भारतवर्ष एक विशाल देश है, जिसकी सांस्कृतिक संरचना बड़ी पुरानी है। भारतीय सांस्कृतिक संरचना को प्राचीन, मध्य एवं आधुनिक कालों में बाँटा जा सकता है। इस कालपरक बँटवारे के बावजूद इसमें निरन्तरता, गतिशीलता और परिवर्तनशीलता के तत्व निरन्तर बने रहे हैं। बाह्य आक्रमण एवं संक्रमण के परिणामस्वरूप यहाँ पर अनेक सभ्यताओं एवं संस्कृतियों ने प्रवेश किया और यहां की संस्कृति में समाहित होकर एकमेव हो गए।
मध्यकाल में अरबों और तुकों के साथ यहाँ की सरज़मों में इस्लाम आया। इस्लाम को धार्मिक एवं सामाजिक सोच ने यहाँ की सभ्यता और संस्कृति को काफी कुछ प्रभावित किया। इस इस्लामी संघात का हमारी सांस्कृतिक संरचना पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इसमें संदेह नहीं कि समसामयिक परिस्थितियों इस संघात के सर्वथा अनुकूल थी फिर भी हमारी सांस्कृतिक गतिशीलता और परिवर्तनशीलता बनी रही, वह इस्लाम से प्रभावित ही नहीं हुई अपितु उसे प्रभावित भी किया। परिणामस्वरूप यहाँ की सरज़मी पर इस्लाम ने अपना रूप बदला। उसका भारतीयकरण हुआ। अरवी-इस्लाम भारतीय-इस्लाम बन गया। देखा जाय तौ भारतीय मुसलमान, अरबी मुसलमान से काफी कुछ भिन्न है। फिर भी मध्यकालीन भारत को सामाजिक एवं आर्थिक संरचना एवं उसकी भौतिक प्रगति में इस्लामी सोच को नकारा नहीं जा सकता। हिन्दू समाज की वर्गीय संरचना ने इस्लामी सोच को और प्रशस्त किया। फलतः भारतीय समाज में नव मुसलमानों की संख्या बढ़ो। नव मुसलमान कोई और नहीं पूर्व के हिन्दू थे। धर्म-परिवर्तन के साथ ये लोग हिन्दू परम्पराओं को मुस्लिम समाज में ले गए। इस प्रकार समाज में हिन्दू-मुस्लिम परम्पराओं का मिश्रण हुआ और एक नव भारतीय समाज की संरचना हुई। यद्यपि समाज के इन दोनों तत्वों में अनेक समानताएँ व असमानताएँ भी थी तथापि इनसे व्यापक सामंजस्य का भी प्रादुर्भाव हुआ। इस सामंजस्य को इस काल के नगरीय एवं ग्रामीण जीवन में देखा जा सकता है।
इस्लाम के आगमन के साथ इस काल के धार्मिक सोच एवं आध्यात्मिक जीवन में भी काफी कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। इस काल में भक्ति आन्दोलन को एक नई दिशा मिली, जिसने धार्मिक ही नहीं सामाजिक जीवन को भी काफी कुछ प्रभावित किया। इस्लाम के रहस्यवादी विचारक सूफी सन्तों को यहाँ की सरज़मी पर विशेष राहत मिली। फलतः यहाँ पर विविध सूफी सम्प्रदायों को पल्लवित एवं पुष्पित होने का मौका मिला। जगह-जगह पर सूफियों की खानगाहें बन गई। इन्होंने मुस्लिम जनों को हो नहीं हिन्दू जनों को भी प्रभावित किया। सूफी सन्तों की दुआ ने हिन्दू और मुसलमानों के लिए दवा का काम किया। और सूफी सन्त भारतीय समाज के प्रिय पात्र बन गए।
ललित अभिव्यक्ति किसी भी संस्कृति की प्राण है इसके अभाव में संस्कृति अपने को साकार नहीं कर पाती है। मध्यकालीन भारत में इस्लाम के आगमन से हमारी ललित अभिव्यक्ति को कुछ चोट अवश्य पहुंची है। वह भयग्रस्त स्तंभित हो उठी। समय के साथ हिन्दू मुस्लिम एकता को बल मिला और ललित अभिव्यक्ति का एक नया सिलसिला शुरू हुआ। जिसमें अरबी, ईरानी सोच हमारी ललित सोच का अंग बन गया। हमारी ललित सोच को कुछ अंशों तक ईरानी सोच ने प्रभावित किया फिर भी वह उसमें समाहित हो एकमेव हो गई और मुगल काल में इस ललित सोच ने एक नया सोच स्वरूप किया। अकबर ने अनेकानेक हिन्दू कलाकारों को आमंत्रित कर विशेषकर वास्तुचित्रों के निर्माण में लगा दिया। जिससे भारत की कुंठित ललित सोच पुनः उभर कर सामने आई। पर मुगलों पर ईरानी प्रभाव यत्र-तत्र देखने को मिलता है। कला ही नहीं साहित्य के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व प्रगति हुई। फारसी के साथ उर्दू और हिन्दवी आदि भाषाओं का विकास हुआ और शिक्षण व्यवस्था में भी काफी कुछ प्रगति हुई ।
मुझे आशा है कि प्रस्तुत पुस्तक स्नातकोत्तर अध्ययन के छात्रों के लिए जहाँ उपयोगी सिद्ध होगी वहीं प्रतियोगी परीक्षाओं के छात्रों के लिए भी बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।
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