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समकालीन भारतीय दार्शनिक एवं उनका दर्शन- Contemporary Indian Philosophers and Their Philosophy

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Specifications
Publisher: Motilal Banarsidass Publications, Delhi
Author Shobha Nigam
Language: Hindi
Pages: 420 (With B/W Illustrations)
Cover: PAPERBACK
9x6 inch
Weight 450 gm
Edition: 2026
ISBN: 9789349939332
HCB074
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Book Description

भूमिका

स मान्यतया 'भारतीय दर्शन' शब्द का उच्चारण करते ही हमारे सामने वैदिक षड्दर्शन अर्थात् छः वैदिक दर्शन; सांख्य, योग, न्याय, वैषेशिक, मीमांसा एवं वेदांत दर्शन तथा अवैदिक तीन दर्शन; जैन, बौद्ध और चार्वाक के चित्र तैर जाते हैं। ईसा के करीब 1500 वर्ष पूर्व रचित वेदों में षड्दर्शन के बीज देखे जा सकते हैं। वेदों को प्रामाण्य मानते हुये हमारे देश में सदियों तक वैदिक षड्दर्शनों का विकास हुआ। किंतु भारतीय वैदिक परम्परा में कुछ ऐसी बातें भी थीं, जैसे; यज्ञ के आडम्बरपूर्ण खर्चीले कर्मकांड, बलिप्रथा आदि, जिनका उस काल में ही विरोध प्रारंभ हो गया था। यह विरोध करने वाले मुख्यतः जैन, बौद्ध और चार्वाक, ये तीन दर्शन थे, जो वेदों की प्रामाणिकता को, उसके कर्मकांडों को स्वीकार नहीं करते थे। यद्यपि वेदों के अंतिम भाग उपनिषदों में भी इनके विरोध के स्वर सुनाई देने लग गये थे किंतु उनकी आस्था वेदों में बनी हुई थी।

उल्लेखनीय है कि वैदिक छः दर्शनों तथा वेद-विरोधी तीनों दर्शनों में भी आपस में विरोध था। इन सबका एक लंबा इतिहास भारतीय दर्शन में चलता रहा है। भारतीय दर्शन पर लिखी परम्परागत पुस्तकों में हमें इन्हीं दर्शनों का उल्लेख मिलता है। सामान्यतया इसमें समकालीन भारतीय दर्शन का उल्लेख नहीं किया जाता है, जबकि इसका, विशेषकर 20 वीं सदी के भारतीय दर्शन का, अध्ययन हमारे लिये अत्यंत आवश्यक है क्योंकि हमारे लिये यह एक जीवंत सदी रही है। यह हमारी बौद्धिक आकांक्षाओं और इच्छाओं को अभिव्यक्त करने वाली सदी रही है। इस सदी में भारत ने आजादी के लिये संघर्ष किया और लंबी गुलामी के बाद आजादी की सांस ली है। इस सदी में पाश्चात्य जगत् से भारतीय मनीषा का प्रगाढ़ परिचय और संपर्क हुआ है। उल्लेखनीय है कि इस सदी में नवहीगलवाद, विकासवाद, अस्तित्ववाद, यथार्थवाद, मार्क्सवाद और वैज्ञानिक मानववाद आदि सिद्धांत पाश्चात्य दार्शनिक जगत् पर हावी रहे जिसका प्रभाव पाश्चात्य जगत् के संपर्क के कारण भारतीय दार्शनिकों पर भी पड़ा। फिर, पूरे यूरोपीय जगत् ने दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका झेलने के कारण मानव अस्तित्व के प्रति चिंता करते हुये जिस अस्तित्ववादी दर्शन का प्रतिपादन किया, उससे भी भारतीय विचारक प्रभावित हुये। विभिन्न धमों के अनुयायियों द्वारा धर्म को लेकर हमारे देश में तथा दुनिया के अन्य स्थानों पर हुये आपसी झगड़ों के कारण सर्वधर्मसमन्वय एवं सर्वधर्मसमभाव की आवश्यकता भी 20वीं सदी में शिद्दत से महसूस की गई। इस पर भी इस सदी के विचारकों ने गंभीर विचार किया। इसके अतिरिक्त इस सदी में मानववादी विचार भी प्रायः सभी दार्शनिकों ने रखे हैं। अनेक विचारकों ने मानव को उसके भाग्य का स्वयं निर्माता माना है भले ही उन्होंने ईश्वर के अस्तित्त्व को स्वीकार किया हो या अस्वीकार।

