तुलनात्मक लोक प्रशासन' एक ऐसी उपविशिष्टता का क्षेत्र है जिसने लोक प्रशासन, के अध्ययनों को एक नई पहिचान दी है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब तथाकथित विकासशील देशों की तीसरी दुनिया विश्व रंगमंच पर अपनी भूमिका तलाशने के लिए उभर रही धी, पश्चिम के समाजशास्त्री तुलनात्मक अध्ययनों के क्षेत्र में आगे आये। उनके लिए यह क्षेत्र नया था। उनकी अपनी दुर्भावनायें और शोध सीमायें भी थी, जिनमें रहते हुए यह 'तुलना क्षेत्र' विकसित हुआ है परन्तु शताब्दी के अन्त तक जब शीतयुद्ध की एक महारथी शक्ति 'सोवियत यूनियन' विघटित हो गई तो तीसरी दुनिया 'तीसरी' नहीं रही। एकल ध्रुवीय विश्व के नेता के रूप में अमेरिकी दृष्टि 'नव दक्षिण पथ' के विकास में लग गई जिस कारण आज 'विकासशीलता' शब्द का अर्थ ही बदलने लगा है। पहले जो तुलना एक सन्दर्भ रखती थी वह नये सन्दर्भ में अब अर्थहीन ही सी लगती है।
'तुलनात्मक लोक प्रशासन' के अध्ययन में फ्रेड रिग्म्स एक नये पथ-प्रणेता के रूप में अपना 'सी. ए. जी.' लेकर आये थे। उनके 'प्रिज्मेटिक समाज' और उसके 'सला माडलों' ने लम्बे समय तक प्रशासनिक अध्ययनों की दुनिया में धूम मचाई और 'पारिस्थितिकी उपागम' के. नाम पर 'प्रशासनिक विकास' और 'विकास के प्रशासन' के सिद्धान्त ढूंढ़े गये। कुछ महत्त्वपूर्ण -उपलब्धियों के बावजूद भी यह सारा अध्ययन क्षेत्र नाना प्रकार की दुर्भावनाओं से ग्रस्त रहा और 'शुड बी डिफ्रेक्टेड' जैसी आलोचनाओं ने निश्चित सार्वदेशिक सिद्धान्त-निर्माण की 'प्रक्रिया को गम्भीरता से बाधित किया। अन्ततः जब प्रशासनिक संस्कृति के मूल्य इन तुलनाओं की तुलनीयता में प्रविष्ट होने लगे तो यह सारा ज्ञान उपक्रम ही ताश के पत्तों की तरह ढह गया और आज जब सरकार द्वारा प्रायोजित विकास ही संकट में आ गया लगता है तब इस तुलनात्मक लोक प्रशासन की दिशा क्या हो, यह प्रश्न स्वयं बहुत-सी अनहोनी सम्भावनाओं के प्रश्नचिह्न लगा रहा है।
तुलनात्मक लोक प्रशासन के अध्ययन जो 'सी. ए. जी.' की स्थापना से आगे बढ़े थे, इस संस्था के बन्द होने पर आज मृतप्राय से लग रहे हैं किन्तु नव लोक प्रशासन में तुलनात्मक ज्ञान की स्थिति क्या होगी, यह इस तथ्य पर निर्भर करेगा कि भविष्य का विकास और भावी नौकरशाही की संरचनाएं, प्रशासनिक संस्कृतियों की अपेक्षा टैक्नोलॉजी के आगमन से कितनी प्रभावित होती हैं। आधुनिकीकरण के ये प्रश्न विकसित और विकासशीलता के अन्तरों को घटाने में जो भूमिका निभायेंगे वह प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से तुलनात्मक लोक प्रशासन का भविष्य निर्धारित करेगी।
