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समकालीन हिंदी कविता- Contemporary Hindi Poetry

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Specifications
Publisher: Hindi Sahitya Academy, Gujarat
Author Edited By Alok Gupta
Language: Hindi
Pages: 215
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 340 gm
Edition: 2011
HBX676
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Book Description

प्रस्तावना

आठवें दशक के अंत में ऐसी कवि पीढ़ी का आगमन हुआ जिसने वैचारिक प्रतिवद्धता के बावजूद मानवजीवन के छोटे छोटे प्रसंगों, स्थितियों को कविता का विषय बनाया । इसलिए इस समय हिंदी कविता में दो धाराएँ दिखाई देती हैं। एक ओर ऐसी कविताओं की संख्या कम नहीं है जिनमें वैचारिकता का घटाटोप था । दूसरे शब्दों में कहें तो वह विचार आक्रांत कविता थी, विचार के सीधे-सीधे प्रस्तुतीकरण से कविता वोझिल होती गई। दूसरी ओर कविता में संवेदना के महत्त्व को समझकर जीवन चित्रों के माध्यम से अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के प्रयल हुए और कविता फिर से अपनी सही जमीन पाने में सफल हुई। आठवें दशक के अंत में कविताओं के अनेक संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 'नयी कविता' के कवियों के रूप में प्रसिद्ध केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर जैसे कवियों के संग्रह भी थे और उनसे पूर्ववर्ती पीढ़ी के कवियों के भी। इसी के साथ अनेक युवा कवियों के पहले संग्रह भी इस दौर में प्रकाशित हुए। 'कविता की वापसी' का जुमला छोड़ने वालों का भले ही कोई दूसरा निहितार्थ रहा हो, लेकिन इसमें दो मत नहीं हैं कि इस समय नये-पुराने अनेक कवियों के महत्त्वपूर्ण कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे । राजेश जोशी का 'एक दिन बोलेंगे पेड़', मंगलेश डबराल का 'पहाड़ पर लालटेन', अरुण कमल का 'अपनी केवल धार' और उदय प्रकाश का 'सुनो कारीगर' आदि इन कवियों के पहले कविता संग्रह है जिन्हें अपनी ताजगी के कारण सराहा गया था। इनमें किसी प्रकार के मुखर राजनैतिक-सामाजिक संदर्भों के न होने पर भी संश्लिष्ट राजनैतिक-सामाजिक चेतना को पहचाना जा सकता है।

इस बदलाव के कारणों पर काफी बहस हुई है। वादों और आंदोलनों को हिंदी कविता के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका मानने वालों को इसमें दिशाहीनता और विश्वदृष्टि के अभाव की कमी खली। लेकिन अधिकतर आलोचकों ने माना कि यही कविता की प्रकृत जमीन है। प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, प्रतिवद्ध कविता जैसे काव्य आंदोलनों के पीछे सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक (राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय) क्षेत्र की घटनाएँ, प्रेरणाएँ और प्रतिबद्धताएँ थीं, जिन्हें तत्कालीन कवि-विचारकों ने अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित विश्लेषित किया था। नयी कविता आंदोलन में दृष्टियों के टकराव के पीछे शीतयुद्ध को माना गया जिसने छठवें दशक की रचनाशीलता को विशेष प्रभावित किया। आरोप-प्रत्यारोपों की सच्चाई को अब तटस्थ मूल्यांकन की आवश्यकता है। इसके कारणों को समझना चाहिए कि नयी कविता में अज्ञेय और मुक्तिवोध विपरीत छोरों पर दिखाई देते हैं। नयी कविता को प्रतिष्ठित करने में अज्ञेय और मुक्तिबोध की कविताओं, निबंधों, संपादकीयों, डायरियों का ऐतिहासिक महत्त्व है। फिर भी अज्ञेय के 'सार्थक शब्द' की खोज कविता को सीमित दायरे में ले आती है। यह भी देखना चाहिए कि नयी कविता के दौर के किन कवियों पर वैचारिकता का दबाव अधिक है और किनकी रचनाओं में जीवन के चित्र अधिक प्रकट हो रहे थे। 'नयी कविता' से 'अकविता' के प्रयाण के पीछे पश्चिम की बीट कविता की प्रेरणा अधिक थी या इसे नेहरूयुग के मोहभंग से जोड़ा जाना चाहिए ? अकविता में जिस तरह के यौन चित्रों की प्रस्तुति है, उसे विक्षोभ और हताशा की अभिव्यक्ति माना जाए तो क्या उसके आधार हमारे जातीय जीवन में दिखाई देते हैं? हिंदी के अकविता आंदोलन पर बंगाल की भूखी पीढ़ी और गिंसवर्ग का परोक्ष प्रभाव अवश्य पड़ा, लेकिन समय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये 'प्रभाव' कवियों के अन्तर्जगत के अंग नहीं बन सके। राजकमल चौधरी, सौमित्र मोहन एवं धूमिल में जिस तरह तल्खी दिखायी देती है, वैसी अन्य कवियों में नहीं दीखती । धीरे-धीरे या तो इन कवियों में ठहराव आ गया या फिर उन्होंने इस काव्यप्रवृत्ति से किनारा कर लिया ।

