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गुजरात में हिन्दी-शोध का विकास- Development of Hindi Research in Gujarat: List of Approved Dissertations and Registered Research Topics (from 1964 to 1997)

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Specifications
Publisher: Hindi Sahitya Academy, Gujarat
Author Amba Shankar Nagar
Language: Hindi
Pages: 104
Cover: PAPERBACK
9.5x7 inch
Weight 200 gm
Edition: 1999
HBX810
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Book Description

भूमिका

प्राथमिक शिक्षण यदि शिक्षा का मूल (रूट) है तो उच्च शिक्षण उसका फल (फूट) है। कौनसा विश्वविद्यालय कितना महत्त्वपूर्ण है, यह जानने के लिए उस विश्वविद्यालय के अध्यापकों और शोधार्थियों के द्वारा किये गये शोधकार्य की गुणवत्ता को ही देखा-परखा जाता है। ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड आदि विश्वविद्यालयों की विश्वव्यापी ख्याति उनके द्वारा किये गये अनुसंधान और ज्ञान के विकास में दिये गये योगदान के कारण है। भारत में भी वे ही विश्वविद्यालय प्रख्यात हैं, जिन्होंने अनुसंधान के द्वारा ज्ञान के विविध क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित किये हैं। जहाँ तक हिन्दी का सवाल है, इलाहाबाद, दिल्ली, बनारस आदि विश्वविद्यालयों के द्वारा किये गये प्रारम्भिक शोधकार्य उल्लेखनीय है।

भारत में हिन्दी-शोध का प्रवर्तन पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ। डॉ. टेस्सी टोरी, डॉ. जे. एन. कार्पेटर तथा डॉ. एफ. ए. के. ने लंदन विश्व विद्यालय से रामचरितमानस, तुलसीदास और कबौर पर डी. लिट् की उपाधि प्राप्त की। इसी अर्से में भारतीय विद्वानों में डॉ. मोहिउद्दीन कादरी ने हिन्दुस्तानी ध्वनियों पर लंदन विश्वविद्यालय से तथा डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने 'ब्रजभाषा' पर पेरिस विश्वविद्यालय से डी. लिट् की उपाधि प्राप्त की।

भारतीय विश्वविद्यालयों में हिन्दी का पठन-पाठन सन् १९२० ई. से प्रारम्भ हुआ। पंद्रह वर्ष बाद सन् १९३४ ई. में इलाहाबाद युनिवर्सिटी में डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने हिन्दी की निर्गुण काव्यधारा विषय पर शोधप्रबन्ध प्रस्तुत किया और उपाधि प्राप्त की। यहीं से भारतीय विश्वविद्यालयों में हिन्दी-शोध का श्री गणेश समझना चाहिए।

प्रारम्भ में शोधकार्य अत्यत गंभीर माना जाता था। यही कारण है कि सन् १९११ ई. से लेकर सन् १९४७ ई. तक भारत में समस्त विश्वविद्यालयों से केवल ३६ शोधप्रबन्ध स्वीकृत हुए। अर्थात् एक वर्ष में केवल एक। स्वतंत्रता के बाद हिन्दी शोध का ऐसा विस्फोट हुआ कि एक-एक विश्वविद्यालय से सैकड़ों शोध प्रबन्ध प्रतिवर्ष स्वीकृत होने लगे, क्यों कि शोध का सम्बन्ध रोजी-रोटी से जुड़ गया। जैसे स्कूल में शिक्षक होने के लिए बी. एड्. होना जरूरी था, वैसे ही कोलेज के लिए पीएच. डी. होना अनिवार्य हो गया। परिणाम स्वरूप शोध की गरिमा खंडित हो गई, उसका स्तर गिरता चला गया।

स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार ने उच्च शिक्षण को प्रोत्साहन दिया। परिणाम स्वरूप प्रत्येक प्रदेश में अनेक नये विश्वविद्यालय स्थापित हुए। भारतीय संविधान ने हिन्दी को राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की, जिसके कारण प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में हिन्दी का पठन-पाठन होने लगा। राजभाषा होने के कारण विदेशों के सैकड़ों विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाने लगी। हाल ही में भारत सरकार ने वर्धा में अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की भी स्थापना कर दी है। हिन्दी के इन बढ़ते चरणों को देखकर यह आवश्यक प्रतीत होता है कि भारत के प्रत्येक विश्वविद्यालय द्वारा किये गये हिन्दी भाषा साहित्य संबन्धी शोधकार्य का सर्वेक्षण किया-कराया जाय और उसे सुसंपादित रूप में प्रस्तुत किया जाय। इसी उद्देश्य से गुजरात के आठ विश्वविद्यालयों के द्वारा सन् १९६४ ई. से सन् १९९७ ई. तक के स्वीकृत शोध प्रबन्धों और पंजीकृत विषयों की यह सूची गुजरात की हिन्दी साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित की जा रही है।

