प्राक्कवन
आयु का एक लंबा सफर गुजर गया आदिवासियों पर लिखते-लिखते, उनके जन-जीवन को मन से जीते हुए और उनकी समस्याओं का हल खोजते हुए। आज भी जब प्रकृति की हरीतिमा पुकारती है, किसी आदिवासी गीत की पंक्ति कानों में गूँजती है अथवा पहाड़ के दुख-दर्द स्मृतियों में व्यया भरने लगते हैं तो महानगर के मायाजाल को तोड़ पहुँच जाता हूँ उन भोले-भाले ग्रामीणों के बीच, जहाँ से जीवन-यात्रा का आरंभ हुआ था। भारतीय आदिम जाति सेवक संघ तथा अशोक आश्रम देहरादून का ऋणी हूँ कि इन संस्थाओं ने मेरी नृवैज्ञानिक शोध-यात्रा के श्रीगणेश में महत्वपूर्ण योगदान किया। भारत की जनजातियों, विशेषतया यायावरों पर ढेर सारा पढ़ने-लिखने के बाद भी मन नहीं भरा तो यूरोप एवं अमेरिका के यायावरों के बीच पहुँच गया। एक बार अपने शोध-सर्वेक्षण के दौरान बिहार के आदिवासियों से वास्ता पड़ा। संयोग की बात कहूँ कि प्रस्तुत जीवनी के नायक बिरसा मुंडा के कार्यक्षेत्र में जाने का अवसर भी मिला। बिरसा मुंडा जनजाति समाज में भगवान की भांति पूजनीय माने जाते हैं। उन्होंने अँग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन किए और एक सच्चे शूरवीर की तरह स्वतंत्रता की बलिदेवी पर स्वाहा हो गए। इस जीवनी को लिखने के लिए लिखित साहित्य की अपेक्षा मौखिक लोकगाथाओं, लोकगीतों तथा लोककथाओं की विशिष्ट भूमिका रही। प्रकाशित-अप्रकाशित जो भी सामग्री उपलबध हुई, उससे यह पुस्तक साकार रूप ले सकी। आशा है यह जीवनी बिहार अथवा अन्य प्रदेशों के आदिवासियों के लिए प्रेरक सिद्ध होगी और अन्य सभी पाठकों को आजादी के अल्पज्ञात शहीदों का परिचय देगी। और आभार, डॉ. के.एस. सिंह, भारतीय आदिम जाति सेवक संघ तथा अन्य सभी लेखकों एवं सूचनादाताओं का जिनके सहयोग से कथासूत्र जुड़ते गए। डॉ. एल.पी. विद्यार्थी, महाश्वेता जी, करिया मुंडा व नाग आदि के सुझावों के प्रति भी कृतज्ञता-ज्ञापन तथा मुंडा युवा-शक्ति का सस्नेह अभिनन्दन ।
पुस्तक परिचय
प्रस्तुत जीवनी के नायक बिरसा मुंडा जनजाति में भगवान के सदृश पूजनीय माने जाते हैं। देशभक्त मुंडा ने पराधीनता के खिलाफ विद्रोह का झंडा फहराया और एक सच्चे शूरवीर की तरह स्वतंत्रता की वेदी पर अपनी आहुति दे दी। बिरसा न केवल आदिवासी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि समूचे राष्ट्र के लिए अपने वीरोचित योगदान के लिए प्रसिद्ध हैं। लोकगाथा गीतों में बिरसा आज भी अमर हैं। मुंडा जनजाति के इस महान लोकनायक की जीवन गाथा को संक्षेप में रोचक एवं मार्मिक ढंग से उकेरा है, वन पुत्रों की संस्कृति, साहित्य परंपराओं एवं समस्याओं को प्रकाश में लाने की दिशा में अग्रणी समाज नृवैज्ञानिक लेखक डॉ. श्याम सिंह शशि ने। उल्लेखनीय है कि डॉ. श्याम सिंह शशि ने अपनी आयु का लंबा समय भारत की जनजातियों के कल्याण एवं उनके दुख-दर्द बाँटने में बिताया है। वर्ष 1990 में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें अंग्रेजी साहित्य में पद्म श्री से अलंकृत किया। उनके द्वारा लिखित चार सौ पुस्तकों में 'अग्निसागर' प्रबंध काव्य तथा अंग्रेजी में 'रोमा-टू जिप्सी वर्ल्ड' आदि अनेक ग्रंथ पुरस्कृत हैं। रोमा व प्रवासी भारतीयों के सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययन के लिए उन्होंने अनेक देशों की शोध-यात्राएँ की हैं।
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