प्रतिवद्ध कविता तक आते-आते मुक्तिबोध प्रेरणास्रोत के रूप में दृश्यमान होते हैं। उनकी कविताएँ अपने वैचारिक सरोकारों के वावजूद मनुष्य की आत्मग्रस्तता, असंग स्थिति, द्वंद्व, संकल्प और व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया को आंतरिक प्रतीकों और विम्बों के माध्यम से प्रस्तुत करती है। मुक्तिबोध ने पहली वार सशक्त रूप से सत्ता के आततायी रूप के साथ मनुष्य की आत्मग्रस्तता के सामाजिक-राजनैतिक कारणों को स्पष्ट किया । लेकिन प्रतिवद्ध कविता ने प्रकट रूप से मुक्तिबोध की मार्क्सवादी वैचारिकता को आधार बनाया, उनके जीवन-चित्रों की ओर ध्यान कम गया है। प्रतिवद्ध कविता की क्रांतिदर्शी कविताओं के पीछे तत्कालीन राजनैतिक परिवेश की प्रेरणा अधिक थी । वेणु गोपाल, कुमार पारसनाथ सिंह, ज्ञानेन्द्रपति, आलोकधन्वा की तत्कालीन कविताएँ नक्सलवाड़ी आंदोलन से प्रभावित थीं। इस काव्य प्रवृत्ति की आगामी परिणति जीवनधर्मी कविताओं में होती है। आलोचकों ने काव्य आंदोलन के न होने को इसका कारण भी माना है। लेकिन तथ्य यह है कि नये कवियों ने अपना नया काव्य मुहावरा वनाने का प्रयल किया और अपनी कविता में अपने आस-पास के जीवन के चित्रों को संजोया। इन युवा कवियों ने ही नहीं, पुरानी पीढ़ी के समर्थ कवियों की कविताओं में मनुष्यजीवन के रागात्मक चित्रों की संख्या बढ़ने लगी। इस दौर में नामवाचक और परिवार के सदस्यों पर आत्मीय कविताएँ आई । शायद ही कोई महत्त्वपूर्ण कवि होगा जिसने माँ या पिता या अन्य आत्मीयों पर कविता नहीं लिखी हो। रोजमर्रा की जिन्दगी के चित्रों या आत्मीयों की स्मृति द्वारा इन कवियों ने अपने लगाव को प्रमाणित किया। कुमार विकल की ये पंक्तियाँ इन कवियों की मानसिकता को सही रूप में प्रस्तुत करती हैं 'मुझे लड़नी है एक छोटी लड़ाई / छोटे लोगों के लिए छोटी बातों के लिए' । काव्य दृश्य पर छोटी-छोटी, अनावश्यक लगनेवाली वस्तुओं के आ जाने से जो कविता संभव हुई उसमें अपने समय की धड़कन के साथ मनुष्य की प्रकृति और आकांक्षाएँ भी समाहित हैं।

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