इतिहास के क्रम में तुलनात्मक लोक प्रशासन का प्रथम चरण संस्थागत संरचनाओं की तुलनाओं के साथ आरम्भ हुआ था। यह एक प्रकार से संवैधानिक 'इन्फ्रास्ट्रकचर' का अध्ययन मात्र था क्योंकि राजनीतिक व्यवस्थाएं और उनकी संस्थाएं लोक प्रशासन की संस्थाओं और कार्य प्रक्रियाओं की जननी के रूप में देखी जा सकती थी। इंग्लैण्ड की संसदीय व्यवस्था ने वहाँ के लिए जो लोक प्रशासन विकसित किया वह अमेरिका की अध्यक्षीय व्यवस्था से भिन्न ही नहीं, बहुत कुछ नया भी था। फिर फ्रांस और सोवियत रूस की व्यवस्थाओं ने अपने-अपने प्रशासनों में नाना प्रकार के नये प्रयोग किये, यहाँ तक कि योग्यता भर्ती की अवधारणा में 'योग्यता' के विचार की परिभाषायें भी तटस्थता, विशेषज्ञता तथा प्रतिबद्धता तक फैलती चली गयी। इस संस्थागत व्यवहार का ज्ञान लोक प्रशासन के लिए उपयोगी है और इसे संवैधानिक ज्ञान की भांति उसी रूप में ही लिया जाना चाहिए।
तुलनात्मक लोक प्रशासन के अध्ययन का दूसरा चरण माडल निर्माण और सिद्धान्त निर्माण के प्रश्नों से जब जूझने लगा तो नई चुनौतियाँ उपस्थित हुई। यहाँ रिग्स, वीडनर, ब्रैबन्टी, ला प्लम्बोरा जैसे कितने ही अध्येताओं ने 'तुलना में तुलनीयता' के प्रश्नों पर बहस आरम्भ कर प्रशासनिक सिद्धान्त को सार्वदेशिक और सार्वकालिक बनाने के गम्भीर प्रयास किये। वैबर की नौकरशाही, रिम्स के प्रिज्मेटिक समाज की संस्कृतियों में उलझ कर 'विवेकपूर्ण' होते हुए भी - 'विवेकसम्मत' (Rational) नहीं रही। आलोचक कहने लगे कि वैबर केवल यूरोपीय समाजों के लिए ही संगतिपूर्ण है। गैर-यूरोपीय देशों जैसे थाईलैण्ड या भारतवर्ष में 'विवेक' (Rational) और 'योग्यता' (Merit) का वह अर्थ हो ही नहीं सकता जो वैबर में अव्यक्तीकरण (Depersonalisation) का आधार है। फलतः जो 'विवेक' एक मानसिक श्रेष्ठता का पर्याय माना / जा रहा था, भारत के संदर्भ में 'आरक्षण' का 'सामाजिक न्याय' बन गया। अब अनाम तटस्थ योग्यता आधारित वैबर की नौकरशाही की भारत की सामाजिक न्याय आरक्षित प्रतिनिधि नौकरशाही से तुलना कैसे की जाये। कौनसी नौकरशाही परिवर्तन या विकास का तन्त्र बन सकती है और उसकी इस भूमिका को 'प्रशासनिक विकास' बतला कर उसकी तुलना करना कैसे सम्भव हो सकता है? प्रिज्मेटिक समाजों को लियो, कियो या नियो के वर्गीकरणों से भारत, चीन और बैलजियम के प्रशासनों की तुलना नहीं हो सकती। फलतः प्रशासनिक संस्कृतियों की तुलना में फंसा तुलनात्मक लोक प्रशासन का अध्ययन आज भारी संकट में फंसा दृष्टिगोचर हो रहा है।
फिर नव लोक प्रबन्धन के उभरते हुए नये क्षितिजों ने तुलना की एक नई दिशा जोड़ी है और वह है निजी और सरकारी प्रबन्धन के सम्बन्ध और उनके बदलते स्वरूप। उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण जिस गति से लोक प्रशासन की प्रक्रियायें बदल रहे हैं उसमें यह तुलना लोक प्रशासन से अधिक राजनीति की तुलना लगती है। अब जब 'पब्लिक' शब्द का अर्थ बदल चुका है और 'प्रशासन' सरकारी नौकरशाही नहीं रहा है, तुलनात्मक लोक प्रशासन के चिन्तकों को यह बतलाना पड़ेगा कि क्या 'पब्लिक अफेयर्स' की तुलना तुलनात्मक लोक प्रशासन से की जा सकती है? यदि मिनिब्रुक के दो सम्मेलन राजनीति और लोक प्रशासन तथा निजी और सार्वजनिक लोक प्रशासनों में अन्तर मिटा चुके हैं तो 'तुलना' का यह क्षेत्र किस प्रकार और कहाँ तक अपने क्षेत्र का फैलाव करे?
