प्राक्कथन
गतवर्ष इसी समय जनजागरण एवं लोकशिक्षण संस्थान से लगभग इतनी ही बड़ी एक पुस्तक (हमारे पाँच कवि मित्र) निकली थी, जिसमें पाँच कवियों (स्व० श्रीरामचन्द्रराय होशिंग, श्री दयाशंकर तिवारी, श्री कोमल शास्त्री, श्री हीरालाल द्विवेदी और श्री ओंकारनाथ श्रीवास्तव) का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय दिया गया है। साहित्य के अध्येताओं की ओर से उस पर अच्छी प्रतिक्रियाएँ आईं जिससे उत्साहित होकर हमने वैसी ही एक अन्य पुस्तक निकालने का मन बनाया और उसके लिए तीन कवियों (श्री सत्यनारायण द्विवेदी "श्रीश”, आचार्य विश्वनाथ पाठक और डॉ० स्वामीनाथ पाण्डेय) को चिह्नित किया। 'श्रीश' जी की मात्र एक पुस्तक (गीतिकल्प) हमारे पास है, जो उत्तरप्रदेश हिन्दीसंस्थान के सहयोग से १६८६ में छपी थी। उससे पहले उनकी दो अन्य पुस्तकें (संकल्प और सुभाष की विभा) निकली थीं जो हमारे देखने में नहीं आईं और अब उनकी कोई प्रति ढूँढ़ने से भी नहीं मिल रही हैं। उन्होंने ब्रजभाषा में सैकड़ों छन्द (सवैये तथा घनाक्षरियाँ) लिखे हैं जो इतस्ततः बिखरे हुए हैं। उनमें से कुछ लुप्त भी हो गए हैं और कुछ उन्हें कण्ठाग्र हैं। छन्दों का कोई व्यवस्थित संग्रह उपलब्ध नहीं है। हमने 'श्रीश' जी से अपना संकल्प व्यक्त किया था और उन्होंने अपनी अनुपलब्ध रचनाएँ उपलब्ध कराने में हमारा सहयोग करने का वचन भी दिया था, परन्तु वार्द्धक्यजन्य शारीरिक शिथिलता और आकस्मिक घरेलू झंझटों के चलते उनके लिए अपना वचन पूरा करना सम्भव न हो सका। फलतः उन पर कुछ लिखने का अपना इरादा हमें फिलहाल मुल्तवी करना पड़ा।
पाठक जी की दो पुस्तकें (रणचण्डी और सर्वमंगला) छप चुकी हैं। दोनों दुर्गासप्तशती के दो भिन्न-भिन्न आख्यानों को केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। रणचण्डी' परिनिष्ठित हिन्दी में है और 'सर्वमंगला' अवधी का अप्रतिम प्रबन्धकाव्य है। दोनों को एक साथ केन्द्र में रखकर हमने वर्षों पूर्व एक समीक्षात्मक निबन्ध लिखा था जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं तथा निबन्ध संग्रहों में छप चुका है। इस बीच वे अवधी में एक नवीन प्रबन्धकाव्य (घर के कथा) लिखने में लगे हुए हैं जो अभी पूरा नहीं हुआ है। उनके कतिपय प्रशंसकों ने हमें सुझाया कि जबतक वह पूरा नहीं हो जाता तबतक हमें इंतजार करना चाहिए। हमें भी यह सुझाव युक्तिसंगत लगा और हमने उनको भी फिलहाल अपनी सूची से निर्गत कर दिया। अब मात्र डॉ० स्वामीनाथ पाण्डेय बचे। उनकी पहली पुस्तक (आँवा) १६७८ में छपी थी। तभी उनकी और हमारा ध्यान आकृष्ट हुआ था और उन पर कुष्ठ लिखने के लिए हमारा मन मचल रहा था, लेकिन चाहते हुए भी लेखनी ने हमारा साथ नहीं दिया। १६६३ तक उनकी चार पुस्तकें छप गईं जिनमें तीन काव्य-संग्रह हैं और एक में उनके व्यंग्य-लेख संकलित हैं। पिछले दस वर्षों में उन्होंने और भी बहुत कुछ लिखा है जो अभी अप्रकाशित हैं। अभी वे पूर्णतः स्वस्थ एवं सक्रिय हैं और निरन्तर लिख रहे हैं। हमें विश्वास है कि आने वाले दिनों में वे बहुत कुछ लिखेंगे, फिर भी उसके इंतजार में बैठे रहना उचित न समझकर हमने उनकी अबतक उपलब्ध रचनाओं को केन्द्र में रखकर यथाशक्ति कुछ लिख डालने का निश्चय कर लिया। कहाँ ७८ से अब तक उनके विषय में एक छोटा सा लेख लिखना हमारे लिए कठिन हो रहा था और कहाँ अचानक पुस्तक तैयार हो गई, भले ही वह छोटी क्यों न हो। विचारणीय विन्दु एक-एक करके सूझते रहे और अन्तःकरण से शब्द स्वयमेव निःसृत होते गए। वाणी की अधिष्ठातृ देवता सरस्वती की अहैतुकी कृपा के अभाव में यह सम्भव न था
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