इस सदी के दार्शनिकों ने सामाजिक अन्याय के विरूद्ध भी आवाज उठाई। मानववादी विचारकों के लिये यह स्वाभाविक ही था कि वे मानव-मानव में भेद, जैसे, ऊंच-नीच, स्त्री-पुरूष, उच्चवर्ण-निम्नवर्ण आदि के भेद का विरोध करें। इस सदी के विचारकों ने न केवल इसे अपनी कलम से रेखांकित किया वरन् व्यवहार में इसके विरूद्ध भारतीय समाज की आंखें खोलते हुये आंदोलन भी किया।

इस काल में अंग्रेजी शिक्षा के कारण पाश्चात्य जगत् के दार्शनिक और वैज्ञानिक विचारों से भी भारतीय विचारकों का परिचय हुआ। अनेकों भारतीय दार्शनिकों ने विदेशों की यात्राएं भी की, अनेक पाश्चात्य विचारकों से वार्तालाप और साक्षात्कार भी किया, उनसे प्रभावित हुये और उनको प्रभावित भी किया। भारत में 'ऑल इंडिया फिलॉसफिकल एसोसिएशन' तथा 'अखिल भारतीय दर्शन परिषद्' की भी स्थापना हुई जहां दर्शनशास्त्रियों के द्वारा दार्शनिक विषयों की प्रस्तुति एवं विचार-विनिमय के द्वारा भी भारतीय दर्शन समृद्ध हुआ।

इन्हीं सब कारणों से भारतीय दर्शन की 20 वीं सदी महत्वपूर्ण बन गई है। अतः इसके मूल्यांकन का कार्य निश्चय ही आज महत्वपूर्ण है। फिर, 21 वीं सदी में दर्शन की गति को दिशा देने में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है, अतः इसपर नजर रखना दर्शनशास्त्र विषय से जुड़े लोगों के लिये और भी आवश्यक है। इसीलिये यह किताब लिखी गई है।

इसके प्रथम अध्याय 'पूर्व-पीठिका' में समकालीन दर्शन को समझने के लिये भारतीय दर्शन का ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया गया है। दूसरा अध्याय समकालीन भारतीय दर्शन के प्रमुख दार्शनिक एवं उनके दर्शन पर केन्द्रित है। इसमें इस काल के 20 दार्शनिकों का परिचय एवं उनके दर्शन का उल्लेख है। तीसरा अध्याय समकालीन भारतीय दर्शन की मुख्य प्रवृत्तियां है। इसमें इस सदी के दर्शन की 'मूल प्रवृत्तियों' का विश्लेशण है। इसमें उन बिंदुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है जो इस सदी के दर्शन को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं और जो प्रमुख दार्शनिकों के समान रूप से चिंतन का विषय रहे हैं। साथ ही यथास्थान इन दार्शनिकों के परस्पर विरोधी विचारों का भी उल्लेख किया गया है। अंत में संदर्भ ग्रंथों की सूची है।

मेरे पति, डॉ. एल. एस. निगम, पूर्व कुलपति, श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल विश्वविद्यालय, भिलाई, ने ही वस्तुतः यह कार्य करने हेतु मुझे प्रेरित किया है। हर लेखन के समान उनके सहयोग एवं निर्देशन के बिना मेरे लिये यह कार्य करना भी कठिन था, उन्हें मैं हृदय से धन्यवाद देती हूं।

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