प्रस्तुत पुस्तक अभी इन प्रश्नों से नहीं जूझ रही है। इसमें संस्थागत तुलना पर ही अधिक बल दियाँ गया है और इस दृष्टि से यह अत्यन्त उपयोगी भी है। इन मूल तथ्यों को जाने बिना सिद्धान्त-निर्माण के क्षेत्र की तुलना को किसी प्रकार की सार्थकता नहीं दी जा सकती। लेखक ने तुलनात्मक लोक प्रशासन के विद्यार्थियों के लिए एक आधारभूत अधिसंरचना प्रस्तुत की है। यह ज्ञान उन्हें व्यवहार और प्रक्रियाओं में अन्तर्दृष्टि प्रदान कर तुलनात्मक अध्ययनों के नये अध्याय खोलने में सहायता कर सकेगा। तुलनात्मक ज्ञान स्वयं अपने आप में एक विकासमान उपलब्धि है, रिग्ज हमारा आदि और अन्त नहीं हो सकता। केवल अमेरिका को भी यह अधिकार कैसे दिया जा सकता है कि वह भावी लोक प्रशासन की दशा और दिशा को अपने मापदण्डों से नापे। तुलना में किसकी तुलना, किससे, फिर कैसे और कहाँ तक की जाये, ये अहम् प्रश्न हैं। माडल निर्माण हमारी सहायता करते हैं, पर 'सिद्धान्त निर्माण' को किसी भी अध्ययन शास्त्र की रीढ़ की हड्डी कहा जा सकता है। आज का तुलनात्मक लोक प्रशासन भारी वैचारिक संकट से ग्रस्त और त्रस्त है। इसे इस कीचड़ से निकाल कर नई सम्भावनाओं के द्वार तक पहुँचाना विद्वत वर्ग के लिए चुनौती है। काश हम इसे स्वीकार कर इसकी समस्याओं के समाधान ढूंढ़ सकें।
तुलनात्मक लोक प्रशासन तुलनात्मक पद्धति से अर्जित लोक प्रशासन के ज्ञान का एक विशिष्ट अध्ययन है। तुलना की स्थिति और क्षमता एक अध्ययन-शास्त्र के विकास की निशानी है और वर्तमान में लोक प्रशासन का अध्ययन और शोध जिस स्तर पर आ चुका है वहाँ से तुलनात्मक पद्धति का अध्ययन सम्भव है और वाञ्छनीय भी।
तुलनात्मक लोक प्रशासन के अध्ययन की एक चुनौती यह है कि वह विषयगत समस्याओं से अधिक विभिन्न देशों के संस्था-वैभिन्य में उलझ जाता है। जब तक संसार में अनेक राष्ट्र और राजनीतिक व्यवस्थायें हैं, भूगोल तुलना का आधार रहेगा। राजनीतिक व्यवस्थायें भी तुलना का एक आधार हो सकती हैं किन्तु दुनिया को विकसित और विकासशील खेमों में बाँट कर उनकी तुलना करना एक सांस्कृतिक दुर्भावना है जिससे बचा जाना अपेक्षित है।
प्रस्तुत पुस्तक में जहाँ ब्रिटेन, अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों की उपलब्ध नवीनतम प्रशासनिक संरचनाओं और संस्थाओं से पाठकों को परिचित कराना इसका उद्देश्य रहा है वहीं स्विट्जरलैण्ड, जापान, चीन, श्रीलंका, नेपाल, बंग्लादेश तथा पाकिस्तान की लोक प्रशासन सम्बन्धी व्यवस्था का तुलनात्मक संदर्भ में विवेचन किया गया है। इस प्रकार विश्व के सभी प्रमुख विकसित एवं विकासशील देशों की जानकारी होने के कारण इस पुस्तक की उपादेयता बढ़ गई है। इस दृष्टि से पुस्तक को पाठक पूर्ण उपयोगी पायेंगे। पश्चिमी शोधकर्ताओं ने जो तुलनीय माना है उसे रिग्ज या वीडनर के प्रतिमानों द्वारा विश्लेषित कर विद्यार्थी को समुचित जानकारी दी गई है परन्तु विश्लेषण और विवेचना की दृष्टि से यह पूरा क्षेत्र ही अभी अविकसित है जिस पर गहन शोध की आवश्यकता स्पष्ट एवं गम्भीर है। फिर भी, जानकारी, ज्ञान और उपलब्ध सामग्री के सम्यक् एवं व्यवस्थित नियोजन से प्रस्तुत प्रयांस अधिकतम उपयोगी एवं स्पृहणीय बन पड़ा है। आशा है इसे विज्ञ पाठक उपयोगी पायेंगे।
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