-भण्डारों का पता दक्षिण कोसल के ऐसे स्थलों पर चला है जो आधुनिक काल में दुर्गम हो गये हैं।
भोरमदेव का कला केन्द्र ऐसे ही दुर्गम स्थानों में है। इस केन्द्र की वास्तु तथा मूर्तिकला को उपयुक्त ढंग से उजागर करने का श्रेय डॉ. सीताराम शर्मा को है। प्रस्तुत पुस्तक में भोरमदेव की कला का विवरणात्मक रूप विस्तार से दिया गया है। साथ ही कला के चारूत्व तत्व तथा मूतिविज्ञान दोनों की विवेचना की गयी है। पूर्ववर्ती कला के जिन मुख्य लक्षणों ने भोरमदेव को प्रभावित किया उनका तथ्यात्मक निरूपण करने के साथ इस बात को भी स्पष्ट किया गया है कि पूर्वमध्य काल में तथा ई. बारहवीं शती के बाद भी दक्षिण कोसल का दक्षिण-पश्चिमी अंचल कला की उर्वरता की दृष्टि से महत्वपूर्ण बना रहा। देश के बहुत कम स्थलों से विवेच्य युग की सामग्री उपलब्ध हुई है। इस दृष्टि से भी भोरमदेव का विशेष महत्व है।
भारतीय कला के मध्ययुगीन इतिहास की कड़ियों को जोड़ने में यह ग्रंथ निस्संदेह सहायक सिद्ध होगा। इस कृति के लिए लेखक साधुवाद का पात्र है।
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