(i) धनुर्वेद संहिता का स्वरूप - अखिल भारतीय संस्कृत परिषद् लखनऊ के तत्कालीन पुस्तका-लयाध्यक्ष श्री द्वारका प्रसाद शास्त्री के सघन प्रयासों से महर्षि वशिष्ठ विरचित धनुर्वेद संहिता प्रकाश में आयी है, यद्यपि इसके भी चतुर्थ पाद में 25 श्लोक अनुपलब्ध हैं, क्योंकि उन्होंने इसे जीर्णशीर्ण एवं त्रुटित प्रति से किसी प्रकार अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक तैयार किया है।'
हमारी विवेच्य धनुर्वेद संहिता में कुल 270 श्लोक एवं 57 प्रकरण प्रयुक्त हुए हैं, जिनमें लगभग आठ गद्य भाग भी हैं। इसमें अधिकांश रूप से अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु दूसरे छन्दों के साथ गद्य के माध्यम से भी ग्रन्थकार ने अपनी बात कही है। विषयवस्तु को चार भागों में विभाजित किया गया है, जिसे 'पाद' संज्ञा प्रदान की है।
प्रथम पाद में सौ श्लोक के अन्तर्गत सत्रह प्रकरण निबद्ध किए गए हैं, जिसमें इस ग्रन्थ के प्रवक्ता, श्रोता, अधिकारी, अनधिकारी, धनुर्दान विधि, आचार्य की परिभाषा, धनुर्विद्या को सीखने के लिए शुभमुहूर्त एवं प्रारम्भ करने की विधि, वेध-विधि, धनुष का परिमाण, उत्तम धनुष के लक्षण, निषिद्ध धनुष, श्रेष्ठ प्रत्यञ्चा के लक्षण, उत्कृष्ट बाण के लक्षण एवं उसके निर्माण के प्रकार, बाण के फल के लक्षण एवं इसके कर्म, बाण के फल के ऊपर औषधि लेपन, बाण को छोड़ने का पैंतरा (स्थान), धनुर्मुष्टि, गुणमुष्टि एवं बाण का कर्षण, प्रत्यञ्चा को पकड़ने के नियम, धनुर्मुष्टि का सन्धान, लक्ष्य को साधना एवं धनुर्वेद में अभ्यास का महत्त्व आदि अनेकानेक विषयों का विस्तार के साथ उल्लेख किया गया है।
जबकि द्वितीय पाद में कुल निन्यानवें श्लोकों का प्रयोग हुआ है, जिसमें बाण के लक्ष्य के अभ्यास के प्रकार, अभ्यास के विषय में अनध्याय, श्रम साध्य प्रक्रिया, लक्ष्य के न चूकने की विधि, बाण को शीघ्रतापूर्वक चलाना, दूरी तक लक्ष्यभेद करना, बाणों की तीन प्रकार की गति, बाण के लक्ष्य के विषय में स्खलन विषयक चिन्तन, धनुर्धर की दृष्टि, लक्ष्य एवं बाण के अग्रभाग का तालमेल, दृढ़भेदी बाण, लक्ष्य को भेदने की चित्र-विधि, काष्ठभेदन, दौड़ते हुए लक्ष्य की सिद्धि, बाण की शब्दवेधिता, बाण की प्रत्यागमन विधि, अस्त्र धारण करने की विधि, अस्त्रों के प्रकार, अस्त्रों को मन्त्रपूत करना, ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मदण्डास्त्र, ब्रह्मशिरास्त्र, वायव्यास्त्र, आग्नेयास्त्र, नरसिंहास्त्र, पाशुपतास्त्र आदि कुल बाईस विषयों को प्रस्तुत किया गया है।
इसीप्रकार तृतीय पाद के अन्तर्गत मात्र तैंतीस श्लोकों में जिन चार विषयों की चर्चा की गयी है, वे इसप्रकार हैं- शुभ नक्षत्र एवं वार में औषधि ग्रहण करके उसे शरीर पर लगाना मुख में रखना या हाथ में बाँधना, औषधि ग्रहण करने की विधि, सेना के समक्ष मुद्राओं का प्रयोग, रुद्र ध्यान एवं मन्त्र जाप आदि विषयों का कथन हुआ है।
अन्तिम चतुर्थ पाद में श्लोकों की संख्या यद्यपि छियासठ रही है, किन्तु इसमें श्लोक संख्या नौ के बाद चौंतीस पर्यन्त पच्चीस श्लोकों के अनुपलब्ध होने के कारण कुल इकतालीस श्लोक ही प्रयुक्त हुए हैं, जिनमें कुल चौदह विषयों का निबन्धन हुआ है, जो इसप्रकार हैं-राहुयुक्त योगिनी की बलाबल विषयक दृष्टि, व्यूह आदि द्वारा युद्ध चर्चा, सेना के प्रकार एवं उसकी व्यूह रचना, व्यूहों के सात प्रकार, सैन्य शिक्षा विषयक नियम, पैदल सैनिकों की योग्यता, ज्योतिष में वणर्णों की दृष्टि से सैनिकों का नियोजन, पदातिक्रम, स्वरों के अनुसार युद्ध के नियम, अश्वसेना द्वारा युद्ध, हस्तिसेना का युद्ध एवं अश्व एवं हस्ति प्रशिक्षण, सेनापति के चयन की विधि, सैन्य शिक्षा, घाताघात विषयक नियम आदि अनेकानेक विषयों पर चर्चा की गयी है।
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