इस शोध सूची को तैयार करने का उद्देश्य हिन्दी शोध के विषयों में होने वाले पुनरावर्तन और शोध के गिरते स्तर को रोकना है। शोधकार्य निर्देशक और शोधकर्ता दोनों का संयुक्त कार्य होता है। इसलिए, यदि कोई शोध -प्रबन्ध उपाधि के लिए अस्वीकृत होता है, तो वह शोधार्थी के ही लिए नहीं, शोधनिर्देशक के लिए भी शर्म को बात होती है। साथ ही यह भी कि शोध के गिरते स्तर के लिए शोधार्थी उतना जिम्मेदार नहीं होता है जितना निर्देशक।

शोध सूचियों को तैयार करने का काम अत्यन्त कठिन है। क्योंकि अधिकांश युनिवर्सिटियों या विभागों के पास ऐसी कोई सूची तैयार नहीं होती, जो माँगते ही भेज दी जाय। इसलिए संग्रहकर्ता को या तो स्वयं विश्वविद्यालयों में जाना पड़ता है या किसी शोध-सहायक को भेजकर सूची तैयार करवानी पड़ती है। यह शोध सूची भी सहसा तैयार नहीं हुई है, इसे क्रमशः तैयार करने में मुझे पूरे तीन दशक लगे हैं।

सन् १९६३ ई. में मेरी नियुक्ति गुजरात युनिवर्सिटी के भाषा साहित्य भवन में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में हुई। शोधार्थियों के शोध-विषयों का पुनरावर्तन न हो, इसलिए मेरे मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि गुजरात के अन्य विश्वविद्यालयों में जिन-जिन विषयों को पीएच. डी. के लिए पंजीकृत किया जा चुका है उनकी सूची तैयार की जाय। उस समय गुजरात युनिवर्सिटी के अलावा वल्लभविद्यानगर और बड़ौदा, केवल दो ही विश्वविद्यालयों में शोध सुविधा उपलब्ध थी। उत्तर गुजरात, दक्षिण गुजरात और सौराष्ट्र में तब तक युनिवर्सिटियों बनी ही नहीं थीं। गुजरात विद्यापीठ में तब तक शोध सुविधा उपलब्ध नहीं थी। इसलिए प्रारम्भ में मैंने इन तीन विश्वविद्यालयों में पंजीकृत विषयों की सूचियाँ अपने उपयोग के लिए तैयार की। फिर प्रतिवर्ष उसमें संशोधन-परिवर्धन करता चला गया। जब नई युनिवर्सिटियाँ अस्तित्व में आई तो उनके द्वारा किये गये शोध कार्य का समावेश भी मैं उसमें करता चला गया। सन् १९८३ ई. में कुछ मित्रों ने यह सुझाव दिया कि यदि बीस वर्षों के सतत परिश्रम से तैयार की गई इस सूची को प्रकाशित करवा दिया जाय तो इससे शोध-निर्देशकों और शोधार्थियों को बड़ा लाभहोगा। इस सुझाव से प्रेरित होकर गुजरात विद्यापीठद्वारा प्रकाशित द्वैमासिक पात्रिका 'विद्यापीठ' के अंक १२६ नवम्बर-दिसंबर, सन् १९८३ ई. तथा अंक १२७, जनवरी फरवरी सन् १९८४ ई. में, क्रमशः वह शोध सूची प्रकाशित हुई।

गुजरात में हिन्दी विषय में पीएच. डी. उपाधियों का प्रारंभ सन् १९६४ ई. से हुआ था। अतः सन् १९६४ १. से सन् १९८० ई. तक के स्वीकृत शोध-प्रबन्धों एवं पंजीकृत विषयों की सूची की पहली किश्त उपर्युक्त पत्रिका में पहलीबार प्रकाशित हुई। तत्पश्चात् सन् १९८४ ई. तक की संशोधित सूची हिन्दी साहित्य परिषद्, अहमदाबाद के द्वारा सन् १९८५ ई. में प्रकाशित मेरे अभिनन्दन ग्रंथ में छपी। इसके ठीक दस वर्ष बाद सन् १९९४ ई. तक की तीसरी सूची डॉ. रामकुमार गुप्त के अभिनन्दन ग्रंन्ध में प्रकाशित हुई। और अन्त में, सन् १९६४ ई. से लेकर सन् १९९७ ई. तक की यह संपूर्ण सूची अब आपके कर कमलों में है। जैसाकि पहले कहा जा चुका है इस शोध-सूची को तैयार करने का उद्देश्य हिन्दी शोध के विषयों में होने वाले पुनरावर्तन और शोध के गिरते स्तर को रोकना है। निर्देशक यदि शोधार्थी और शोध-विषय का चयन ठोक-बजाकर करे, सुयोग्य छात्र को उसकी रुचि और क्षमता के अनुकूल विषय दे। विषय की रूप-रेखा और सन्दर्भ ग्रन्थों को सूची छात्र को तैयार करवा दे और शोध के मूलभूत सिद्धान्तों से छात्र को अवगत कर देने के पश्चात ही उसे सामग्री संकलन और लेखन की अनुमति दे और शोध प्रबन्ध को अक्षरशः पढ़कर हो परीक्षण के लिए और अग्रसारित करे। इसी तरह परीक्षक भी शोध-प्रबन्ध का परीक्षण आद्योपांत पढ़कर करे तथा मौखिकी में रियायत न बरते, तो शोध का स्तर अपने आप उच्च से उच्चतर हो सकता है।

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