वह एक प्रसिद्ध पाकिस्तानी जनरल के बेटे से शादी करती है और नियमित रूप से गुप्त जानकारी भारतीय गुप्तचर एजेंसी को पहुँचाना उसका मिशन है। वह बहुत साहस और बहादुरी के साथ यह जोखिम भरा कार्य करती रहती है, जब तक कि संयोग से उसे एक ऐसी सूचना नहीं मिलती, जिससे उसके प्यारे देश की नौसैनिक क्षमता नष्ट हो सकती थी।
वास्तविक घटनाओं से प्रेरित कॉलिंग सहमत ऐसा जासूसी थ्रिलर है, जो इस अज्ञात युद्ध-वीरांगना की कहानी बयान करता है।
हाल ही में उन्होंने नानक शाह फकीर नामक फिल्म बनाई, जिसे कांस, टोरंटो और लॉस एंजिलिस के अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में सराहा गया। फिल्म को तीन राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले, जिनमें राष्ट्रीय एकता पर सर्वोत्तम फीचर फिल्म के लिए नरगिस दत्त पुरस्कार शामिल था।
कॉलिंग सहमत उनकी पहली पुस्तक है। इस पर मेघना गुलज़ार ने राज़ी नाम से फ़िल्म बनाई।
सिक्का नई दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहते हैं।
उमा पाठक ने इस पुस्तक का अनुवाद किया है। चार दशक से ज्यादा वर्षों तक सेवारत रहने के बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज में रीडर पद से अवकाश प्राप्त किया। अब तक उनकी तीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें मौलिक पुस्तकों के अतिरिक्त अंग्रेजी तथा बांगला से अनूदित पुस्तकें शामिल हैं। पेंगुइन के लिए उनकी यह सातवीं पुस्तक हैं।
सिवाय एक के।
ऊँची और पूरे गौरव से खड़ी सफ़ेद संगमरमर की हवेली ने, जिसके चारों तरफ मखमली हरे लॉन थे, कुछ घंटे पहले अपनी प्रमुख सदस्या को खो दिया था। गाँववालों, खासकर औरतों के लिए, यह सिर्फ एक पत्थर की इमारत नहीं बल्कि शांति का प्रतीक थी, एक मंदिर था जहाँ वे कभी भी आ सकते थे और अपनी बात कह सकते थे।
नये दिन के आने के साथ सहमत ख़ान का यह भव्य बंगला चुपचाप दुख में डूब गया। तेज ख़ान वह बुजुर्ग माँ थी, जो अब इस बड़े घर की एकमात्र स्थायी सदस्या बची थी। उसने अपनी बेटी को आखिरी बार देखा। मृत्यु में वह शांत और आनंदित दिख रही थी। उसने चुपचाप सोनेवाले कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया। आँसू पीते हुए वह फोन तक गई और हड़बड़ाते हुए समर ख़ान को फोन करने का मुश्किल काम करने लगी। जैसे ही उसने एक छोटा-सा जवाब सुना 'हैलो', वह बोली, 'अम्मी नींद में गुजर गई। घर आ जाओ।' समर के फ़ोन रखने से पहले उसकी एक दर्द भरी उसाँस की हलकी-सी आवाज सुनाई दी। यह सबूत था इस बात का कि उसे कितना बड़ा धक्का लगा था। तेज ने भी फोन वापस रख दिया।
फोन की दूसरी तरफ समर खान दुख में ऐसा घिर गया कि उसकी साँस भी फँसने लगी। दो दिन पहले वह अमृतसर स्थित अपने फील्ड स्टेशन से ड्यूटी पर दिल्ली आया था और उसने हफ्ते के आखिरी दिनों की छुट्टी माँग ली थी। हाल ही में उसे कैप्टन के पद पर तरक्की मिली थी और उसने बड़े उत्साह से नई वर्दी और बैज्ञेज़ का ऑर्डर दिया था, ताकि उन्हें पहनकर अपनी माँ को दिखा सके। सहमत हमेशा उसे वर्दी में सजा देखकर गर्व और खुशी महसूस करती थी। हांफते हुए उसने सिर झटककर अपना दिमाग खाली करने की कोशिश की। उसे अकेले जीवित पुत्र का दायित्व निभाना था, जो कहना आसान था, करना मुश्किल। उसका मन दुखी था, नज़र धुंधली। आँसू उमड़ रहे थे, जैसे बहकर खुद को उस दुख से दूर करना चाहते थे, जो उसके शरीर को तोड़ रहा था।
ऐसा लगा, मानो कैप्टन समर खान का पूरा जीवन ही बीत गया, जब उसने अपने को सँभालकर कमांडिंग अफसर, ब्रिगेडियर पार्थसारथी को फोन कर आपातकालीन छुट्टी की अनुमति माँगी।
जब समर खान ने अपने जीवन के सबसे मार्मिक युद्ध के लिए जरूरी चीजों के साथ अपना सामान बाँधा, उसके कमांडिंग अफसर ने सहमत ख़ान के परिवार के उस सदस्य को फोन किया, जिससे उसने दूर रहने का फैसला किया था। वह, जिसके बारे में कोई नहीं जानता था।
इस बीच समर ख़ान अपनी नई वर्दी में तैयार हुआ, अपनी सफ़ेद मारुति कार में बैठा और जल्दी से दिल्ली की वीरान सड़कों से होता हुआ नेशनल हाईवे । पर चला आया जो उसे उसके उस लक्ष्य तक पहुँचाने वाला था, जो अब तक उसके लिए एक पहेली बना हुआ था।
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