हमारे पुरातन धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है कि मानव शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है। यह पंचतत्व है-आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। इन पंचतत्वों के बाद ही मानव शरीर और अन्य प्राणियों का शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना। इसी पंचतत्व में विद्यमान पृथ्वी पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्वों में पाया जाने वाला पदार्थ है 'अन्न'। अन्न के बिना पृथ्वी पर किसी प्राणी के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। चाहे जलचर, थलचर या उभयचर, कोई भी प्राणी हो। दैनिक रूप से जब वह अपनी क्षुधा को मिटाता है तभी अपने दैनिक अन्य क्रियाकलापों को संपन्न कर पाता है। अगर हम कल्पना करें तो यह मान सकते हैं कि पृथ्वी पर जब भी जीव-जंतु जगत का अस्तित्व आया होगा, यह क्रम भी तभी से चला आ रहा है। अन्न की तलाश में ही मानव के पूर्वजों ने कभी खानाबदोश जिंदगी बिताई। शुरुआत में उन्हें जैसा भी भोजन मिला, उन्होंने उसी से खुद को तृप्त किया। लेकिन बीतते समय के साथ ही जब मानव में प्रज्ञा बढ़ती गई, उसने अन्न उपजाने की कला सीखी और पका हुआ भोजन करना शुरू किया और इस तरह कहा जा सकता है कि अन्न की भी यह एक अनोखी अनंत यात्रा की शुरुआत हो गई।
भारत की संस्कृति आदिकाल से इतनी विराट और लचीली रही है कि इसके विशाल जलसागर में समय के साथ जितनी भी संस्कृतियाँ आती गईं, सभी को इसने अपने में समाहित कर लिया और इस मिश्रण से एक नया परिदृश्य उभर कर आया, लेकिन वह भारतीय संस्कृति का ही अलहदा रूप लिये रहा। 'अन्न संस्कृति' भी इसी तरह रही। समय के साथ भारत की भौगोलिक सीमायें घटती-बढ़ते रहीं। विविध संस्कृति के लोग यहाँ आकर बसते गये और इसी के साथ उनकी 'भोजन संस्कृति' भी तात्कालिक परिदृश्य में जुड़ती गई। मिसाल के तौर पर आलू को ही ले लीजिये, आज आलू के बिना सब्जियों की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन पुरातन काल में आलू भारतीय भोजन संस्कृति का हिस्सा था ही नहीं। भारत में आलू की आमद मुगल बादशाह जहाँगीर के समय हुई, जिसे यूरोपीय व्यापारी साथ लेकर आये। पर समय के साथ यह भारतीय भोजन संस्कृति में इस तरह घुलता गया कि आज घर-घर में आलू ने अपनी जगह बना ली। यही हाल टमाटर और अन्य भोज्य पदार्थों का है। पर जब ये आधुनिक भोज्य पदार्थ हमारी रसोई का हिस्सा नहीं थे तब भी (हमारे पास ऐसे साक्ष्य मौजूद है) भारतीय संस्कृति में सुस्वादु भोजन की अद्भुत परंपरा थी। हमारे ऋषि या पूर्वजों ने प्रकृति से संतुलन बनाते हुए ऐसी भोजन संस्कृति स्थापित कर ली थी जो न सिर्फ स्वादिष्ट थी बल्कि शरीर को निरोगी रखने का भी आधार हुआ करती थी। उदाहरण के रूप में तैतिरीय संहिता (5-2-5-5) में विविध अन्न यथा तिल, उड़द, जौ का उल्लेख मिलता है।
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