पुस्तक परिचय
लगभग हर व्यक्ति कभी-न-कभी दान देने के आनन्द का अनुभव करता है। ज़रूरतमन्दों को पैसों से मदद, अन्य तरीकों से मदद या स्वयं को प्रस्तुत कर मदद और उनकी समस्या को सुनना या उनकी समस्या के समाधान में मदद करना .... इस पुस्तक का मकसद इस विचार को बढ़ावा देना है न कि एक लोकोपकारी संस्था को स्थापित करना ...
लेखक परिचय
आर०एम० लाला 11 पुस्तकों के लेखक हैं जिनमें से दो बेस्टसेलर हैं 'द क्रिएशन ऑफ वेल्थ' और जे०आर०डी० टाटा की जीवनी 'बियोंड द लास्ट ब्लू माउन्टेन'। 19 साल की उम्र में वे पत्रकार बने। और 1951 में पुस्तक प्रकाशन में आए। उन्होंने एशिया पब्लिशिंग हाउस की यू०के० शाखा को बनाया और उसका प्रबन्धन किया। लन्दन में प्रतिष्ठित पहले भारतीय प्रकाशक थे वह। 1964 में वे समाचार पत्रिका 'हिम्मत वीकली' के सहसंस्थापक बने जिसका उन्होंने अगले एक दशक तक सम्पादन किया। वे सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट, टाटा के प्रधान परोपकारी संस्था के 18 वर्ष तक निदेशक रहे। वे 'सेन्टर फ़ॉर द एडवान्समेन्ट ऑफ़ फिलेनश्रापी' के भी सहसंस्थापक थे और 1993- 2008 तक इसके चेयरमैन रहे। उनकी किताबों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया है जिनमें जापानी भाषा भी शामिल है। वर्ष 2012 में उनका निधन हो गया।
आभार
मेरे दोस्तों ने बड़ी और छोटी चीजें भेजीं जिनका मैंने इस किताब में उपयोग किया है। उनमें से शामिल हैं- डॉ० एम०एस० स्वामीनाथन, डॉ० आर०के० आनन्द, मि० रौनक सुतारिया और मि० नौशिर दादरावाला।
मैं मिसेज़ विल्लु करकेरिया का बहुत आभारी हूँ जिन्होंने मेरे साथ पच्चिस वर्षों से भी अधिक समय तक काम किया। उनकी इस किताब में रुचि और विश्वास ने मुझे इस किताब को पूरा करने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया।
भूमिका
भारतीय व्यापार में लोकोपकार की परम्परा काफ़ी बहुमूल्य है किन्तु इस किताब का विषय 'सफल दान' आजकल की उन्नति है। लोकोपकार का यह रूप 19वीं सदी के उत्तरार्ध में आया जब एन्ड्रयू कारनेगी और जमशेदजी टाटा जैसे व्यापरियों ने अपनी विशाल सम्पत्ति को ट्रस्ट में डालने का निर्णय लिया। ये आधुनिक उद्योग द्वारा उत्पादित पैसे थे। इन ट्रस्ट और संस्था का मकसद समाज के चुनौतीपूर्ण समस्याओं का समाधान करना था जिसके बारे में छोटे स्तर के संस्थान सोच भी नहीं सकते।
रुस्सी लाला की पुस्तकें छोटी होती हैं लेकिन इनकी हर किताब की तरह ये भी बहुत दिलचस्प है। वे दान देने के उद्भव और विकास को लेकर लिखते हुए उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ सर दोराबजी ट्रस्ट के प्रमुख के रूप में अपने अनुभवों को भी आधार बनाते हैं। विशेषकर तब जब वे जे०आर०डी० टाटा और अज़ीम प्रेमजी जैसे सहिष्णु व्यावसायिक व्यक्तित्वों के बारे में लिखते हैं जिनको वे व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं।
आमुख
इन्सान को सम्पत्ति का कोई मतलब नहीं अगर उसे बाँटा और उपयोग में नहीं लाया जाय।