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भारतीय मुसलमान इतिहास का संदर्भ- Context of Indian Muslim History (Set of 2 Volumes)

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Specifications
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author Karmendu Shishir
Language: Hindi
Pages: 838
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 1.12 kg
Edition: 2019
ISBN: Vol- 1: 9789326355766Vol- 2: 9789326355773
HBS575
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Book Description
पुस्तक परिचय
नवजागरण पर एकाग्र होकर लम्बे समय तक काम करने के पीछे मेरी सोच यही रही है कि हमारी मौजूदा समस्याओं के अनेक सूत्र हमारे निकटतम अतीत में हैं तो कुछ की जड़ें सुदूर इतिहास में। निकटतम अतीत हमें मौजूदा समस्याओं को समझने और सुधारने में इस तरह भी मदद कर सकता है कि हम देखें कि हमारे पूर्वजों ने अपने समय में समस्याओं को किस तरह सुलझाया था। अगर हम उनसे ज्यादा विवेकवान होने का दम दिखायें तब हमें उनकी चूकों से बचते हुए मौजूदा समय को आगे के लिये कम-से-कम समस्याओं वाला समय तो बना ही सकते हैं। इसमें शक नहीं कि ईमानदारी और मिल्लत हो तो ऐसा किया जा सकता है। यह बात अलग है कि संकट नीयत और व्यक्तित्व का है। अब इतनी बात तो है कि नवजागरण हमें इसका स्पेस तो मुहैया कराता ही है। एक तो सूफीवाद की प्रेमिल भावधारा वाली आध्यात्मिकता साहित्य और संगीत के माध्यम से समाज तक पहुँची तो दूसरी धारा राजनीति के माध्यम से समाज तक आयी। पहलेवाले माध्यम को लेकर हिन्दी में भी विपुल मात्रा में उत्कृष्ट कार्य हुए हैं और वह परम्परा समाज के रग-रग में पसरी हुई है। सच पूछिये तो जिस साझी संस्कृति की बात होती है, उसकी प्राणधारा इसी परम्परा से प्रवाहित होती है; जिसकी एक समृद्ध विरासत है, जिस पर भारतीय समाज को गर्व है और सहजीवन की यह मिसाल उसे पूरी दुनिया में आज भी अद्वितीय बनाये हुए है। यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि दुनिया में भारत ही ऐसा इकलौता देश है जिसमें इस्लाम की तमाम पन्थिक धाराओं के अनुयायी मौजूद हैं। ऐसा गौरव और किसी देश को हासिल नहीं है। विरोधाभासों से भरे इस विशाल देश में विभिन्न जातियों, नस्लों और धर्मों का जमावड़ा परस्पर सौहार्द और निजता के साथ मौजूद है। 'भारतीय मुसलमान : इतिहास का सन्दर्भ' तथा 'भारतीय मुसलमान : नवजागरण का सन्दर्भ' (भाग एक और भाग दो) पुस्तकें सौहार्द और निजता की परिणति स्वरूप ही लिखी गयी हैं।

लेखक परिचय
जन्म: 26 अगस्त, 1953; उनवाँस, बक्सर (बिहार) शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी) सम्प्रति : बी.डी. कॉलेज, मीठापुर, पटना में प्राध्यापक छात्र जीवन से वामपन्थी राजनीति में सक्रिय। फिर साहित्य लेखन में एकाग्र । प्रकाशित कृतियाँ : बहुत लम्बी राह (उपन्यास), कितने दिन अपने, बची रहेगी जिन्दगी, लौटेगा नहीं जीवन (कहानी संग्रह), नवजागरण और संस्कृति, राधामोहन गोकुल और हिन्दी नवजागरण, हिन्दी नवजागरण और जातीय गद्य परम्परा, 1857 की राजक्रान्ति : विचार और विश्लेषण, भारतीय नवजागरण और समकालीन सन्दर्भ, निराला और राम की शक्ति-पूजा (शोध-समीक्षात्मक लेख, आलोचना) । सम्पादन : भोजपुरी होरी गीत (दो भाग), सोमदत्त की गद्य रचनाएँ, ज्ञानरंजन और पहल, राधामोहन गोकुल-समग्र (दो भाग), राधाचरण गोस्वामी की रचनाएँ, सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टी, नवजागरण पत्रकारिता और सारसुधानिधि (दो खंड), नवजागरण पत्रकारिता और मतवाला (तीन खंड), नवजागरण पत्रकारिता और मर्यादा (छह खंड), पहल की मुख्य कविताएँ और वैचारिक लेखों का संकलन (दो भाग)। 8 पुस्तिकाएँ और समकालीन कविता, कहानी पर आलोचना लेख। यात्रा: हाईडलबर्ग, बर्लिन, स्टुटगार्ड, पेरिस, प्राग, तुइबिंगन।

अपनी बात
भारत में मुस्लिम कौम की मौजूदगी को शताब्दियाँ बीत गयीं। इस दौरान लगभग छह सौ-साढ़े छह सौ वर्षों तक ऐसे सामन्ती शासकों के अधीन देश का शासन रहा जो मुस्लिम थे और इस्लाम पर उनका यकीन था। इसमें अरब, ईरान, तुर्की या मध्य एशिया से आये विदेशी मुसलमानों की संख्या ज्यादा थी। एक छोटा-सा हिस्सा भारत के उन मुसलमानों का भी जरूर था जो समय-समय पर धर्मान्तरित हुए थे। लेकिन लम्बे शासनकाल में उनकी स्थिति अन्य समुदाय के भारतीयों से अलग नहीं थी, वे राज-काज में किसी स्तर पर भागीदार नहीं थे और वे हर दृष्टि से प्रभावहीन थे। अगर बहुत सरलीकृत ढंग से देखा जाय तो राजनीतिक तौर पर सामन्ती शासन व्यवस्था में आम जनता के नजरिये से यह बात ज्यादा महत्त्व नहीं रखती कि सामन्ती शासक हिन्दू थे या मुसलमान। धार्मिक या सांस्कृतिक स्तर पर हिन्दू धर्म के अन्तर्गत आनेवाली सामाजिक व्यवस्था कोई बेहतर व्यवस्था नहीं थी। कट्टर ब्राह्मणवाद के अन्तर्गत बनी वर्ण व्यवस्था में विशाल जनसमुदाय पददलित अवस्था में ही था। अगर कुछ उदाहरण जबरन धर्मान्तरण के तलाश लिये जाते हैं तो इसके उदाहरण भी बहुतायत में मिलते हैं कि सामाजिक स्तर पर त्रस्त एक विशाल जनसमुदाय ने स्वेच्छा से धर्मान्तरण किया था। ऐसे में चयनित नजरिये से इतिहास को देखनेवाले अक्सर मौजूदा समय में भारी संकट पैदा कर देते हैं। इतिहास का कोई भी यथार्थ कभी भी जनता के विरुद्ध नहीं जाता, बशर्ते उसके देखने का नजरिया दुरुस्त हो। अगर हम वर्तमान को सँवारने के नजरिये से इतिहास को देखेंगे तो हमें बहुत मदद मिल सकती है और ठीक इसके उलट इतिहास के दोषपूर्ण इस्तेमाल से हम समकालीन को लहूलुहान करने में तनिक देर नही करेंगे।

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